ई-पुस्तकें >> देवकांता संतति भाग 4 देवकांता संतति भाग 4वेद प्रकाश शर्मा
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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...
''अबे प्यारे बागड़ बिल्ले, कुछ तो बोलो।'' कहते हुए विजय ने एक घूंसा बड़ी जोर से उसके पेट में मारा। गोवर्धनसिंह अपना पेट पकड़कर दोहरा हो गया। उसकी आंखों में आंसू निकल आए। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह कैसे अजीब लोगों में फंस गया है? वह बड़ी अजीब परिस्थिति थी कि वह समझ नहीं पाया था कि विजय ने उससे क्या पूछा है और जवाब न देने के चक्कर में उसे इतनी जोर का घूंसा खाना पड़ा था। आखिरकार उसने कहा- ''लेकिन आप पूछना क्या चाहते हैं?'' उसने यह प्रश्न रोते हुए कुछ इस ढंग से किया था कि मानो वह बहुत मजबूर हो।
आह!'' विजय एकदम औरतों की तरह उंगली दांतों में जमाता हुआ बोला- ''तो प्यारेलाल अभी ये नहीं समझे हैं हम पूछना क्या चाहते हैं?'' कहने के साथ ही विजय ने उसके गाल पर हाथ फेरा और उसे पुचकारता हुआ बोला- ''प्यारे गोवर्धन भाई, हम तुमसे विनती करके यह पूछना चाहते हैं कि तुमने हमारे बापूजान को कहां छुपाकर रखा है? जल्दी बता दो... अब देखो ना, हम अपने बापू की विरह में कैसे तड़प रहे हैं... जैसे जल बिन मछली।''
''जब तक आप मुझे नहीं छोड़ेंगे, मैं आपके इस सवाल का जवाब नहीं दूंगा। गोवर्धनसिंह एकदम अकड़ गया।
'लो छोड़ दिया!'' विजय ने उसका गिरेबान छोड़ते हुए कहा- ''अब बता दो।''
'मेरा छोड़ने का मतलब यह नहीं था।'' गोवर्धनसिंह बोला- ''मेरा मतलब है मुझे आजाद कर दें।''
''क्यों नहीं प्यारे आजाद भी जरूर...।''
''ठहरो।'' बहुत देर से शांत खड़ा हुआ विकास अचानक विजय की बात बीच में ही काटकर गुर्रा उठा- ''ये इस तरह नहीं बतायेगा.. आप जरा हट जाइए। मुझे लगता है कि ये ऐयार के बच्चे बातों के नहीं लातों के हैं। गुरु..... इनकी समझ में आपकी बात जरा देर में आएगी और मेरी जल्दी। आप हटो.. मैं इसे अभी नजारे दिखाए देता हूं।'' कहने के साथ ही विकास गोवर्धनसिंह की ओर बढ़ा।
विजय ने कुछ बोलना चाहा तो.. किन्तु इस मौके पर न जाने क्या सोचकर वह बोला नहीं। उधर जब गोवर्धनसिंह ने एक लम्बे दैत्य को अपनी बढ़ते हुए देखा तो बोला- ''अगर तुमने मेरे साथ किसी तरह की मारपीट की तो मेरे साथी ठाकुर साहब और अजय को मार डालेंगे।''
लेकिन... उस बेचारे को क्या पता था कि विकास इन बेकार की बातों पर ध्यान नहीं दिया करता। उसने गोवर्धनसिंह को जब अपने ढंग से लिया तो रैना कांप उठी। गौरवसिंह चमत्कृत... विजय आराम से देख रहा था। स्टीमर गोवर्धनसिंह की चीखों से गूंज रहा था। पांच मिनट बाद ही विकास ने उसे भी रोशनसिंह की तरह ही स्टीमर की छत पर उल्टा लटका दिया। विजय उस समय तक सबकुछ तटस्थ हालत में देख रहा था। उस समय तो विजय के जिस्म में भी सिहरन-सी दौड़ गई... जब विकास ने एक झटके से ताजा ब्लेड निकाला। वह विकास के भयानक इरादे को भांप चुका था... लेकिन बोला कुछ नहीं।
''बोलो बाकी ऐयार कहां हैं?''
जवाब न मिलने की हालत में... विकास की उंगलियों में दबे ब्लेड का कमाल। उसका दरिन्दगी-भरा रूप! गोवर्धनसिंह की चीखें! रैना का दहलता हुआ दिल! जब गौरवसिंह से नहीं रहा गया तो बोला- ''विकास... ऐयार को मारा नहीं जाता।''
''तुम चुप रहो।'' विकास गुर्राया- ''विकास जब काम करता है तो उसे राय की जरूरत नहीं होती।''
''नहीं!'' गौरवसिंह दो कदम आगे बढ़कर बोला- ''मैं तुम्हें ऐसा नहीं करने दूंगा। ये अधर्म है... पाप है।''
''अधर्म और पाप की बातें मैं नहीं जानता गौरवसिंह।'' विकास दहाड़ा- ''मेरा सिद्धांत है कि दुश्मन का नामोनिशान मिटा दो। मेरा धर्म है कि जो रास्ते में आए, उसे हमेशा के लिए सुला दो। जिस काम को तुम पाप समझते हो... मैं उसे पुण्य समझता हूं! दुश्मन के लिए मैं कसाई हूं और दुश्मन मेरा बकरा!''
''और हमारे सिद्धान्तों में ऐयारों को मारा नहीं जाता।'' गरजता हुआ गौरवसिंह विकास के पास आ गया।
''अपने सिद्धान्त को संभालकर जेब में रखो गौरवसिंह हमारे साथ रहकर तुम्हारे सिद्धान्त नहीं चलेंगे।''
''ऐसा नहीं हो सकता।'' गौरवसिंह उसी दृढ़ता से बोला- ''मैं अपने सामने तुम्हे पाप नहीं करने दूंगा।''
''विकास जो सोच लेता है... वो पत्थर की लकीर होती है।'' वह गरजा- ''मेरे निश्चय को कोई नहीं डिगा सकता। तुम दूर खड़े होकर तमाशा देखो और देखना नहीं चाहते हो तो हॉल से बाहर जा सकते हो। पाप लगेगा लगेगा... पाप मैं करता हूं।''
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