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देवकांता संतति भाग 3

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2054
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

 

चौथा बयान


सुबह हुआ ही चाहती है। पूरब की तरफ का गगन हल्की-सी लालिमा से ओत-प्रोत है। अभी सूर्यदेव ने इस दुनिया के निवासियों को अपने दर्शन नहीं दिए हैं, किन्तु फिर भी पूरब दिशा के गगन को लालिमा प्रदान करके भास्करदेव ने धरती निवासियों को अपने आगमन की सूचना दे दी है। आज का यह प्रात: न जाने किस-किस के दिल में क्या-क्या विचार पैदा कर रहा है। सुरेन्द्रसिंह अपने महल की बारादरी में खड़े सूर्य के दर्शन हेतु व्यग्र है। क्योंकि आज का सूर्य विशेष रूप से उनके लिए एक नया प्रभात लेकर आ रहा है। उधर चन्द्रदत्त भी अपने लश्कर के बाहर खड़े पूरब की तरफ देख रहे हैं। इस समय उनके दिल में न जाने कितने विचार उठ रहे हैं।

कभी उनके दिल में आता है कि अगर नलकूराम पन्नालाल का भेस बनाए समय पर नहीं आया? अगर उसके आने से पहले ही गद्दार दारोगा जोरावरसिंह अपनी साजिश को अंजाम दे बैठा? या अगर लश्कर में मौजूद उनके दूसरे ऐयार पहचान गए कि आने वाला पन्नालाल नहीं, बल्कि नलकूराम है? या अगर इस सूचना के बाद भी जोरावरसिंह वापसी के लिए तैयार न हुआ - तो? इसी तरह के अनेक विचार उनके दिल में उठ रहे हैं। कल तक जिस सेना पर उन्हें विश्वास था, जिस पर वे गर्व करते थे या जिसके बीच वे खुद को सुरक्षित अनुभव करते थे - अब उसी के बीच खड़े चन्द्रदत्त मन-ही-मन भयभीत थे। लश्कर में पूरी तरह जाग हो गई थी। शंकरदत्त और बालीदत्त भी उनके पास ही खड़े थे। कुछ देर बाद सूर्य का आधा भाग पहाड़ियों की ओट से निकलकर उन्हें चमकाने लगा। सूर्यदेव ने अपनी रोशनी भरतपुर के महल पर डाली और चन्द्रदत्त के दिल की धड़कनें तेज हो गईं।

''पिताजी!'' शंकरदत्त की आवाज उनकी तन्द्रा भंग कर देती है- ''दारोगा साहब इधर ही आ रहे हैं।''

चन्द्रदत्त ने चौंककर अपनी? बाईं ओर देखा - यह देखकर चन्द्रदत्त की अजब हालत हो गई कि वास्तव में दारोगा जोरावरसिंह अपनी पूरी वर्दी में सजा इधर ही चला आ रहा था। अपने दिल को सम्भालकर चन्द्रदत्त धीरे से बोले- ''इससे किसी तरह का जिक्र मत करना।''

शंकरदत्त और बालीदत्त ने स्वीकृति में गर्दन हिला दी।

चन्द्रदत्त सहमी-सी दृष्टि से आते हुए जोरावरसिंह को देख रहे थे। बात-की बात में जोरावरसिंह उनके पास पहुंच गया और अभिवादन करके बोला- ''आज सुबह-सुबह महाराज लश्कर बाहर दीख रहे हैं - क्या कोई खास सबब है?''

''नहीं जोरावर - ऐसी तो कोई बात नहीं है।'' चन्द्रदत्त अपने दिल की हालत सम्भालते हुए बोले- ''वे निकलते हुए सूर्यदेव को देख रहे थे। सचमुच अगर सूर्य से आंख मिलानी हो तो सूर्य का वक्त ही ठीक होता है। देखो - इस समय हम सूरज को साफ देख सकते हैं।''

''शाम को डूबते सूरज से भी तो आंख मिलाई जा सकती है महाराज!'' जोरावरसिंह ने यूं ही मुस्कराकर कहा- ''उस समय भी उसकी रोशनी हल्की होती है।''

शाम का नाम सुनते ही चन्द्रदत्त की अजीब हालत हो गई। लाख कोशिशों के बाद भी वे अपने चेहरे के भावों को छुपा न सके और उनकी यह अवस्था देखकर जोरावरसिंह बोला- ''क्या बात है महाराज, आज आप कुछ चिन्तित, परेशान और बेचैन-से लगते हैं? आपकी आंखों को देखकर यह पता लगता है आज सारी रात आप सोए नहीं हैं। अगर कुछ परेशानी है तो सेवक को बताइए, मैं आपके लिए अपना सिर काटने के लिए तैयार हूं।''

चन्द्रदत्त के दिमाग की अजीब-सी हालत हो गई। मन-ही-मन बोले- 'हम सब समझते हैं नमकहराम कि तू अपने स्वार्थ के लिए हमारी गरदन काटने के लिए तैयार है। ऊपर से मीठी-मीठी बात बनाकर हमें धोखा देना चाहता है।' मन-ही-मन उन्होंने यह बात सोची किन्तु प्रत्यक्ष में बोले- ''नहीं-नहीं, ऐसा मत कहो जोरावरसिंह - हमें तुम्हारी वफादारी पर गर्व है - तभी तो सारी सेनाओं का भार तुम पर छोड़ रखा है।'' फिर जोरावरसिंह के मन की टोह लेने के ख्याल से बोले- ''बस, आज रात इसी चिन्ता में बीती कि सुरेन्द्रसिंह की इस राजधानी का फाटक कब खुलेगा? हम कब तक यहां इस तरह पड़े रहेंगे? हमारे सैनिकों को और तुम्हें भी तो अपने घर की याद आती होगी। आज इकतालीस दिन हो गए - पता नहीं सुरेन्द्रसिंह के ऐयार अन्दर क्या खिचड़ी पका रहे हो?''

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