| ई-पुस्तकें >> परशुराम की प्रतीक्षा परशुराम की प्रतीक्षारामधारी सिंह दिनकर
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रामधारी सिंह दिनकर की अठारह कविताओं का संग्रह...
एक बार फिर स्वर दो?
 एक बार फिर स्वर दो।
 अब भी वाणीहीन जनों की दुनिया बहुत बड़ी है।
 आशा की बेटियाँ आज भी नीड़ों में सोती हैं
 सुख से नहीं ; विवश उड़ने के पंख नहीं होने से,
 और मूक इसलिए कि उनके कण्ठ नहीं खुलते हैं।
 सोचा है यह कभी कि गूँगापन कैसी पीड़ा है?
 भीतर-भीतर दर्द भोगना, लेकिन बँटा न पाना
 उसे किसी से कहकर, मेरे मन को चोट लगी है।
 बोल नहीं सकता जो, उसका भी दुख कोई दुख है?
 कितने लोग समझते हैं भाषा उदास आँखों की?
 
 एक बार फिर स्वर दो।
 मूक, उदासी-भरे दीन बेटे सम्पन्न मही के
 मृत्यु-विवर के पास आज भी जीवन खोज रहे हैं।
 उभर रहीं कोंपलें भेद कर सड़े हुए पत्तों को,
 छाल तोड़ कर कढ़ने को टहनी छटपटा रही है।
 प्रसवालय में घात लगाये खड़ी मृत्यु के मुख से
 बचा नर्स भागी लेकर जिस नन्हें-से जीवन को,
 देखा, वह कैसे हँसता था? मानो, समझ गया हो,
 ‘अच्छा ! यहाँ जन्म लेते ही यह सब भी होता है?’
 और मृत्यु किस भाँति पराजय पर फुंकार रही थी?
 
 एक बार फिर स्वर दो।
 जो अदृश्य से निकल जन्म लेने के लिए विकल हैं,
 आगाही दो उन्हें, यहाँ जीवन की कनक-पुरी में
 पहले दरवाजे पर भी साँपों की कमी नहीं है ;
 आगे तो ये दुष्ट और भी बढ़ते ही जाते हैं।
 और दुःख तो यह कि यहाँ कुछ पता नहीं करुणा का,
 डँसे एक को सर्प अगर दो दस मिल कर हँसते हैं।
 कहो जन्म लेनेवाले से, सोच-समझ कर आयें ;
 यहाँ भेड़िये गुर्राते हैं बिना किसी कारण के
 या इसीलिए कि हम अपना शोणित न उन्हें देते हैं।
 			
		  			
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