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देवकांता संतति भाग 7

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : तुलसी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2050
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

''यही ना कि मैं तुम्हें घर न ले जाकर यहां कहां और क्यों ले आया हूं?'' मैंने कहा। - ''जी हां!'' रामरतन बोला।

''तभी मैं तुम्हें सारा हाल मुख्तसर में बताता हूं-उसे सुनकर तुम्हें सारी उलझनों के जवाब मिल जाएंगे।'' कहने के बाद मैंने बताना शुरू किया- ''आजकल एक बार फिर हमारी रियासत और दलीपनगर मैं जंग छिड़ने के आसार हैं। दलीपसिंह की फौजें यहां जंगल में खूनी घाटी नामक जगह पर पड़ी हैं। यह भेद सबसे पहले मुझे पता लगा और यह खबर मैंने उमादत्त को दी। यह बात दलीपसिंह के ऐयारों को भी पता लग गई है और वे मुझे गिरफ्तार करने के चक्कर में हैं। उन्होंने हमारे घर के चारों ओर ऐयार लगा रखे हैं-इसलिए यह भेस बना रखा है।''

''लेकिन पिताजी, जब आपको पता है कि दलीपसिंह की सेनाएं खूनी घाटी में और जंगल में दुश्मन के ऐयार हैं तो फिर हमारी सेनाएं उन पर हमला बोलकर बखेड़ा खत्म क्यों नहीं कर सकती? इस तरह से कब तक आप उनसे बचते फिरते रहेंगे?'

''मैं बचता नहीं फिर रहा हूं बेटे, बल्कि ऐयारी करके उनकी ताकत का पता लगा रहा हूं। हमारे और बहुत-से ऐयार भी इसी एक्शन पर लगे हुए हैं-टुश्मन की ताकत का सही अंदाजा लगाकर ही उस पर हमला करना ठीक होता है। इस वक्त मैं जिस प्यादे के भेस में हूं वह प्यादा दुश्मनों से मिला हुआ था। उसका भेद मैं जान गया और फिर उसे गिरफ्तार करके कैद में डाल दिया। अब उसके भेस में मैं दुश्मनों का भेद ले रहा हूं।''

इसी तरह की बहुत-सी बातें बनाकर मैंने रामरतन को संतुष्ट कर दिया। उसके हर सवाल का मैंने माकूल जवाब दे दिया। उसे इस बात में कोई शक नहीं रह गया कि मैं सच बोल रहा हूं। मेरी बातों से उसके दिमाग के सारे तरद्दुद, उलझनें और सवाल दूर हो गए। यह तो उसे मालूम ही था कि मैं एक ऐयार हूं और उसे मालूम था कि ऐयारों के लिए ऐसी बात साधारण हुआ करती हैं।

हालांकि बीच-बीच में रामरतन ने कई बार सवाल किए-लेकिन अंत में मैं उसे यकीन दिलाने में कामयाब रहा। जब उसे यकीन हो गया कि कोई खास बात नहीं है केवल ऐयारी की वजह से मैं ये सब सावधानियां बरत रहा हूं तो बोला- 'मैं तो डर ही गया था कि न जाने क्या बात हो गई है!''

मैं भी उसे दिखाने के लिए हंस पड़ा और फिर बोला-''तुम्हारी जगह और कोई होता तो वह भी उलझन में पड़ जाता।''

''तो फिर जब तक आपका यह किस्सा समाप्त नहीं हो जाता है-क्या हमें भी यहीं रहना होगा?'' रामरतन ने पूछा।

''नहीं!'' इस सवाल का जवाब मैंने पहले ही खूब अच्छी तरह सोच रखा था-''तुम उस घर में आराम से रहोगे, जिसमें वह प्यादा रहता था। जिसके इस वक्त मैं भेस में हूं लेकिन तुम्हें और बहू को भी अपने असली रूप में नहीं, बल्कि सूरत बदलकर रहना होगा।''

''लेकिन हमें भेस बदलने की क्या जरूरत है पिताजी?'' रामरतन ने पूछा।

''मुझ तक पहुंचने के लिए दलीपसिंह के ऐयार तुम्हें भी परेशान कर सकते हैं।'' मैंने कहा-''कुछ दिनों के लिए तुम्हें बाहर भी नहीं निकलना है। तुम दोनों उस घर में ही रहोगे, बस--दो-चार दिन की बात है। उसके बाद तो हम उनकी ताकत का पता लगाकर उन पर हमला कर देंगे।''

इस तरह से मैंने उन्हें बहकाया।

वे तो कभी ख्वाब में भी नहीं सोच सकते थे कि मैं उनसे झूठ बोल रहा था। खैर, अपनी बातों के पूरे यकीन में लेकर मैंने उनके चेहरों में वदलाव किया और बड़ी सावधानी से उन्हें प्यादे के घर ले आया। उसके घर की चाबी मेरी जेब में रहती ही थी। लखन से वहां तक ले जाने में मैंने चंद्रप्रभा के चेहरे पर भी मर्दाना रंग चढ़ाया था। किसी को शक न हुआ और मैं उन्हें प्यादे के घर ले आया।

उन्हें वहां छोड़कर मैं पुन: यह बहाना करके कि मैं दुश्मनों के बीच ऐयारी करने जा रहा हूं--दारोगा के घर पर आ गया।

उस दिन रामरतन और चंद्रप्रभा की और से मेरा दिल बेफिक्र हुआ।''

''ठहरो!'' एकाएक बताते हुए रामरतन को बख्तावरसिंह बने पिशाचनाथ ने टोका, बोला- ''जो कुछ भी तुम अभी-अभी कहकर निपटे हो-क्या वह भी तुमने उस कलमदान से निकले कागजों में पढ़ा था?''

''जी हां!'' रामरतन ने कहा- ''लेकिन आपने बीच में ही टोककर फिर हमसे यह सवाल क्यों कर किया?''

''यह पूछने के लिए कि जो कुछ तुमने कागजों में पढ़ा-यानी तुमसे बंसीलाल का उस प्यादे के भेस में मिलने की घटना क्या सच है?''

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