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देवकांता संतति भाग 1

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2052
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

 

सातवाँ बयान

खैर, प्रेरक-पाठको, अब हम आपसे विनती करते हैं कि एक क्षण अपने मस्तिष्क को आराम दे लें। इसके बाद अपने दिमाग के सभी खिड़की और दरवाजे खोलकर जरा ध्यान से इस दृश्य को पढ़ें, क्योंकि यह दृश्य आपके दिल में बड़ी विचित्र-सी हलचल पैदा करने वाला है। आप एक विचित्र से रहस्य में उलझते जा रहे हैं। आइए हमारे साथ आगे बढ़कर वह दृश्य देखिए, जिसे बागीसिंह और अलफांसे नहीं देख पाए हैं।

वो देखिए - उस दाईं ओर की दीवार की आड़ में अन्धकार का साम्राज्य है। इस तरह आप कुछ भी नहीं देख पाएंगे, तनिक ध्यान से देखिए, दीवार की आड़ में एक इन्सान खड़ा है। यह भी बता देने में हम किसी प्रकार की हानि नहीं समझते कि यह व्यक्ति वही है, जिसे पहले गौरव और वन्दना के गुरु के रूप में देख चुके हैं। बूढ़ा जिस्म -- सफेद दाढ़ी और सफेद बाल। पतले हड़ियल जिस्म पर गेरुवे कपड़े और दाढ़ी का अन्तिम सिरा उनकी नाभि को स्पर्श कर रहा है। कदाचित

पाठकों को याद आ गया होगा कि यह बूढ़ा व्यक्ति गौरव और वन्दना का वही गुरु है, जिसने उन दोनों से कहा था - गौरव बेटे, तुम दोनों का रहस्य तुम्हारे अलावा केवल मैं जानता हूं. इत्यादि।

ये बूढ़ा गुरु काफी देर से बागीसिंह और अलफांसे की बातें सुन रहा है किन्तु कुछ बोलता नहीं - चुपचाप - जैसे मूकदर्शक हो।

बागीसिंह कमरे में जलती हुई मशाल उठाकर आगे-आगे चलता है। अलफांसे उससे एक कदम पीछे उसके साथ है। खुद को छुपाए हुए गुरु उनका पीछा कर रहा है। वे हवेली से बाहर आ जाते हैं। वर्षा थम चुकी है, किन्तु वायु तूफान का रूप धारण करके जंगल के वृक्ष इत्यादि को परेशान कर रही है। वे दोनों तेज हवा को चीरते हुए बढ़ते चले जा रहे हैं। बागीसिंह के हाथ में दबी मशाल उनका मार्गदर्शन कर रही है। साथ ही वह बूढ़े गुरु के लिए पीछा करने में सहायक भी है।

इसी प्रकार वे लोग दो कोस के लगभग मार्ग तय कर लेते हैं।

इसके पश्चात वे एक उजाड़-से किन्तु छोटे मन्दिर के सामने पहुंच जाते हैं। मन्दिर के चारों ओर टूटी-फूटी-सी दीवार खड़ी है। दीवार के अन्दर कोई पांच हाथ लम्बा और चार हाथ चौड़ा दालान है - दालान के बीचोबीच एक छोटा सा कुंआ है। उससे आगे जाकर वह कमरा है, जिसमें अन्दर शंकर भगवान की काफी बड़ी, किन्तु टूटी-फूटी-सी पत्थर की मूर्ति है। बूढ़े गुरु के लिए यह मन्दिर नया नहीं है, अत: मन्दिर की भौगोलिक स्थिति से वह पहले ही पूरी तरह परिचित है। वह बागीसिंह और अलफांसे को मन्दिर के दालान में प्रविष्ट होते देखता है।

'बागीसिंह अलफांसे को मन्दिर में क्यों ले जा रहा है?' बूढ़ा गुरु इस अंधेरे में खड़ा स्वयं ही बुदबुदा उठता है- 'इस मन्दिर में तो कोई आता-जाता भी नहीं है। वर्षों से मन्दिर पूरी तरह वीरान पड़ा हुआ है!'

कुछ देर तक बूढ़ा गुरु अपने स्थान पर खड़ा उन्हें देखता रहता है। सोचता है कि मंदिर इतना छोटा है कि अगर वह उनके पीछे मन्दिर में गया और उसने उनकी बातें सुनने का लालच किया तो वे दोनों उसे देख सकते हैं। उसने यही मुनासिब समझा कि यहीं खड़े होकर वह उनके बाहर निकलने की प्रतीक्षा करे। अपने इसी विचार के अधीन होकर वह अपने समीप के ही वृक्ष पर चढ़ गया।

बूढ़ा गुरु उनके साथ मन्दिर में नहीं गया तो छोड़ो उसे। आओ.. हम चलते हैं.. छुपकर हम बागीसिंह और अलफांसे की कार्यवाही देखते हैं।

वे दोनों दालान पार कर लेते हैं। अहाते में पहुंचकर एकाएक बागीसिंह मशाल बुझा देता है।

उनके आसपास का वातावरण अन्धकार में डूब जाता है?

''मशाल क्यों बुझा दी?' अलफांसे एकदम सतर्क स्वर में बोला।

''आप घबराइए नहीं, मुझ पर भरोसा कीजिए।'' बागीसिंह का स्वर उसके कानों से टकराया-''हम ऐयार हैं और हमें हर तरह की सावधानी बरतनी पड़ती है। ऐसा हो सकता है कि गौरवसिंह खुद अथवा उसका कोई साथी हमारे पीछे हो और वह हमारे घर तक पहुंचने का रास्ता भी देख ले - बस, इसी कारण से मैंने अंधेरा कर दिया है। अब कृपा करके अपने जूते उतार दीजिए, क्योंकि ये कीचड़ में सने हैं.. दुश्मन इनके निशान देखता हुआ हम तक पहुंच सकता है। पैरों को अच्छी तरह साफ करके हम आगे बढ़ेंगे।''

अलफांसे ने निर्विरोध ऐसा ही किया।

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