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परशुराम की प्रतीक्षा

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :80
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1969
आईएसबीएन :81-85341-13-3

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रामधारी सिंह दिनकर की अठारह कविताओं का संग्रह...


(21)
भव को न अग्नि करने को क्षार बनी थी,
रखने को, बस, उज्जवल आचार बनी थी।
शिव नहीं, शक्ति सर्जन-आधार बनी थी ;
जब बनी सृष्टि, पहले तलवार बनी थी।
वह कालकण्ठ स्रज नहीं, न कुंकुम-रज है।
सत्य ही कहा गुरु ने, अकाल असि-ध्वज है।

(22)
स्वर में पावक यदि नहीं, वृथा वन्दन है,
वीरता नहीं, तो सभी विनय क्रन्दन है।
सिर पर जिसके असिघात, रक्त-चन्दन है,
भ्रामरी उसी का करती अभिनन्दन है।
दानवी रक्त से सभी पाप धुलते हैं,
ऊँची मनुष्यता के पथ भी खुलते हैं।

(23)
सत्य है, धर्म का परम रूप यव-कुश है,
अत्यय-अधर्म पर परशु मात्र अंकुश है,
पर, जब कुठार की धार क्षीण होती है,
स्वयमेव दर्भ की श्री मलीन होती है।
हो धर्म ध्येय, तो भजो प्रथम बाँहों को।
बोलो अपना बल-वीर्य नहीं आहों को।

(24)
हैं दुखी मेष, क्यों लहू शेर चखते हैं,
नाहक इतने क्यों दाँत तेज रखते हैं।
पर, शेर द्रवित हो दशन तोड़ क्यों लेंगे?
मेषों के हित व्याघ्रता छोड़ क्यों देंगे?
एक ही पन्थ, तुम भी आघात हनो रे !
मेषत्व छोड़ मेषो ! तुम व्याघ्र बनो रे !

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