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देवकांता संतति भाग 1

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2052
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

''खैर...।'' बलवंत कहता है ---- 'चलता हूं मैं।''

कहकर बलवंत कमन्द लगाकर, कोठरी की छत पर आता है। गुड़िया को नीचे दबाकर रास्ता बन्द-कर देता है और छत से खण्डहर की धरती पर कूद पड़ता है। अब वह खण्डहर के बाहर की ओर बढ़ने लगता है। उसी समय-

''जाते कहां हो?'' एक आवाज अंधेरे को चीरकर उसके कानों में पड़ती है-''कहां है, कहां है चन्द्रप्रभा, जल्दी बताओ, मैं तुम्हें मुंहमांगी दौलत दूंगा। मुझे चन्द्रप्रभा दिखा दो।''

'रामरतन तुम्हें नहीं चाहिए?'' अन्धेरे में गूंजने वाली आवाज ने कहा।

''और रामरतन-नाम सुनकर तो उसके चेहरे पर पसीना आ गया। उसका सिर चकराने लगा उसने खुद को काफी सम्भालने की कोशिश की. मगर सम्भाल नहीं सका और लड़खड़ाकर वहीं झाड़ियों में गिर गया। वह बेहोश हो चुका था।

उसी समय अंधेरे से निकलकर एक आदमी सामने आया। उसके सारे शरीर पर एक काला लिबास और चेहरे पर काला नकाब था। उसने झुककर बलवंत को देखा, उसे बेहोश पाकर कह उठा-''मूर्ख।''

इसके बाद उसने आराम से उसकी गठरी बांधी और खण्डहर से बाहर की ओर चल दिया। इस समय वह नकाबपोश बहुत खुश नजर आता है। जंगल के बीच में वह बढ़ा चला जा रहा है कि --- 'गठरी में कौन है ये?'' एक आवाज नकाबपोश के कान में पड़ती है।

चौंका नकाबपोश, एकदम आवाज की दिशा में घूमकर बोला-''कौन है पूछने वाला?''

'डर जाओगे नाम सुनकर।''

''तुम शायद मुझे नहीं जानते।'' नकाबपोश बोला- ''लोग मेरी सूरत देखकर और मेरा नाम सुनकर कांप उठते हैं।''

'मैं अभी तुम्हारी सूरत भी देख लूंगा और नाम भी सुन लूंगा।'' अंधेरे भाग से आवाज उभरी- 'मगर मेरा नाम बख्तावरसिंह है।''

''नहीं...।'' एकदम चीख पड़ता है नकाबपोश-''बख्तावर यहां कैसे हो सकता है?''

'क्यों, डर गए ना?'' वह आवाज पुन: उभरी।

नकाबपोश अभी कुछ बोल भी नहीं पाया था कि एक तीसरी आवाज-

''मैं भीँ यहीं हूं बख्तावरसिंह-तुम्हारी दाल नहीं गलेगी।''

'कौन हो तुम?'' बख्तावरसिंह के चौंकने का स्वर।

'पहले ये तो बताओ कि तुम्हारा यहां आना क्यों हुआ?'' तीसरी आवाज ने पूछा- ''और इस नकाबपोश को तुम अपने नाम से डराकर कौन-सा उद्देश्य पूरा करना चाहते हो ---- अच्छा है कि तुम मेरी तलवार से न मरो।''

''उस गठरी में बहुत काम की चीज है जो इस नकाबपोश के कन्धे पर है।'' बख्तावर की आवाज गूंजी।

 'बको मत, उसे तो मैं भी प्राप्त करना चाहता हूं।'' तीसरा स्वर।

'बख्तावरसिंह किसी से डरता नहीं है।'' बख्तावरसिंह की आवाज------ 'मेरे बारे में प्रसिद्ध है कि जो चीज मैं प्राप्त करना चाहता हूं उसे अन्य कोई नहीं प्राप्त कर सकता--------तुम चाहे जो हो, मगर ये गठरी यहां से नहीं ले जा सकते।''

'इसके बावजूद भी तुम आज तक चन्द्रप्रभा को प्राप्त नहीं कर सके।''

''क्या बकते हो!'' एकदम ऐसे स्वर में, जैसे बख्तावर बुरी तरह घबरा उठा हो।

 क्यों...? सारी अकड़ ढीली हो गई?'' आवाज आई-''सुनो.. मैं गौरवसिंह हूं।''

० ० ०

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