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देवकांता संतति भाग 1

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2052
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

 

तीसरा बयान


वन्दना को चलते-चलते अभी एक घण्टा ही बीता था कि वह नदी किनारे पहुंच गई। वह अभी तक मर्दाने भेष में थी। उसने नदी के दोनों ओर दूर-दूर तक देखा, सबकुछ उजाड़-सा पड़ा था। कहीं किसी प्राणी का नामो-निशान नहीं था, आश्वस्त होकर वन्दना पानी में कूद गई-दो पल बाद ही वह नदी के पानी के अन्दर तैर रही थी।

अभी वह अधिक नहीं तैर पाई थी कि एक साथ पांच आदमियों ने उसे घेर लिया।

वन्दना पांचों में से एक को भी नहीं पहचान पाई-क्योंकि सभी के चेहरों पर नकाब थे-वे पांचो, पांच दिशाओं से तेजी के साथ तैरकर उसके समीप आए और इससे पहले कि वन्दना अपने बचाव का कोई प्रयत्न करे, उन पांचों ने उसके विभिन्न भागों से उसे पकड़ लिया। कुछ ही देर उपरान्त वे नदी को छोड़कर पानी से भरी एक खोह में प्रविष्ट हो गए। पांचों उसे भीतर लिये पानी से ऊपर उभरे और एक लोहे की सीढ़ी पर चढ़ाते हुए ऊपर ले गए।

ऊपर एक गुफा थी ---- दोनों ओर की दीवारों पर जगह जगह मशालें जल रही थीं।

वन्दना यह सोचने का प्रयास कर रही थी कि ये लोग कौन हैं। उसके साथ-साथ उन सबके कपड़े भी पानी में बुरी तरह भीगे हुए थे-----वन्दना का ऐयारी का बटवा भी भीग चुका था। गुफा में से गुजरकर वे उसे एक बाग में ले गए। बाग में सूर्य की रोशनी पर्याप्त थी। पश्चिम में डूबने का प्रयास करता हुआ सूर्य स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा था। बाग में चारों ओर फल और मेवों के वृक्ष थे। क्यारियों में एक से एक सुन्दर फूल डालियों के ऊपर सीना ताने गर्व से मुस्करा रहे थे। शेष बाग में घास मखमल की भांति बिछी हुई थी।

बाग के ठीक बीच में--संगमरमर की एक मूर्ति बनी हुई थी। दूर से ही देखने पर स्पष्ट होता था कि वह मूर्ति किसी स्त्री की है। पांचों वन्दना को लेकर उसी मूर्ति की ओर बढ़ रहे थे। जैसे ही वन्दना, उस मूर्ति के समीप पहुंची - बुरी तरह चौंक पड़ी।

संगमरमर की मूर्ति उसी की थी - वंदना की मूर्ति।

कई क्षण तक वन्दना उसे आश्चर्य से देखती रही।

उन पांचों ने सम्मानित ढंग से वन्दना की मूर्ति के समक्ष सिर झुकाया और उनमें से एक वन्दना से बोला-''महारानी के समक्ष शीश झुकाओ।'' वन्दना नहीं समझ सकी कि ये क्या चक्कर है। वह नहीं समझ सकी कि ये लोग कौन हैं और उसकी प्रतिमा को महारानी कहकर इतना सम्मान क्यों दे रहे हैं। उसने भी सब कुछ जानने के लिए अपना भेद उन पर खोलना उचित नहीं समझा। उनके आदेशानुसार उसने भी अपनी मूर्ति के समक्ष प्रणाम किग्रा और उनके साथ बाग में एक तरफ को चल दी। -''ये तस्वीर किसकी थी?'' चलते-चलते वन्दना ने उन पांचों से प्रश्न कर दिया।'

''इनका नाम हममें से कोई नहीं जानता।'' उनमें से एक बोला-''केवल सूरत से इन्हें पहचानते हैं------हम सब इनके मुलाजिम हैं और इन्हें महारानी कहते हैं। इनके आदेशों, का पालन करने से ही हमारा उद्धार होता है।''

''क्या तुमने इन्हें कभी देखा है?''

'क्या मूर्ख आदमी है!'' उनमें से एक बोला--''अगर हम महारानी को देखते नहीं तो बात कैसे करते? उनके मुलाजिम कैसे बनते? उनके आदेशों का पालन कैसे करते? महारानी हम सबका खास ख्याल रखती हैं।''

''क्या आप लोग मुझे भी उन्हीं के पास ले जा रहे हैं?'' वन्दना ने मर्दाने स्वर में प्रश्न किया।

''इस समय तुम उन्हीं की कैद में तो हो------कल सुबह तुम्हें महारानी के सामने उनके दरबार में पेश किया जाएगा।''

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