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परशुराम की प्रतीक्षा

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :80
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1969
आईएसबीएन :81-85341-13-3

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रामधारी सिंह दिनकर की अठारह कविताओं का संग्रह...


(13)
जब कभी अहं पर नियति चोट देती है,
कुछ चीज अहं से बड़ी जन्म लेती है।
नर पर जब भी भीषण विपत्ति आती है,
वह उसे और दुर्धुर्ष बना जाती है।
चोटें खा कर बिफरी, कुछ अधिक तनो रे !
धधको, स्फुलिंग-से बढ़ अंगार बनो रे !

(14)
धन-धाम, ज्ञान-विज्ञान मात्र सम्बल है,
बस, एक मात्र बलिदान जाति का बल है।
सिर देने में जो लोग नहीं डरते हैं,
वे ही प्रभंजनों पर शासन करते हैं।
जब पड़े विपद्, अपनी उमंग जांचो रे !
विकराल काल के पण पर चढ़ नाचो रे !

(15)
हैं खड़े हिंस्र वृक-व्याघ्र, खड़ा पशुबल है ;
ऊँची मनुष्यता का पथ नहीं सरल है।
ये हिंस्र साधु पर भी न तरस खाते हैं,
कण्ठी-माला के सहित चबा जाते हैं।
जो वीर काट कर इन्हें पार जायेगा,
उत्तुंग श्रृंग पर वही पहुँच पायेगा।

(16)
जो पुरुष मूल शायक, कुठार को, असि को,
पूजता मात्र चिन्तन, विचार को, मसि को,
सत्य का नहीं बहुमान किया करता है,
केवल सपनों का ध्यान किया करता है,
बस में उसके यह लोक न रह जायेगा।
है हवा स्वप्न, कर में वह क्यों आयेगा?

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