ई-पुस्तकें >> देवकांता संतति भाग 7 देवकांता संतति भाग 7वेद प्रकाश शर्मा
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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...
(ऊपर की सारी बातें पाठक पहले भाग के चौदहवें बयान में पढ़ आए हैं।)
''क्या तुमने वह कागज पढ़ा था?'' गुरुवचनसिंह ने पूछा।
''जी हां, उसी वक्त बिस्तर पर बैठकर मैंने वह कागज पढ़ा।'' शीला ने बताया। गुरुवचनसिंह द्वारा ये पूछे जाने पर कि उस कागज में क्या लिखा था? शीला ने जवाब दिया कि वह कागज अभी तक उसके पास है। कहते हुए उसने बटुए से एक कागज निकालकर गुरुवचनसिंह को पकड़ा दिया। गुरुवचनसिंह ने वह कागज जोर से पढ़ा। हमारे पाठकों ने भी अभी तक के कथानक में वह कागज नहीं पढ़ा है, इसलिए हम नीचे उसका मजमून ज्यों-का-त्यों उतार देते हैं। लिखा था--
''प्यारी शीलारानी,
मैं जानती हूं कि तुम वंदना नहीं शीला हो। यहां अभी तक जो भी कुछ तुम्हारे साथ हुआ है, मुझे मालूम है कि उन सबको देख और सुनकर तुम्हें गहरा तरद्दुद होगा। मगर घबराने की बात नहीं है, जो भी कुछ हो रहा है, उसे तुम चुपचाप देखती जाओ। यहां इस वक्त बड़ी तगड़ी ऐयारी चल रही। तुम्हारा काम ये है कि तुम बिना किसी हील-हुज्जत के वह करे जो महादेवसिंह कहता रहे। मुझे तुम अपनी मददगार समझो, मैं गुरु गुरुवचनसिंह की ऐयार और वंदना की पक्षधर हूं। महादेवसिंह तुम्हें कल दरबार में बेगम बेनजूर बनाएगा। तुम किसी तरह की हुज्जत मत करना, चुपचाप बन जाना। तुम्हारी हुज्जत से न केवल हमारी सारी ऐयारी पर पानी फिर जाएगा, बल्कि तुम्हारी जान भी मुसीबत में फंस जाएगी। इन सब बातों का पालन करने में ही तुम्हारा भला है। तुम्हारी मददगार।
- एक ऐयार।
''इस खत को पढ़कर मेरी अजीब हालत हो गई।'' खत खत्म होते ही शीला ने कहा-'उलझन खुलने की बजाए और बढ़ गई थी। बाकी सारी रात मैं इन्हीं सव घटनाओं के वारे में सोचती रही। आखिर में मैंने यही फैसला किया कि मैं इस खत में लिखे मजमून का पालन करूंगी। जबकि अभी तक मेरी समझ में यह भी नहीं आया कि वह औरत मेरी मददगार है भी या झूठ बोलती है।
''अगले दिन सुबह को महादेवसिंह मेरे चेहरे पर नकाब डालकर बेगम बेनजूर के दरबार में ले गया। वहां बड़े ही नाटकीय ढंग से उसने कलावती नाम की औरत, जो बेगम बेनजूर बनी बैठी थी और जिसे महादेवसिह अपनी लड़की बताता था, की गर्दन मेरे ही सामने-अपने तलवार से काट दी। बेनजूर का मुकुट मेरे सिर पर रख दिया गया। सारे दरबार में बेगम बेनजूर जिंदाबाद के नारे लगने लगे। उसी वक्त मेरी नजर दरवार में दाखिल होने वाले नए नकाबपोश पर पड़ी।
(ऊपर लिखा हाल आपने पहले भाग के चौदहवें बयान में पढ़ा है।)
इससे आगे का हाल अभी तक हमारे पाठकों ने कहीं नहीं पढ़ा है. इसलिए अब हम वंदना का हाल मुख्तसर में लिखते हैं-
''क्योंकि मैं दरबार में उस वक्त सबसे ऊंचे स्थान पर थी तो सबसे पहले उसे मैंने ही देखा। उस वक्त सब मेरी जयजयकार में लगे थे कदाचित इसी सबब से किसी और की नजर उस पर नहीं पड़ी थी। मेरे देखते-ही-देखते उसने अपने चेहरे से नकाब उतारकर जेब में रख लिया, यह देखकर मैं उसे देखती-की-देखती रह गई कि वह वही औरत थी, जिसने मोखले से रात यह कागज दिया था। इशारों ही इशारों में उसने मुझसे चुप रहने के लिए कहा। मैं बस उसे देखती रही, बोली कुछ नहीं। वह भी मेरी जिंदाबाद के नारे लगाने में शामिल हो गई। काफी देर तक इसी तरह का माहौल रहा। फिर विधिवत दरबार लगा। मुझे बेगम बना दिया गया। यूं तो उस दरबार में कोई खास बात न थी, किसी आम राजा की तरह ही था। यहां दरबार की केवल एक बात मैं बयान करना चाहती हूं और वो ये कि उस औरत को भी महादेवसिंह सहित सभी मुलाजिम जानते थे। दरबार बर्खास्त होने के बाद मेरे मिलने की खुशी में जश्न मनाया गया। सारा दिन इसी तरह बीत गया और रात को मुझे महल के उस कमरे में पहुंचा दिया गया, जिस पर बेगम बेनजूर का हक था। मैं बिस्तर पर पड़ी-पड़ी अपने साथ घटने वाली घटनाओं को सोच रही थी। मैं दो ही दिन में क्या से क्या हो गई! यहां लोगों ने मुझे बेगम बेनजूर बना दिया। उन बातों के बारे में मैं जितना सोचती, उतनी ही तरद्दुद में घिर जाती! अब मेरी उस औरत से मिलने की बड़ी इच्छा हो रही थी जिसने खुद को मेरी मददगार कहा था। मैं सोच रही थी कि शायद उसी से मिलने पर कोई बात समझ में आ सके। मुमकिन है कि वह बताए। मगर उससे मिलने और बात करने का कोई उपाय मेरी समझ में नहीं आ रहा धा। उस रात इसी तरह के ख्यालों के साथ मैं सो गई। सुबह होते ही चारों तरफ फिर मुलाजिम चकराने लगे। वे मुझे बताते जाते कि अब मुझे ये करना है, अब वो करना है। और मैं किसी रानी की तरह सारे काम करती रही। इसी तरह तीन दिन और तीन रातें गुजर गईं। इसी बीच उस औरत की शक्ल राजमहल में मुझे एक बार भी देखने को नहीं मिली। उसके न मिलने से मेरा दिमाग बड़ा ही परेशान था। चौथी रात की बात है-मैं अपने बिस्तर पर सोई हुई थी कि अचानक मेरी आंख खुली। उस वक्त कोई आधी रात गुजर चुकी थी। मैंने आंख खुलने का सबब जाना तो कमरे के एक तरफ की खिड़की खुली देखी। रात के वक्त मेरे सोते समय में भी कमरे में एक कंदील जल रहा था, जिसकी भरपूर रोशनी इस वक्त भी मेरे कमरे में फैली हुई थी। इस रोशनी में मैंने देखा कि मेरे कमरे में महादेवसिंह खड़ा है। उसे देखते ही मैं विस्तर पर उठ बैठी और बोली-
''महादेवसिंह तुम-इस वक्त यहां क्यों आए हो?'
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