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अष्टांगहृदय

वाग्भट

प्रकाशक : खेमराज श्रीकृष्णदास प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :350
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15769
आईएसबीएन :1234567890

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आयुर्वेद के स्तम्भ ग्रंथ अष्टांगहृदय का पहला भाग


तृतीयोऽध्यायः

अथात ऋतुचर्याध्यायं व्याख्यास्यामः।
इति ह स्माहुरात्रेयादयो महर्षयः।

अब यहाँ से हम ऋतुचर्या नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे, जैसा कि इसके सम्बन्ध में आत्रेय आदि महर्षियों ने कहा था।

उपक्रम- चर्या शब्द का व्याख्यान हमने 'दिनचर्या' प्रकरण में कर दिया था। अब यहाँ 'ऋतु' = दो-दो मास के अनुसार सम्पूर्ण वर्ष को छ: भागों में जो बाँटा गया है उनमें किस प्रकार का आहार-विहार होना चाहिए, इस अध्याय में उस विषय का वर्णन किया जायेगा।

संक्षिप्त सन्दर्भ-संकेत-च.सू. ६; च.वि. ८; सु.सू. ६; सु.चि. २४ तथा सु.उ. ६४ एवं अ.सं. ४ में देखें।

मासैर्द्धिसङ्ख्यैर्माघाद्यैः क्रमात् षड्तवः स्मृताः।
शिशिरोऽथ वसन्तश्च ग्रीष्मो वर्षाःशरद्धिमाः॥
शिशिराद्यास्त्रिभिस्तैस्तु विद्यादयनमुत्तरम्।
आदानं च, तदादत्ते नृणां प्रतिदिनं बलम् ॥२॥

छः ऋतुएँ—माघ आदि दो-दो महीनों से क्रमशः छः ऋतुएँ होती हैं। यथा—१. माघ-फाल्गुन : शिशिर ऋतु, २. चैत्र-वैशाख : वसन्त ऋतु, ३. ज्येष्ठ-आषाढ़ : ग्रीष्म ऋतु, ४. श्रावण-भाद्रपद : वर्षा ऋतु, ५. आश्विन-कार्तिक : शरद् ऋतु और ६. मार्गशीर्ष-पौष : हेमन्त ऋतु।

उत्तरायण तथा आदानकाल–शिशिर, वसन्त तथा ग्रीष्म नामक तीन ऋतुओं में होने वाले छ: मासों का नाम ‘उत्तरायण' है; इसी का दूसरा नाम है—'आदानकाल' । क्योंकि इन दिनों में यह काल अपनी प्रकृति से प्रतिदिन प्राणियों के बल को लेता रहता है अर्थात् उनके बल का अपहरण करता रहता है।।१-२॥

वक्तव्य-तन्त्रकारों की व्याख्यान-सरणियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं, तथापि निष्कर्ष प्रायः समान होते हैं। यहाँ छः ऋतुओं तथा उत्तरायण की चर्चा की गयी है। यह भारत वर्ष भाग्यवान् देश है, यह ऋतु आदि की विविधता यहाँ के निवासियों का ही सौभाग्य है, अन्यत्र ऐसा नहीं है। इसके लिए आप विश्व के भूगोल का अध्ययन करें, अस्तु।

सम्पूर्ण वर्ष में १२ मास, ६ ऋतुएँ और २ अयन होते हैं। यह कालविभाग सौरमासों के अनुसार कहा गया है। ज्योतिष के अनुसार वर्षभर में चान्द्रमासों की भी सत्ता स्वीकार की गयी है। तदनुसार प्रति तीसरे वर्ष १ मास बढ़ जाता है, क्योंकि चान्द्रमास २७ या २८ दिन का होता है, किन्तु ऋतु-विभाजन सौरमासों के अनुसार ही होता है। उक्त चान्द्रमास को समझने के लिए आप देखें—

तैश्चतुर्भिरहोरात्रिश्च, पञ्चदशाहोरात्राः पक्षः। पक्षद्वयं मासः । स शुक्लान्तः'। (अ.सं.सू. ४।४) अर्थात् ४ पहर का दिन और ४ पहर की रात्रि होती है, जिसे मिलाकर १ दिन होता है। १५ दिनों का एक पक्ष होता है, यह कृष्ण तथा शुक्ल भेद से माना गया है। २ पक्षों का एक मास होता है, शुक्लपक्ष की पूर्णिमा के दिन इस मास की पूर्ति होती है।

सूर्यसिद्धान्त के मध्याधिकार श्लोक १२-१३ के अनुसार मास (महीना) दो प्रकार का होता है—१. चान्द्र (ऐन्दव) मास—इसकी गणना प्रतिपदा से अमावास्या तक १५ दिन का कृष्णपक्ष और पुनः प्रतिपदा से पूर्णिमा तक १५ दिन का शुक्लपक्ष, दोनों को मिलाकर एक मास । २. सौरमास—इसकी गणना मेष ( वैशाख ), वृष ( ज्येष्ठ) आदि राशियों के अनुसार होती है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न राशियों पर सूर्य के संक्रमण को मेषसंक्रान्ति आदि कहते हैं।

सुश्रुत का दृष्टिकोण—'इह तुप्रावृडिति'। (सु.सू. ६।१०) अर्थात् यहाँ वर्षा, शरद्, हेमन्त, वसन्त, ग्रीष्म, प्रावृट् ये छ: ऋतुएँ वात आदि दोषों के संचय, प्रकोप, प्रशमन में कारण हैं। उक्त छ: ऋतुएँ भाद्रपद आदि दो-दो मासों को लेकर इस प्रकार मानी गयी है—१. वर्षा—भाद्रपद-आश्विन, २. शरद् - कार्तिक-मार्गशीर्ष, ३. हेमन्त—पौष-माघ, ४. वसन्त—फाल्गुन-चैत्र, ५. ग्रीष्म–वैशाख-ज्येष्ठ तथा ६. प्रावृट्—आषाढ-श्रावण। महर्षि सुश्रुत शल्यशास्त्र के आचार्य थे, अतएव उन्होंने वात, पित्त एवं कफ दोषों के संचय, प्रकोप, प्रशम को दृष्टि में रखकर इस प्रकार ऋतुक्रम को व्यवस्थित किया है। कायचिकित्सा-प्रधान चरकसंहिता में प्रावृट्' नामक ऋतु को स्वीकार न करके अपने क्रम से 'शिशिर' ऋतु को माना है। देखें—च.सू. ६।४। फिर भी चरक ने संशोधन-चिकित्सा को ध्यान में रखकर 'प्रावृट्' ऋतु की सत्ता को स्वीकारा है। देखें-च.वि. ८।१२५।

मतभेद का समाधान हमारे ये तन्त्रकार नीरजस्तम, आप्त, शिष्ट, विबुद्ध थे, अतएव इनके सिद्धान्त तीनों काल में मानने योग्य होते हैं, फिर भी जहाँ मतभेद होता है उसका कारण भी होता है। देखें—जिन देशों ( भूखण्डों) में ठण्ड अधिक पड़ती है वहाँ हेमन्त तथा शिशिर नामक दो ऋतुएँ शीतकाल की होती हैं और जहाँ वर्षा अधिक होती है वहाँ प्रावृट् तथा वर्षा नाम की दो ऋतुएँ मानी जाती हैं। हमारे भारतवर्ष में हिमालय के कई भाग ऐसे भी हैं जहाँ वर्षभर सर्दी बनी रहती है। आसाम आदि कुछ स्थान ऐसे हैं जहाँ वर्षा अधिक होती है तथा दक्षिण के कुछ देश ऐसे भी हैं जहाँ अधिक गर्मी पड़ती है; तथापि ऋतुओं का अपना प्रभाव उन-उन स्थानों पर भी अवश्य पड़ता ही है। इसी दृष्टि से प्राचीन महर्षियों ने भौगोलिक सर्वेक्षण कर अधिकाधिक प्रभावकारी भूभागों को उक्त विभाजन की सूक्ष्म दृष्टियों से देखा है, जो चिकित्सा की दृष्टि से उपादेय है।

सुश्रुत ने पहले ऋतुभेद से जिन वात आदि दोषों के चय, प्रकोप, प्रशम का वर्णन वर्षभर की अवधि में दिखलाया था, उसे दिन-रात के रूप में इस प्रकार कहा है—दिन के पूर्वार्ध में वसन्तऋतु (कफप्रकोप) के मध्याह्नकाल में, ग्रीष्मऋतु (वातसंचय ) के अपराह्न में प्रावृट् ऋतु (वातप्रकोप) के प्रदोषकाल (रात्रि के पूर्वभाग ) में वर्षाऋतु के (पित्तसंचय ) के आधीरात में शरद् ऋतु (पित्तप्रकोप) के, रात्रि के अन्तिम भाग (उषःकाल) में हेमन्तऋतु (कफसंचय) के लक्षण होते हैं। इस प्रकार दिन-रात में भी दोषों का संचय, प्रकोप तथा प्रशम होता है। देखें—सु.सू. ६।१४।

तस्मिन् प्रत्यर्थतीक्ष्णोष्णरूक्षा मार्गस्वभावतः।
आदित्यपवनाः सौम्यान् क्षपयन्ति गुणान् भुवः।
तिक्तः कषायः कटुको बलिनोऽत्र रसाः क्रमात् ।
तस्मादादानमाग्नेयम्-

अग्निगुण-प्रधान आदानकाल–इस उत्तरायण काल में सूर्य के उत्तरमार्ग में चलने के कारण सूर की किरणे अत्यन्त तीक्ष्ण तथा उष्ण (गरम ) हो जाती हैं। सूर्य की गरमी से तपी हुई हवाएँ भी उष्ण एवं रूक्ष हो जाती हैं अर्थात् लू चलने लगती है। अतएव ये दोनों ( सूर्य तथा हवा ) पृथ्वी के सौम्य ( शीतलता तथा गीलापन आदि) गुणों को क्षीण (नष्ट ) कर देते हैं। यही कारण है कि इन दिनों प्राणियों का भी शारीरिक बल क्षीण हो जाता है। इस उत्तरायण काल में क्रमशः शिशिर ऋतु में तिक्तरस, वसन्त ऋतु में कषाय रस और ग्रीष्म ऋतु में कटुरस बलवान् (शक्तिशाली ) हो जाते हैं। यही कारण है कि यह आदानकाल आग्नेय (अग्निगुण प्रधान ) कहा गया है।। ३ ।।

वक्तव्य-'आदित्यपवनाः' अर्थात् सूर्य की उष्णता से युक्त इधर-उधर बहती हुई हवाएँ इस काल में अपनी भयंकरता से युक्त रहती हैं। वास्तव में हवा का स्वभाव ही ऐसा होता है कि गर्मी में वही 'लू' का रूप धारण कर लेती है और जाड़ों में सर्दी का। इस सम्बन्ध में चरक ने कहा है—'वायु को योगवाही कहा गया है—जैसा उसे संयोग मिलता है, वैसा उसका स्वभाव हो जाता है। देखें—च.चि. ३।३८। अग्निगुण-प्रधान आदानकाल का वर्णन चरक ने भी प्राय: इसी प्रकार किया है। देखें—च.सू. ६।६।

-ऋतवो दक्षिणायनम्॥४॥

वर्षादयो विसर्गश्च-

विसर्गकाल-दक्षिणायन-वर्षा, शरद् तथा हेमन्त नामक इन तीन ऋतुओं का नाम दक्षिणायन है, इसी का दूसरा नाम है 'विसर्ग काल' । क्योंकि ‘विसृजति ददाति बलम् इति विसर्गः कालः' ॥४॥

—यदलं विसृजत्ययम्। सौम्यत्वादत्र सोमो हि बलवान् हीयते रविः॥५॥
मेघवृष्ट्यनिलैः शीतैः शान्ततापे महीतले। स्निग्धाश्चेहाम्ललवणमधुरा बलिनो रसाः॥६॥

विसर्गकाल-परिचय—यह काल सौम्य होने के कारण प्राणिमात्र को बल देता है। इस काल में सौम्यगुणों वाला सोम (चन्द्रमा) बलवान् रहता है और सूर्य का बल क्षीण हो जाता है। इस काल में मेघों (बादलों) के छाये रहने के कारण, वर्षा के होते रहने से इन दोनों के कारण शीतल हवा के बहने से भूतल का सन्ताप शान्त हो जाता है। अतः वर्षा ऋतु में स्निग्ध गुण वाला अम्ल रस, शरद् ऋतु में लवण रस तथा हेमन्त ऋतु में मधुररस बलवान् हो जाते हैं। फलतः इस विसर्गकाल (दक्षिणायन) में प्राणियों के देह तथा उसका बल बढ़ जाता है, अतएव इसे 'विसर्गकाल' कहते हैं।। ५-६ ।।

वक्तव्य–'वि + सृज् + घञ् = विसर्गः' अर्थात् दान। यह काल प्राणियों को बल का विसर्जन करता है। चरक-सुश्रुत ने भी इस काल की प्रशंसा की है।

शीतेऽग्रयं वृष्टिघर्मेऽल्पं बलं मध्यं तु शेषयोः।

बल का चयापचय-शीत ऋतुओं ( हेमन्त तथा शिशिर ) में प्राणियों में बल की स्थिति उत्तम रहती है, शेष दो शरद् तथा वसन्त ऋतुओं में शारीरिक बल की स्थिति मध्यम कोटि की तथा वर्षा और ग्रीष्म ऋतुओं में बल की मात्रा अति अल्प हो जाती है।

वक्तव्य–विसर्गकाल में क्रमशः बढ़ा हुआ शारीरिक बल आदानकाल में क्रमशः उस प्रकार घटता जाता है, जैसे शुक्लपक्ष में क्रमशः बढ़ा हुआ चन्द्रमा कृष्णपक्ष में क्रमशः घटता जाता है। अतएव शारीरिक बल के ह्रास-वृद्धि क्रम को हीन, मध्य, उत्तम भेद से तीन भागों में विभाजित किया गया है।

बलिनः शीतसंरोधाद्धेमन्ते प्रबलोऽनलः ॥७॥
भवत्यल्पेन्धनो धातून् स पचेद्वायुनेरितः।
अतो हिमेऽस्मिन्सेवेत स्वाद्वम्ललवणानसान् ॥८॥

हेमन्तऋतुचर्या–हेमन्त ऋतु में कालस्वभाव के कारण पुरुष अधिक बलवान् रहता है। क्योंकि शीत के कारण भीतर रुका होने के कारण ( अर्थात् रोमकूपों के शीत से अवरुद्ध होने के कारण ) जठराग्नि (पाचकाग्नि) अधिक बलवान् हो जाती है। यदि उसे आहार रूपी ईंधन (जिसे वह जठराग्नि पका या जला सके। ) कम मिल पाता है, तो वह अग्नि वायु द्वारा प्रेरित होकर (सुलगकर ) रस आदि शरीरस्थ धातुओं को पचाने लगती है। इसलिए हेमन्त ऋतु में वातनाशक मधुर, अम्ल तथा लवण रसयुक्त पदार्थों का पर्याप्त सेवन करना चाहिए।। ७-८।।

वक्तव्य—यह हेमन्तऋतुचर्या है, कभी-कभी ऐसा भी देखा जाता है कि गर्मी में गर्मी नहीं पड़ती, वर्षा ऋतु में वर्षा नहीं होती और सर्दियों में जाड़ा नहीं पड़ता; इसे ऋतुविपर्यय कहते हैं। ये लक्षण शनि आदि ग्रहों के अतिचार से भी देखे जाते हैं। आजकल राकेट आदि अन्तरिक्ष में छोड़े जा रहे हैं, इनके प्रकोप से भी ये परिवर्तन दिखलायी दे रहे हैं। ऐसी स्थिति में कुशल चिकित्सक देश-काल की सामयिक स्थिति के अनुसार ऋतुचर्या का निर्देश करे।

सुश्रुत के अनुसार हेमन्तचर्या—

हेमन्ते लवणक्षारतिक्ताम्लकटुकोत्कटम्।
सर्पिस्तैलमहिममशनं हितमुच्यते ॥ (सु.उ. ६४।२३ )

अर्थात् हेमन्त ऋतु में नमकीन, तिक्त, क्षार, अम्ल, कटु रसों का एवं पर्याप्त घी-तैल का तथा इनसे बने हुए भोज्य पदार्थों का सेवन हितकर होता है। इस काल में वातकारक पदार्थों का सेवन न करे। ऊपर कहे गये तिक्त, कटु आदि रस-प्रधान पदार्थ कफदोष के विनाशक होते हैं, क्योंकि इस काल में कफ की वृद्धि स्वभावतः होती है।

दैर्ध्यान्निशानामेतर्हि प्रातरेव बुभुक्षितः।
अवश्यकार्य सम्भाव्य यथोक्तं शीलयेदनु ॥ ९ ॥
वातघ्नतैलैरभ्यङ्गं मूर्ध्नि तैलं विमर्दनम्।
नियुद्धं कुशलैः सार्धं पादाघातं च युक्तितः॥१०॥

प्रातःकाल के कर्तव्य हेमन्त ऋतु में रातें लम्बी होने लगती हैं, अतः प्रातःकाल उठते ही भूख लग जाती है। इसलिए प्रातःकाल समय पर उठकर मल-मूत्र करने के बाद शौच आदि क्रिया से निवृत्त होकर दतवन आदि करके उसके बाद यथोक्त (आठवें पद्य में ऊपर जो कहा है—'सेवेत स्वाद्वम्ललवणान् रसान्') का सेवन करे अर्थात् मधुर, लवण तथा अम्ल रसयुक्त पदार्थों ( मिठाई, नमकीन आदि ) को खाये अथवा जलपान करे। इस ऋतु में प्रतिदिन वातनाशक तैलों का मालिश करे या कराये। मल्लविद्याकुशल पहलवानों के साथ कुश्ती करे, यदि सम्भव हो तो पादाघात (लंगड़ी लगाना ) आदि को विधिपूर्वक सीखे, अन्यथा कुछ व्यायाम अवश्य करे ।। ९-१०।।

वक्तव्य—'अवश्यकार्य' की व्याख्या हमने ऊपर कर दी है। 'बुभुक्षितः'—यद्यपि ऊपर कहा गया है कि भूख लगे हुए पुरुष को आवश्यक कार्य करने के बाद खाना चाहिए। इस प्रसंग में च.चि. १५।११७ से २२० तक पद्यों का अनुशीलन करें। इन सबका तात्पर्य यह है कि उसे तत्काल भोजन दें, अन्यथा उपेक्षा करने से उसकी मृत्यु भी हो सकती है। और भी देखें—

आहारकाले सम्प्राप्ते यो न भुङ्क्ते बुभुक्षितः ।
तस्य सीदति कायाग्निर्निरिन्धन इवानल:' ।।

इन उद्धरणों से बुभुक्षित को भोजन करना ही चाहिए, ऐसा समझें। यहाँ व्यक्ति की स्वास्थ्य-सम्पत्ति का विचार करके चिकित्सक निर्देश दे कि तत्काल भोजन देना आवश्यक है या शौच आदि करने के बाद।

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