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देवकांता संतति भाग 1

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2052
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

''बस, हम दो ही आपकी सन्तान हैं और हम जुड़वां पैदा हुए थे।'' गौरव ने कहा।

''अब तुम हमारी उस पत्नी का नाम भी बता दो - जो तुम्हारी मां है।''

''कांता।'' वन्दना ने कहा-''हमारी मां का नाम ही कांता है।'' -''सुबूत।''

जवाब में वन्दना ने अपने ऐयारी के बटुए में से एक मुड़ा-तुड़ा कागज निकाला - वह उसकी तह खोलने लगी। विजय सहित सभी की दृष्टि उस कागज पर जमी हुई थी, जो एक अनहोनी बात का सुबूत बनने जा रहा था। अभी वह कागज की पूरी तह खोल भी नहीं पाई थी -''पिताजी!'' गौरव ने सबका ध्यान आकर्षित किया।

विजय ने देखा - गौरव उसे ही पुकार रहा था। विजय को अपने लिए ये (पिताजी ) शब्द बड़ा विचित्र-सा लगा। अजीब-से मूर्खतापूर्ण अन्दाज में बोला वह-''कहो बेटे जी - क्या परेशानी है - लॉलीपॉप चूसने के लिए दस का सिक्का दूं?''

''जी।'' गौरव लॉलीपॉप का मतलब नहीं समझा, तो बोला-''पिताजी, लॉलीपॉप क्या होता है?''

''इसे समझने की कोशिश मत करो बेटे मियां वर्ना बूढ़े हो जाओगे।'' विजय बोला-''तुम अपनी कहो, क्या कह रहे थे?''

'आप जब भी सोते हैं आपको वही सपना दिखाई देता है?'' गौरव ने कहा।

'अबे बेटा, सिर्फ सोते समय दीखता तो कसम छप्पन ताई की,  हम भुगत लेते, मगर क्या करें.. जागते हुए भी साला यही सपना दिखाई देता है।''

''ये सपना आपको उस समय तक दिखाई देता ही रहेगा, जब तक कि आप मां को उस तिलिस्म से निकाल नहीं लेंगे।'' गौरव ने कहा।

''तिलिस्म!'' विजय ने दोहराया-''ये तिलिस्म क्या बला होती है प्यारे?''

'इसे समझने की कोशिश मत करो पिताजी, वर्ना बूढ़े हो जाओगे।'' गौरव ने पूरी गम्भीरता के साथ कहा।

गौरव की इस बात पर सभी ठहाका मारकर हंस पड़े। विजय ने एकदम मूर्खों की तरह घूरकर गौरव की ओर देखा - गौरव के मुखड़े पर कोई भाव नहीं था - एकदम भावरहित गम्भीर चेहरा, मानो उसे स्वयं लगता हो कि उसने मजाक-भरी कोई बात की है। जब उसने विजय को इस तरह एकाएक अपनी ओर घूरते हुए पाया तो बड़े मासूम-से अन्दाज में बोला-'पिताजी-कोई भूल हो गई मुझसे?''

'नहीं बेटे।'' विजय उसके गाल पर हाथ फेरकर पुचकारता हुआ बोला-'बिल्कुल सही जा रहे हो।''

विजय की इस अजीब-सी झुंझलाहट पर सब एक बार पुन: हंस पड़े। विजय मूर्खों की भांति पलकें झपका रहा था।

'पिताजी!'' वन्दना ने उसकी विचार-श्रृंखला को तोड़ा-''ये है सुबूत।''

सबकी दृष्टि घूमकर एकदम उस कागज पर टिक गई; उन्होंने देखा - यह कागज बहुत पुराना था - एकदम खस्ता। कागज पर किसी ने काली स्याही से उसी खण्डहर का चित्र बनाया हुआ था। ठीक वैसा ही, जैसा विजय ने रंग से आर्ट पेपर पर बनाया था - वही खण्डहर - वही बुर्ज - वही सबकुछ।

'आपने यही चित्र बनाया होगा?''

बिलकुल यही।'' जवाब विजय ने दिया।

'यह चित्र भी उन्होंने ही बनाया है।'' गौरव बोला-''लेकिन आज से लगभग साठ वर्ष पूर्व।''

'साठ वर्ष!'' विकास चौंका-''साठ वर्ष तो गुरु की उम्र भी नहीं है।'

किन्तु उसकी बात का जवाव किसी ने नहीं दिया। सबकी दृष्टि विजय पर केन्द्रित थी। और विजय बड़े ध्यान से उस कागज पर बने खण्डहर के चित्र को देख रहा था, वह कहीं खोता जा रहा था। उसकी नजर चित्र के एक तरफ लिखे चित्रकार के नाम पर पड़ी, लिखा था ---- देव। ठीक वही राइटिंग, जिसमें विजय ने अपनी तस्वीर पर लिखा था।

फिर -  बुर्ज से कांता का स्वर उभरा। विजय के दिमाग से टकराया -  देव.... देव.... देव....।  

'कांता.. .।'' पूरी शक्ति से चीख पड़ा विजय।

० ० ०

... आगे जानने के लिये पढ़ें - देवकान्ता सन्त्तति : दूसरा भाग

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