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देवकांता संतति भाग 3

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2054
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

''आप तो व्यर्थ ही चिन्ता कर रहे हैं महाराज!'' जोरावरसिंह ने सहज स्वर में कहा- ''यह तो ठीक है कि अपने घर की याद सभी को आती है - सभी की इच्छा है कि भरतपुर को जल्द-से-जल्द फतह करें और राजगढ़ पहुंचकर अपने बीवी-बच्चों से मिलें। लेकिन जहां चालीस दिन सब्र किया है, वहां एक-आध दिन और सही। राजधानी के लोगों के लिए अन्दर खाना खत्म हो गया होगा। आज-कल में मजबूर होकर फाटक खोला ही जाएगा।

मैं तो यही कहता हूं कि अन्त में यही होगा कि राजा सुरेन्द्रसिंह मजबूर होकर कांता की शादी बड़े कुंवर से करने के लिए तैयार हो जाएंगे।'' चन्द्रदत्त मन-ही-मन दहल उठे। अपने मन में बोले-'हां बदकार - मैं जानता हूं कि तेरी साजिश यही है कि तू मुझे इस बहाने अन्दर ले जाए और...!' प्रत्यक्ष में वे फिर बात बदलकर बोले- ''लेकिन उससे पहले सुरेन्द्रसिंह के ऐयारों ने किसी तरह की करामात दिखा दी? सुना है कि सुरेन्द्रसिंह के पास शेरसिंह नाम का ऐयार है जो कमाल का दिमाग रखता है। बड़े-से-बड़ा काम वह अपने दिमाग के बल पर सहज ही कर डालता है।'' - ''आप तो बेकार ही घबराते हैं महाराज!'' जोरावरसिंह ने कहा- ''भला ऐसी स्थिति में किसी की क्या ऐयारी चल सकती है? ऐयार केवल उस समय तक कुछ कर सकता है, जब तक कि युद्ध न छिड़े। छिड़ने के बाद सारी बागडोर योद्धाओं और बलवानों के हाथ में होती है। ऐयार योद्धा तो होते ही नहीं और फिर ऐसी स्थिति में, जबकि सुरेन्द्रसिंह के सारे ऐयार भी राजधानी में कैद हैं, भला कोई क्या कर सकता है. आप निश्चिन्त रहें - अब फतह निश्चित है।'' - 'हां दुष्ट - मैं जानता हूं कि तेरी फतह निश्चित है।' मन-ही-मन चन्द्रदत्त कह उठे - तुझ-सा पापी तो आज तक कहीं नहीं हुआ होगा।' प्रत्यक्ष में इस वार वे कुछ नहीं बोले, बल्कि चुप रह गए। जब आदमी के मन में किसी के प्रति गलतफहमी आ जाती है तो दूसरे की सीधी-सादी बातें भी उल्टी ही नजर आती हैं। यही सबब था कि इस समय चन्द्रदत्त जोरावरसिंह को गद्दारी की दृष्टि से देख रहे थे तो उन्हें उसकी हर बात उल्टी ही लग रही थी। दिमाग भी अजीब चीज है।

हमेशा अपने पक्ष की ही बात सोचता है। यही हाल इस समय चन्द्रदत्त का भी था। बेचारा जोरावरसिंह इस समय जो बात सहज भाव में भी कह रहा था, उसमें भी चन्द्रदत्त को गद्दारी की बू आ रही थी। वहां सन्नाटा छाए अभी कुछ ही सायत हुए थे कि एक सिपहसालार तेजी से उनकी ओर आता आ चमका। सबकी दृष्टि उसी पर जम गई। चन्द्रदत्त सोचने लगे कि जरूर यह सिपहसालार पन्नालाल के आने की सूचना लेकर आया है।

वह इस तेजी से उनके पास आ रहा था मानो कोई बहुत ही आवश्यक सूचना वह उन तक पहुंचा देना चाहता हो। पास आकर उसने सबको सलाम किया और अदब से खड़ा होकर बोला- ''अभी-अभी राजगढ़ से करतारसिंह आए हैं।''

''करतारसिंह!'' चन्द्रदत्त एकदम चौंककर बोले - उन्होंने सोचा-- आना तो पन्नालाल को था, ये करतारसिंह क्यों आए हैं? कहीं गड़बड़ तो नहीं है, परन्तु अपने असली भावों को छुपाते हुए वे बोले-- ''करतारसिंह क्यों आए हैं -क्या कहते हैं?''

''सूरत से वे एकदम घबराए-से लगते हैं।'' सिपहसालार ने बताया- ''आते ही बोले कि तुरन्त उनके आगमन की सूचना राजा साहब को दे दी जाए।''

''तुमने खुद उनसे आने का सबब नहीं पूछा?'' चन्द्रदत्त ने प्रश्न किया।

''पूछा था।'' सिपहसालार ने जवाब दिया- ''किन्तु उन्होंने इतना ही कहा कि समय बर्बाद मत करो। अगर जल्दी ही मेरे आगमन की सूचना उन्हें न दी गई तो बड़ा अनर्थ हो जाएगा। तुम जल्दी से जाकर उनसे कहो- और उनकी घबराहट देखकर मैं तुरन्त आपके पास चला आया।''

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