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आरोग्य कुंजी

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :45
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1967
आईएसबीएन :1234567890

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गाँधी जी द्वारा स्वास्थ्य पर लिखे गये लेख


शरीरके अन्दरके विभाग हमें चकित कर देते हैं। शरीर जगतका एक छोटासा मगर सम्पूर्ण नमूना है। जो शरीरमें नहीं है, वह जगतमें भी नहीं है। और जो जगत में है, वह शरीरमें है। इसी परसे 'यथा पिंड तथा ब्रह्मांडे' यह महत्त्वपूर्ण कथन निकला है। इसलिए अगर हमे शरीरको पूर्णतया पहचान सकें, तो जगतको पहचान सकते हैं। मगर जब बड़े-बड़े डॉक्टर, वैद्य और हकीम भी इसें पूरी तरह नहीं पहचान पाये, तो हमारे जैसे सामान्य प्राणी भला किस गिनती में हैं? आज तक ऐसे किसी यन्त्रकी शोध नहीं हो पाई, जो मनको पहचान सके। शरीरके अन्दर और बाहर चलनेवाली क्रियाओंका विशेषज्ञ लोग आकर्षक वर्णन दे सके हैं। मगर ये क्रियायें कैसे चलती हैं, यह कोई बता सका है? मौत क्यों आती है, वह कब आयेगी, यह कौन कह सका है? 'अर्थात् मनुष्यने बहुत पढ़ा, विचार किया और अनुभव लिया, मगर परिणाम में उसको अपनी अल्पज्ञताका ही अधिक भान हुआ है।

शरीर के अन्दर चलने वाली अद्भुत क्रियाओं पर इन्द्रियों का स्वस्थ रहना निर्भर करता है। शरीर के सब अंग नियमानुसार चलें, तो शरीरका व्यवहार अच्छी तरहसे चलता है। एक भी अंग अटक जाय, तो गाड़ी चल नहीं सकती। उसमें भी पेट अपना काम ठीक तरह से न करे, तो शरीर ढीला पड़ जाता है। इसलिए अपच या कब्जियत की जो लोग अवगणना करते हैं, वे शरीरके धर्मको जानते ही नहीं। इन दो रोगोंसे अनेक रोग उत्पन्न होते हैं।

अब हमें यह विचार करना है कि शरीरका उपयोग क्या है?

हरएक चीजका सदुपयोग और दुरुपयोग हो सकता है। यह नियम हमारे शरीरको भी लागू होता है। शरीरका उपयोग स्वार्थके लिए, स्वेच्छाचार के लिए, दूसरोंको नुकसान पहुंचानेके लिए किया जाय, तो वह उसका दुरुपयोग होगा। किन्तु यदि उसी शरीरका उपयोग सारे जगतकी सेवाके लिए किया जाय और इस हेतुसे संयमका पालन किया जाय तो वह उसका सदुपयोग होगा। आत्मा परमात्माका अंश है। उस आत्माको पहचाननेके लिए अगर हम इस शरीरका उपयोग करते हैं, तो शरीर आत्माके रहनेका मन्दिर बन जाता है।

३०-८-'४२


शरीरको मल-मूत्रकी खान कहा गया है। एक तरहसे इस उपमा में कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं है। परन्तु यदि शरीर केवल मल-मूत्रकी खान ही हो, तो उसकी संभालके लिए इतने प्रयत्न करना कोई अर्थ नहीं रखता। परन्तु इसी 'नरककी खान' का सदुग्योग हो, तो उसे साफ़-सुथरा ररककर उसकी संभाल करना हमारा धर्म हो जाता है। हीरे और सोनेकी खान भी ऊपरसे देखने पर तो मिट्टीकी खान ही लगती है। पर उसमें हीरा और सोना है, इसलिए मनुष्य उस पर करोडों रुपये खर्च करता है अगर उसके पीछे अनेक शास्त्रज्ञ अपनी वृद्धिका उपयोग करते हैं। तब आत्माके मन्दिर-रूपी शरीर के लिए तो हम जितना भी करें उतना कम है।

हम इस जगत में जन्म लेते हैं जगत के प्रति अपना ऋण चुकानेके लिए, अर्थात् उसकी सेवाके लिए। इस दृष्टिबिन्दुको सामने रखकर मनुष्य अपने शरीरका संरक्षक बनता है। इसलिए शरीरकी रक्षाके लिए हमें ऐसा यत्न करना चाहिये, जिससे वह सेवाधर्मका पालन पूरी तरहसे कर सके।

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