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देवकांता संतति भाग 1

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2052
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

 

दसवाँ बयान

बख्तावरसिंह के चले जाने के कुछ देर बाद तक गौरव अपने स्थान पर यूं ही खड़ा रहा। उसके चारों ओर अभी तक अंधकार था। उसने नकाबपोश का चेहरा देखने की कोई कोशिश नहीं, बल्कि उसकी गठरी बांधकर पीठ पर लटकाई और एक तरफ को चल दिया। सुबह उस समय सूरज गगन पर काफी ऊपर उभर आया था, जब वह एक ऐसे स्थान पर पहुंच गया - जहां दूर-दूर तक पहाड़ियां फैली हुई थीं। अभी वह कदाचित अपनी मंजिल तक नहीं पहुंचा था कि सामने से आते हुए बूढ़े गुरु दिखाई दिए।

ये बूढ़े गुरु वही गौरव और वन्दना के गुरु थे।

उन्हें देखते ही गौरव उनकी ओर लपका तथा पैरों में झुक गया। गुरु ने उसे पैरों से उठाकर गले से लगा लिया और बोले-''ये क्या! गठरी में बलवन्तसिंह को बांध लाए हो?''

''जी नहीं।'' गौरव ने कहा-''ये तो माधोसिंह है, बेगम बेनजूर का खास ऐयार!''

''ये तुम्हारे हाथ कहां से लगा?'' गुरु ने चौंककर पूछा।

''शायद आप अभी तक मुझे केवलसिंह ही समझ रहे हैं?'' गौरव ने कहा।

''तो-तो तुम कौन हो?'' हल्के-से चौंककर कहा गुरुजी ने।

''जी, मैं गणेशदत्त हूं।'' गौरव बने हुए व्यक्ति ने कहा-''आपने मुझे और केवलसिंह को गौरव बनाया था ना - आपने कहा था कि मैं गुप्त ढंग से गौरवसिंह बने हुए केवलसिंह के पीछे रहूं - मैंने आपकी आज्ञा का पालन किया। मैं उसी के पीछे था, आपकी आज्ञानुसार केवलसिंह मुकरन्द प्राप्त करने दलीपसिंह के महल में गया, लेकिन वहां बलवंतसिंह ने उसे गौरव समझकर गिरफ्तार कर लिया। केवलसिंह को महल की एक कैद में डालकर जब बलवंतसिंह बाहर आया तो पहले मैंने सोचा कि किसी तरह केवलसिंह को छुड़ाने की युक्ति करूं, क्योंकि आपने कहा था कि किसी भी तरह किसी को यह पता न लगने पाए कि वह गौरवसिंह नहीं, बत्कि केवलसिंह है। परन्तु जब हमने ये देखा कि बलवंत अकेला ही तेज कदमों के साथ जंगल की ओर बढ़ रहा है, तब मुझे उसका व्यक्तित्ब कुछ रहस्यमय-सा लगा, मैंने सोचा क्यों न पहले इसी का पता लगा लूं। मैं उसके पीछे लग गया। कुछ ही देर बाद वह सोनिया के खण्डहर में पहुंचा। वह जो खाली कोठरी है - छत के रास्ते से उसमें गया। उसने छत पर ही लगी एक गुड़िया को घुमाकर छत में रास्ता बनाया था! वहां मैंने भेद जाना कि दलीपसिंह का ऐयार बलवंतसिंह तो वहां कैद में पड़ा है और कोई दूसरा ही आदमी बलवंत बना हुआ है। उस वार्तालाप से मुझे ये भी पता लग गया कि वह नकली बलवंत अभी तक केवलसिंह को गौरव ही समझे हुए था, जब नकली बलवंत वहां से बाहर निकल आया तो सोचा कि असली बलवंत को मैं कैद से बाहर निकालकर आपके कदमों में ले आऊं, उसी समय नकली बलवंत को उस नकाबपोश ने रोक लिया - मेरा ध्यान भी उस तरफ हो गया। इस नकाबपोश ने उसे चन्द्रप्रभा और रामरतन का नाम लेकर डराया था - मैं समझ गया था कि नकली बलवंत या तो बख्तावरसिंह अथवा उसका लड़का गुलबदनसिंह है। अभी वह नकाबपोश नकली बलवंत को पीठ पर लादकर चला ही था कि बख्तावरसिंह प्रकट हो गया। वह इस नकाबपोश यानी माधोसिंह पर अपने नाम का सिक्का जमा रहा था। उसी समय मैंने प्रकट होकर बख्तावरसिंह को ललकारा।

इसके बाद गणेशदत्त ने सारा किस्सा संक्षेप में बता दिया।

''तुमने जब इसका चेहरा नहीं देखा तो यह कैसे जाना कि यह माधोसिंह है?'' गुरुजी ने सबकुछ सुनने के बाद प्रश्न किया।

''आप जानते हैं कि मैंने और माधोसिंह ने एक साथ ही एक ही गुरु से ऐयारी सीखी है और इसके साथ ही लगातार एक बरस मैंने खुद बेगम बेनजूर के यहां नौकरी की है - उन दिनों यह मेरा लंगोटिया यार था, हम दोनों साथ-साथ ही रहते तथा खाते-पीते थे। मैं इसकी आवाज सुनते ही पहचान गया कि असलियत में यह माधोसिंह है।''

''लेकिन तुम इसे ही क्यों लाए?'' गुरुजी ने पूछा-''तुम गुलबदन, बख्तावरसिंह या असली बलवंत को भी तो ला सकते थे?''

''मैंने सोचा कि गुलबदन और बख्तावरसिंह से तो हमारी दुश्मनी ही क्या है। यह मैं समझ चुका था कि गुलबदन केवल मुकरन्द प्राप्त करने के लालच में बलवंतसिंह बना हुआ था, जो अभी तक उसे प्राप्त नहीं हो सका है। बेगम बेनजूर से हमारी दुश्मनी भी है, अत: मैंने इसे ही लाना उचित जाना और ये भी सोचा कि शायद हम इसके जरिए बेगम बेनजूर से बदला ले सकें।''

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