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देवकांता संतति भाग 1

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2052
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

इसके बाद.. बख्तावरसिंह और विक्रमसिंह के बीच जमकर काफी देर तक तलवारबाजी हुई। किन्तु यह कहने में हमें कोई संकोच नहीं है कि विक्रमसिंह बख्तावरसिंह के मुकाबले का लड़ाका नहीं था। हालांकि विक्रमसिंह उसपर कातिलाना वार कर रहा था, परन्तु बख्तावरसिंह उसके इन वारों को बचाकर ऐसे वार कर रहा था कि विक्रमसिंह केवल घायल हो सके, मृत्यु को प्राप्त न हो सके। या यूं कहना अधिक उचित जान पड़ता है कि बख्तावरसिंह विक्रमसिंह के साथ खेल कर रहा था।

विक्रमसिंह का बदन कई स्थानों से जख्मी हो चुका था, जबकि बख्तावरसिंह के जिस्म पर हल्की-सी खरोंच भी नहीं आई थी।

अन्त में बख्तावरसिंह ने इतना जोरदार वार किया कि विक्रमसिंह की तलवार टूटकर दो भागों में विभाजित हो गई। उसका एक भाग टूटकर कमरे की जमीन पर गिर गया। बख्तावर ने इस बार मारने हेतु तलवार उठाई तो-

''ठहरो बख्तावर।'' विक्रमसिंह एकदम बोला।

''बोलो क्या कहते हो?'' बख्तावरसिंह रुक गया।

''तुम अगर चन्द्रप्रभा को जीवित देखना चाहते हो तो मुझ पर वार मत करो।''

चन्द्रप्रभा का नाम सुनते ही बख्तावरसिंह और गुलबदन चौंक पड़े।

''क्यों.. क्या तुम जानते हो कि चन्द्रप्रभा कहां है?'' बख्तावरसिंह ने पूछा।

''हां जानते हैं...।'' विक्रमसिंह ने कहा- ''जानते नहीं हैं बल्कि तुम्हारी चन्द्रप्रभा अभी तक हमारी ही मेहरबानी पर जीती है, अगर मैं संध्या से पहले वहां नहीं पहुंचा तो वे लोग तुम्हारी चन्द्रप्रभा को मार देंगे और रामरतन भी जीता न बचेगा।''

''तो बताओ कि चन्द्रप्रभा और रामरतन कहां हैं?'' बख्तावरसिंह ने पूछा।

''यह हम तुम्हें उस समय तक नहीं बता सकते, जब तक कि तुम राजा उमादत्त के दरबार में जाकर क्षमायाचना न करोगे।''

''बख्तावरसिंह किसी पापी से क्षमा नहीं मांग सकता।'' उसने गर्व के साथ कहा।

''तब तो तुम चन्द्रप्रभा और रामरतन को भी नहीं पा सकते।'' विक्रमसिंह दृढ़ शब्दों में बोला-''बेशक तुम हमें मार दो, किन्तु यह समझ रखना कि रामरतन और चन्द्रप्रभा भी आज रात का चन्द्रमा नहीं देख सकेंगे।''

''तुम मुझे धमका रहे हो?'' बख्तावर ने कहा।

''धमका नहीं रहे हैं, असलियत बताते हैं।''

विक्रमसिंह को बख्तावरसिंह ने बटुए में से एक तह किया हुआ कागज निकालकर उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा- ''जरा इसे पढ़ लो और फिर कहो कि तुम मेरा कहना नहीं मानोगे?'' विक्रमसिंह ने उसके हाथ से वह कागज ले लिया। उसकी तह खोलकर पढ़ा... पढ़ते-पढ़ते विक्रमसिंह के चेहरे की रंगत हल्दी की भांति पीली पड़ गई। घबराहट उभर आई.. सारा बदन पसीने में तर हो गया। पढ़ने के बाद वह बख्तावर की ओर देखकर घबराए स्वर में बोला-

''नहीं.. नहीं.. ये नहीं हो सकता. ..मैं.. मैं.. तुम्हें... चन्द्रप्रभा...। बस इससे आगे कुछ कह नहीं सका विक्रम.. बेहोश होकर धरती पर गिर पड़ा।

० ० ०

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