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देवकांता संतति भाग 3

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2054
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

यहां पर सांस लेने के लिए अग्निदत्त रुका तो देवकी ने पूछा- ''उस चीते का क्या भेद था - कुछ पता लगा?'' - 'चीते का तो हम कुछ भेद जान नहीं सके, मगर हमें ऐसा ही लगता है कि वह महात्मा ही चीता बना होगा। क्या आप इस बारे में अपनी राय दे सकती हैं?''

'हालांकि मैं बहुत कुछ समझ रही हूं।'' हल्के-से मुस्कराकर देवकी ने कहा- ''मगर पहले तुम कहो-आगे क्या हुआ?'' - ''हमने जो देखा, ये सब क्या खेल था?' दालान में आते, ही हमने नन्नी से पूछा। इसके जवाब में नन्नी बोली- 'मझे खुद नहीं पता कि ये सब क्या मामला है शायद बापू को कुछ पता हो। बापू इधर, मकान के पीछे बेहोश पड़े हैं - उन्हें होश में लाकर उनसे कुछ पूछो।' कहती-कहती नन्नी अभी तक भय से कांप रही थी। हम दोनों उसके साथ मकान के पीछे गए। वहां एक कोने में महात्माजी को बेहोश पड़े पाया। मैंने अपने बटुए से लखलखा निकालकर उन्हें सुंघाया। दो-तीन बार सुंघाने के बाद उन्हें होश आया तो वे चौंककर उठ बैठे। सबसे पहले उन्होंने कहा- 'मेरा झोला कहां है?' इतना कहकर वे दालान की तरफ भागे, किन्तु वहां झोला न देखकर चीख पड़े। हम भी उनके पीछे-पीछे ही भाग आए थे। हमने पूछा- 'क्या बात है महात्माजी - आप इतने परेशान क्यों है?''

''क्या तुमने मेरा झोल उठाया है?' परेशान-से होकर महात्माजी ने हमसे प्रश्न किया।

''हमारी 'नहीं' सुनकर तो जैसे उनके होश ही गुम हो गए। वे रह-रहकर चीखने तथा माथा और छाती पीटने लगे। जब हमने उन्हें काफी समझाया तो वे देवसिंह से बोले- 'तुम और तुम्हारे मां-बापों पर बहुत बड़ी मुसीबत आने वाली है देवसिंह...इस समय हमसे कोई प्रश्न मत करो ... तुम्हारे मां-बाप खतरे में हैं। जाओ, जल्दी जाओ नहीं तो।' कुछ कहते-कहते रुक गए महात्माजी, फिर एकदम विषय बदलकर बोले- 'सारे किए-धरे पर पानी फिर गया - जिसका मुझे डर था वही हुआ। वह झोला दुश्मनों के हाथ लग गया। अब न जाने क्या अनर्थ होगा - देवसिंह, तुम जल्दी से जाकर अपने मां-बाप को बचाओ।'

''इसके बाद हमने महात्माजी से बहुत कुछ पूछा, मगर उन्होंने हमारी किसी बात का जवाब नहीं दिया। वह झोला चला जाने का उन्हें इतना रंज था कि उन्होंने हमारी एक न सुनी। उधर महात्माजी की बातों से देवसिंह को अपने माता-पिता के बारे में बड़ी चिन्ता हो गई थी। अत: वह भी वहां न ठहरा और मुझे भी खींच लाया।''

''लेकिन तुम देवसिंह को गिरफ्तार करके यहां क्यों ले आए?'' देवकी ने अग्निदत्त से प्रश्न किया।

''कमाल है रानी साहिबा!'' अग्निदत्त बोला- ''आपको मैंने पूरी घटना सुना दी और फिर भी आप देवसिंह का महत्त्व नहीं समझीं? जरा सोचो कि उस महात्मा ने कहा था कि राक्षसनाथ का तिलिस्म केवल देवसिंह ही तोड़ सकता है, अत: देवसिंह से अधिक काम का आदमी भला ..इस जमाने में और कौन होगा? फिर मुझे उससे वह बात भी पता लगानी है कि महात्मा ने उसके कान में क्या कहा था।''

''मैं जानती हूं कि महात्मा ने उसके कान में क्या कहा था।'' देवकी बड़ी गहरी मुस्कान के साथ बोली।

''क्या?'' अग्निदत्त बुरी तरह चौंक पड़ा- ''आप ये क्या कह रही हैं - मुझे यकीन नहीं!''

''ये माना अग्निदत्त कि तुम बहुत अच्छे ऐयार हो, लेकिन.. खैर छोड़ो.. क्या तुम इस राजमहल में उस महात्मा को देखने की कल्पना कर सकते हो?''.

''क्या?'' अग्निदत्त चिहुंक उठे।

''हमारे साथ आओ।'' यह कहकर देवकी अग्निदत्त को बाग में एक चुनार के पेड़ के पास ले गईं। तरद्दुद में फंसा अग्निदत्त अभी उनके साथ ही था कि पेड़ के पीछे से वही महात्मा निकलकर सामने आ गया। अग्निदत्त की उलझन का कोई ठिकाना नहीं रहा था? महात्माजी मुस्कराते हुए उन्हीं की तरफ आ रहे थे। अग्निदत्त अच्छी तरह पहचान रहा था। बेशक ये लोग खुद को ज्यादा चालाक समझ रहे थे, किन्तु असल चालाक तो वह आदमी था जो बेंच के नीचे लेटा उनकी सब बातें सुन रहा था, किंन्तु कोई दखल नहीं कर रहा था।

 

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