ई-पुस्तकें >> देवकांता संतति भाग 4 देवकांता संतति भाग 4वेद प्रकाश शर्मा
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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...
'तुम मेरे पिताजी के दोस्त के बेटे हो और उम्र में मुझसे छोटे।'' गौरवसिंह बोला- ''इसलिए तुम मेरे छोटे भाई हो और बड़ा भाई होने के नाते मैं तुम्हें पाप के गर्त में नहीं डूबने दूंगा और अगर मैंने यह अधर्म होने से नहीं रोका तो मुझे भी पाप लगेगा।''
''मैं तुमसे कोई राय नहीं लेना चाहता गौरवसिंह।'' कहते विकास ने एक जोरदार घूंसा उसकी कनपटी पर जड़ दिया। गौरवसिंह को उससे इस तरह की बिल्कुल आशा नहीं थी।'' इसलिए लड़खड़ाकर दूर जा गिरा और अभी वह फुर्ती के साथ उठना ही चाहता था कि विजय ने चीते की तरह झपटकर' पकड़ लिया- ''लड़के के बीच में नहीं बोला करते डियर सन... वह खतरनाक है।''
''पिताजी!'' विजय के बन्धनों में मचलता-हुआ गौरवसिंह बोला- ''विकास को रोकिए, वह पाप..!''
''ये पाप और पुण्य की बातें तुम जैसे आदम जमाने के लोग ही सोच सकते हैं माई डियर सन।'' विजय बोला- ''अगर यह पाप है तो अपना दिलजला महापापी है। उसने न जाने कितने आदमियों को बकरा समझकर हलाल किया है। जब उसने इतने पाप किए हैं तो यह भी करने दो।''
''आप कैसी बातें कर रहे हैं पिताजी?'' गौरवसिंह बन्धनों में मचलता हुआ बोता- ''मुझे छोड़ दीजिए।'' लेकिन विजय उसे छोड़ नहीं रहा था, क्योंकि उसे छोड़ने का मतलव वह जानता था... विकास अपने इरादे का पका है। जो उसने सोच लिया है, वह किसी भी कीमत पर उसे करने से बाज नहीं आएगा। इधर, गौरवसिंह भी उसे रोकने के लिए पूरी तरह कटिबद्ध था। इसका सीधा-सा अन्जाम था... विकास और गौरवसिंह का टकराव। और... इस यात्रा के दौरान विजय ऐसा बिलकुल नहीं चाहता था। हालांकि गौरवसिंह उसके बंधनों से निकलने की भरपूर कोशिश कर रहा था... किन्तु वे बंधन विजय के थे, जिनसे किसी भी तरह निकल सकना सम्भव नहीं था। इधर वे दोनों अड़े हुए थे और उधर.. विकास ने ब्लेड चला कर गोवर्धनसिंह की नाक काट डाली। उसके बाद कानों का नम्बर आया.. तब कहीं जाकर दर्द से तड़पते गोवर्धनसिह ने यह बताया- ''जिस रास्ते से हम आ रहे हैं, उसी रास्ते से हमारे पीछे एक नाव आ रही है। उसी में मेरे तीन ऐयार साथी, गोमती और वे दोनों हैं।''
बस, इतना पूछने के बाद विकास को उससे और कोई काम नहीं था। लेकिन गोवर्धनसिंह रोशनसिंह की तरह मरा नहीं, बल्कि उसी तरह पीड़ा के कारण चिंघाड़ता रहा। उस समय तक विजय ने गौरवसिंह को उसी तरह पकड़ रखा था। गौरवसिंह चीख रहा था- ''पिताजी, मैं पिता की आज्ञा का उल्लंघन और उन पर हाथ उठाने जैसा अधर्म नहीं करना चाहता... इसलिए कहता हूं कि मुझे छोड़ दो।''
''माफ करना गौरवसिंह! तुम्हारी ये बेसिर-पैर की बातें हमारे बीच नहीं चलेंगी। हमें हमारे ढंग से काम करने दो, धर्म और अधर्म की बातें हम नहीं समझते। हमारा काम करने का यही ढंग है और हमें तुम रोक नहीं सकते।''
''मैं तुमसे इस पाप का बदला लूंगा विकास।'' गौरवसिंह अपनी पूरी ताकत से दहाड़ा।
''गुरु।'' विकास उसकी बात पर ध्यान न देकर बोला- ''इसका एक रोशनसिंह नाम का ऐयार साथी हमारे स्टीमर पर अजय अंकल के रूप में था। उसका मैंने क्रिया-कर्म कर दिया है। लेकिन उससे पहले ही वह हमारे सारे हथियार सागर में फेंक चुका था। अब हमारे पास आधुनिक हथियारों के नाम पर कुछ भी नहीं है। हमें इन ऐयारों का मुकाबला इनके ढंग से करना होगा।'' - ''इसका मतलब... इन्होंने हमें भी अपना ही बिरादरी भाई बना दिया।'' विजय बोला।
''गोवर्धनसिंह ने बता दिया है कि ठाकुर नाना और अंजय अंकल कहां हैं।'' बोला- ''मुझे उन्हें लेने के लिए अपना स्टीमर जरा पीछे ले जाना पड़ेगा। आप अपने रास्ते पर आगे बढ़ो... वंदना मेरे साथ है, मैं पहुंच ही जाऊंगा।'' इतना कहने के बाद विकास सीढ़ियों पर चढ़ता चला गया और वह दूसरे स्टीमर की छत पर पहुंच गया। चालक-कक्ष में जाकर उसने धनुषटंकार को आदेश दिया कि स्टीमर वापस मोड़ लो।
विजय ने गौरवसिंह को अपने बन्धनों से उस वक्त मुक्त किया... जब दूसरा स्टीमर पीछे की तरफ मुड़कर थोड़ी दूर चला गया। इस बीच गौरवसिंह उसके बन्धनों से निकलने के लिए कोशिश करता रहा था, किन्तु नाकामयाब रहा था। बन्धनों से निकलते ही गौरवसिंह किसी बिगड़े हुए सांड की तरह लगने लगा। विजय की ओर देखकर बोला- ''आप मेरे पिताजी हैं, इसलिए न तो आपको कोई गलत शब्द कह सकता हूं और न ही हाथ उठा सकता हूं... लेकिन जो भी कुछ हुआ है, बहुत बुरा हुआ है। न केवल विकास को ही... बल्कि सबको इस पाप की सजा भुगतनी होगी।''
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