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देवकांता संतति भाग 2

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2053
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

 

ग्यारहवाँ बयान


आज हमें मायादेवी के साथ-साथ उस आदमी की याद बहुत सता रही है, जिसने एक स्थान पर छुपकर मायादेवी की सारी हरकतें देखी थीं। यानी जब मायादेवी ने गुरुवचनसिंह के भेष में गौरवसिंह बने गणेशदत्त फो धोखा दिया, माधोसिंह के कान में कुछ कहकर उसे वहां से विदा किया और स्वयं अपने वास्तविक रूप में उस खण्डहर की ओर चल दी, जहां गुलबदन ने असली बलवंत को कैद कर लिया था। इस समय हम मायादेवी पर इतना ध्यान नहीं देते, जितना कि उस आदमी पर देते हैं, जो उस स्थान पर छुपकर मायादेवी की सारी हरकतें देख रहा था।

जैसे ही माधोसिंह को विदा करके मायादेवी एक तरफ को बढ़ीं, उस आदमी ने अन्दाजा लगा लिया कि वह कहां जाएगी, माया के दूर जाने पर वह एक चट्टान के पीछे से निकला, हम नहीं कह सकते कि वह आदमी कौन है, क्योंकि उसका पूरा जिस्म और चेहरा काले नकाब से ढका हुआ है। मायादेवी का पीछा छोड़कर वह एक अन्य रास्ते पर तेज कदमों के साथ बढ़ गया। उसकी चाल में ऐसी तेजी थी, मानो वह अपना लक्ष्य निर्धारित कर चुका हो। वह ऐसे रास्ते से आगे बढ़ा था कि मायादेवी से पहले उस खण्डहर में पहुंच गया था, जहां बलवंत कैद था। हम इस स्थान की भौगोलिक स्थिति पाठकों को पहले ही समझा आए हैं, अत: व्यर्थ ही समय बर्बाद न करके हम केवल यह लिखते हैं कि कमन्द लगाकर वह उस कोठरी की छत पर पहुंचा और छत के दाहिने कोने में खड़ी लोहे की गुड़िया को घुमाकर रास्ता बनाया - उसने नीचे झांककर देखा - नीचे कोई चिराग जल रहा था, जिससे सबसे नीचे का सारा दृश्य स्पष्ट चमक रहा था। बलवंत उसी प्रकार कैद में पड़ा हुआ था। हम इस समय जिस नकाबपोश के साथ-साथ हैं, वह नीचे कूद गया।

आहट सुनकर कैदी बलवंत ने गर्दन ऊपर उठाई और बोला- ''कौन हो तुम ?''

मगर नकाबपोश ने उसके प्रश्न का उत्तर नहीं दिया और उसे बेहोशी की बुकनी सुंघाकर बेहोश कर दिया। बटवे से कलम-दवात और कागज निकालकर जल्दी-जल्दी उस पर कुछ लिखने लगा - पूरा कागज लिखकर उसने तह किया और वहीं डाल दिया, हम यहां केवल इतना ही लिख सकते हैं कि नकाबपोश ने पत्र के अन्त में अपना नाम लिखने के स्थान पर 'काला चोर' शब्द लिख दिया। उसने आराम से बलवंत की गठरी बांधी और कन्धे पर डालकर कोठरी में जलता हुआ चिराग बुझा दिया - खण्डहर में गठरी के साथ एक दूसरे स्थान पर छुपकर वह मायादेवी की राह देखने लगा। कुछ ही देर बाद वहां मायादेवी आई और उसने वहां क्या किया, पाठकों को यह भली प्रकार याद होगा - नकाबपोश द्वारा लिखा गया पत्र उसे कोठरी में मिल गया था। थोड़ी देर बाद निराश मायादेवी कोठरी से बाहर खण्डहर में आई। उसकी दृष्टि हमारे नकाबपोश पर नहीं पड़ी और वह खण्डहर से बाहर निकल गई। उसके जाते ही नकाबपोश ने जोर से जाफिल बजाई। एक साथ तीन नकाबपोश उसके पास आ गए।

'इसे ठिकाने पर ले जाओ।'' गठरी उनकी ओर बढ़ाता काला चोर बोला-- ''सम्भालकर रखना, हम जरा इस दुष्टा को देखते हैं।''

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