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परशुराम की प्रतीक्षा

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :80
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1969
आईएसबीएन :81-85341-13-3

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रामधारी सिंह दिनकर की अठारह कविताओं का संग्रह...


जब चुनाव आया, तेरी आवाज बन्द थी;
तू शरीफ था, बड़ा चतुर, नीरव तटस्थ था।
जब भी दो दल लड़े, मंच से खिसक गया तू,
बड़ी बुद्धि के साथ सोच, यह कलह व्यर्थ है।
मुझ को क्या? मैं गन्धमुक्त, सब से अलिप्त हूं।

अब समझा, चुप्पी कदर्यता की वाणी है?
बहुत अधिक चातुर्य आपदाओं का घर है।
दोषी केवल वही नहीं, जो नयनहीन था,
उस का भी है पाप, आँख थी जिसे, किन्तु, जो
बड़ी-बड़ी घड़ियों में मौन, तटस्थ रहा है।

सीधा नहीं सवाल, युद्ध घनघोर प्रश्न है!
अघी समस्त समाज, बाँध में छेद बहुत हैं।
जो सबसे है अनघ, दोष कुछ उसका भी है।

कह सकता है, जो विपत्तियाँ अब आयी हैं,
तू ने उन का कभी नहीं आह्वान किया था
ग़लत हुक्म कर दर्ज संचिकाओं पर अथवा
ग़लत ढंग से अपना घर – आँगन बुहार कर?

सरहद पर ही नहीं, मोरचे खुले हुए हैं
खेतों में, खलिहान, बैठकों, बाजारों में!
जहाँ कहीं आलस्य, वहीं दुर्भाग्य देश का ;
जो भी नहीं सतर्क, सभी के लिए विपद् है।
और आज भी जिस पापी का सही नहीं ईमान,
(भले वह नेता हो, शासक हो या दूकानदार हो)
चीनी है, दुश्मन है, सब के लिए काल है।

कल जो किया गुनाह, आग बन कर आया है।
पर, जो हम कर रहे, आज, उसका क्या होगा?
समझ नहीं नादान ! पाप से छूट गये हम
सुन कर गर्जन-गीत या कि हुंकार उठा कर।
अपनी रक्षा के निमित्त औरों को रण में
कटवाना है पाप ; पाप है यह विचार भी,
जगें युवक सीमा पर, पर सोने जाते हैं।

* * *

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