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ई-पुस्तकें >> देवकांता संतति भाग 1

देवकांता संतति भाग 1

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2052
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

 

उन्नीसवाँ बयान

''हम एकाएक आपके इस मस्तिक-परिवर्तन पर बेहद आश्चर्यचकित और घबराए हुए-से थे।'' विजय से आगे विकास ने कहना शुरू किया-

''हममें से ये किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक ही ये आपको क्या हो गया है। आपके बेहोश होने के बाद हम सभी ने बेहद आश्चर्य के साथ एक-दूसरे की ओर देखा। हम सभी की आंखों में ये प्रश्न था कि आप, यानी जो व्यक्ति हमेशा लड़कियों से दूर भागता हो --- मैंने अपनी आंखों से हजारों लड़कियों को आप पर आशिक होते देखा है, परन्तु आपने उन्हें कभी लिफ्ट नहीं दी। गहनतम आश्चर्य की बात यही थी कि आप किसी कांता नामक लड़की के पीछे इतने दीवाने हो रहे हैं कि आप मेरी हत्या तक करने के लिए तैयार हो गए।

''दूसरी आश्चर्य की बात ये थी कि आपने पल-भर में वह खण्डहर का चित्र बना दिया - जबकि आपके हाथ में कभी किसी ने कूची तक नहीं देखी थी। आपका ये विचार भी बिलकुल ठीक है कि आप पर पीछे से हमला अजय अंकल ने किया था - इनके हाथ में - रिवॉल्वर था, जिसकी मूठ इन्होंने आपके सिर के पिछले भाग में मारी थी और परिणामस्वरूप आप बेहोश हो गए थे।

''ये एकदम विजय भैया को हो क्या गया?' आपके बेहोश होते ही मम्मी ने कहा।

''लगता है ये किसी कांता नामक लड़की से बेहद प्रेम करता है।' डैडी ने अपना विचार प्रस्तुत किया।

''लेकिन...? एक ही पल में चित्रकार कैसे बन गए?' अजय अंकल ने एक ऐसा प्रश्न खड़ा कर दिया, जिसका जवाब हममें से किसी के पास नहीं था।

''विजय अंकल अपना नाम देव क्यों बताते हैं?' मैं भी प्रश्न की उत्पत्ति करने से अधिक कुछ नहीं कर सका।

''इस प्रकार हमारे सामने अनेकों प्रश्न खड़े हो गए। जब हमें कोई हल नहीं सूझा तो ठाकुर नाना को फोन किया। फोन पर बिना कुछ बताए हमने उन्हें तुरन्त वहां पहुंचने के लिए कहा। जिस समय वे कोठी पर पहुंचे, उस समय सुबह के पांच बज रहे थे, किन्तु आपको होश नहीं आया था। हमने पूरी घटना विवरण सहित सुनाई, किन्तु इन्हें लेशमात्र भी विश्वास नहीं आया, बल्कि बुरा-सा मुंह बनाकर बोले- 'ये इस बदमाश का कोई नया नाटक है।'

''लेकिन हममें से कोई भी उसे नाटक मानने के लिए तैयार नहीं था। क्योंकि हमने सबकुछ अपनी आंखों से देखा - किन्तु न जाने क्यों नाना की इस बात ने मेरे दिल में भी यह विचार पैदा कर दिया कि सम्भवत: यह आपका नया मजाक ही हो, क्योंकि आप ऊलजलूल और नए-नए मजाक हमेशा करते रहते हैं। सम्भव है आप सबको उल्लू बनाकर मजा ले रहे हों।

''लेकिन आपका पेंटिंग बनाना - जब यह सोचता तो वह सब मजाक नहीं लगता।

फिर यह भी सोचता - जब इतने कार्यों में दक्ष हैं - वहां चित्रकारी में भी दक्ष न हों - वैसे आपके लिए अभिनय करना भी कठिन नहीं था।  ''यह सब आपका नाटक है -- यह बात मेरे दिल में चालीस प्रतिशत घर कर चुकी थी, जबकि ठाकुर साहब को तो शत-प्रतिशत यही उम्मीद थी कि यह सब एकदम नाटक है। उनके ही कहने पर आपके चेहरे पर पानी डालकर आपको होश में लाया गया।'' विकास खामोश हो गया। -''कांता.. कांता...!'' होश में आते ही मेरे मुंह से निकला-''मैं आ रहा हूं.. कांता!'' विजय विकास से पहले बोल पड़ा-

''अभी मैं ठीक से आखें खोल भी नहीं पाया था कि सड़ाक से डैडी की बेंत मेरे जिस्म से टकराई।'' कहते हुए विजय ने निर्भयसिंह की ओर देखा-''साथ ही टकराया उनका स्वर - खड़ा हो साले, मैं उतारूंगा तेरा भूत।''

और विजय आगे की आप बीती सुनाने लगा-

और - मैं एकदम उछलकर खड़ा हो गया। देखा - सामने डैडी छड़ी ताने खड़े थे। मेरे चारों ओर आप लोग थे। मैं समझ गया कि मेरी बेहोशी की अवस्था में आप लोगों ने डैडी को बुला लिया है। मैं अच्छी तरह समझ रहा था कि सामने डैडी हैं और, मुझे इनका विरोध नहीं करना चाहिए - अब मेरे मस्तिष्क में 'देव.. देव...' भी नहीं हो रही थी। इस समय मेरी पहले जैसी अवस्था नहीं थी, किन्तु मुझे याद सबकुछ था। इस समय मेरी अवस्था वैसी थी, जिस समय मैं पहली बार स्वप्न देखकर उठा था। -''अब मेरे मस्तिष्क पर मेरा नियंत्रण था - मैंने कहा - 'क्या बात है डैडी?'

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