स्वास्थ्य-चिकित्सा >> अष्टांगहृदय अष्टांगहृदयवाग्भट
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आयुर्वेद के स्तम्भ ग्रंथ अष्टांगहृदय का पहला भाग
देहवाक्चेतसां चेष्टाः प्राक् श्रमाद्विनिवर्तयेत्।
नोर्ध्वजानुश्चिरं तिष्ठेत्-
शारीरिक आदि चेष्टाओं की मात्रा-शरीर, मन तथा वाणी की चेष्टाओं (इनके कार्यों) को थकान होने से पहले ही रोक देना चाहिए (इस विषय को वाग्भट ने सवृत्त में दिया है, चरक ने इसे व्यायाम के लक्षणों में कहा है) और चिरकाल तक जाँघों को ऊपर की ओर उठाकर लेटा न रहे।
–नक्तं सेवेत न द्रुमम्॥३७॥
तथा चत्वरचैत्यान्तश्चतुष्पथसुरालयान्।
सूनाटवीशून्यगृहश्मशानानि दिवाऽपि न॥३८॥
अन्य सदाचार—रात्रि में वृक्ष के नीचे न रहे तथा चत्वर (तिमुहानी), चैत्य के समीप या भीतर, चतुष्पथ (चौराहा या चौमुहानी) पर, देवमन्दिर या मद्यशाला में, सूना (कसाईघर अथवा फाँसी देने के) स्थान पर, घोर वन में, सुनसान घर में तथा श्मशान में दिन में भी न रहे।। ३७-३८॥
वक्तव्य—'रात में पेड़ के नीचे न रहे'—इस वाक्य के समर्थन में श्री अरुणदत्त कहते हैं—'उस वृक्ष के आश्रय में रहने वाले कीड़ों के मल-मूत्र गिरने से रक्षा होगी। आज का विज्ञान कहता है कि रात्रि में वृक्ष 'कार्बन-डाई-आक्साइड' गैस को छोड़ते हैं, अतः उनसे दूर रहना चाहिए। क्योंकि यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती है।
उक्त ३८वें श्लोक में ‘चत्वर' तथा 'चतुष्पथ' दो एकार्थवाचक शब्दों का समावेश हुआ है, अतः इसकी संगति बैठाने के लिए विद्वान् टीकाकारों ने 'चत्वर' का अर्थ 'तिमुहानी' किया है। उसका आधार यह है—'चत्वरं स्यात् पथां श्लेषे' इति हैमः। अर्थात् मार्गों का संगम एकाधिक का हो ही सकता है। फिर भी हमारे विचार से यहाँ ‘चत्वर' का अर्थ—स्थण्डिल या आँगन तिमुहानी से अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। इसी तथ्य को श्री अरुणदत्त ने भी स्वीकार करते हुए कहा है—
अन्ये त्वाहुः—यत्र प्रदेशे नगरनिवासिनो
ग्राम्या वा समेत्य नानाविधा: कथाः कुर्वन्ति, स चत्वर उच्यते'।
सुरालयान्–सुर + आलयान्' = देवगृह या मन्दिर। 'सुरा + आलयान्' = मद्यशाला या मधुशाला। ये दो अर्थ उक्त विग्रहों के आधार पर किये गये हैं।
सर्वथेक्षेत नादित्यं, न भारं शिरसा वहेत्।
नेक्षेत प्रततं सूक्ष्म दीप्तामेध्याप्रियाणि च ॥ ३९ ॥
अन्य सदाचार—सूर्य को एकटक होकर देखता न रहे, सिर पर बोझ रखकर न ले जाये; सूक्ष्म, चमकीले, अपवित्र तथा अप्रिय पदार्थों को लगातार देखना न रहे।। ३९।।
वक्तव्य—सूर्य को कब न देखे, इस सम्बन्ध में मनुस्मृति का वचन देखें—'उदय तथा अस्त होते हुए, ग्रहणकाल में, जल में प्रतिबिम्बित, आकाश के मध्य में स्थित सूर्य को न देखें। (मनु. ४।३७)
मद्यविक्रयसन्धानदानादानानि नाचरेत्।
मद्य-विक्रय आदि का निषेध—मद्य का विक्रय न करे, मद्य का सन्धान (निर्माण) भी न करे और उसका लेन-देन (व्यापार) भी न करे तथा उसे पीना भी नहीं चाहिए; केवल ‘औषधार्थे सुरां पिबेत्'।
पुरोवातातपरजस्तुषारपरुषानिलान् ॥४०॥
अनृजुः क्षवथूगारकासस्वप्नान्नमैथुनम्।
कूलच्छायां नृपद्विष्टं व्यालदंष्ट्रिविषाणिनः॥४१॥
हीनानार्यातिनिपुणसेवां विग्रहमुत्तमैः।
सन्ध्यास्वभ्यवहारस्त्रीस्वप्नाध्ययनचिन्तनम् ॥४२॥
शत्रुसत्रगणाकीर्णगणिकापणिकाशनम्।
गात्रवानखैर्वाद्यं हस्तकेशावधूननम्।। ४३ ॥
तोयाग्निपूज्यमध्येन यानं धूमं शवाश्रयम्।
मद्यातिसक्तिं विश्रम्भस्वातन्त्र्ये स्त्रीषु च त्यजेत् ॥
अन्य निषिद्ध कर्म-पूर्व दिशा की ओर से बहने वाली वायु का, सामने से आने वाली वायु का, धूप का, धूलि का, तुषार (ओस तथा बर्फ) का तथा झोंके से चलने वाली वायु (आँधी)का सेवन न करे। जब शरीर की स्थिति सीधी न हो ऐसी अवस्था में न छींके, न डकार ले, न खाँसे, न सोये, खाना खाये और न मैथुन करे। कूल (नदी का किनारा) की छाया में न बैठे, राजा के शत्रु का साथ न करे। सर्प से, दाँतों से काटने वाले कुत्ता आदि प्राणियों से दूर रहे। सींग से मारने वाले साँड़, भैंसा आदि प्राणियों से सदा दूर रहे। नीच, अनार्य (अधम या कमीना), अतिनिपुण (दुष्ट, शैतान) व्यक्तियों की सेवा (नौकरी) न करे। उत्तम (अपने से बलवान् अथवा सदाचार युक्त) पुरुषों से झगड़ा (वैर) न करे।
सन्ध्याकाल में भोजन, स्त्रीसहवास, सोना, अध्ययन आदि किसी विषय का विचार न करे। यह समय भगवद्भजन करने का होता है। शत्रु का, यज्ञ का, गण (समुदाय या समाज) का, आकीर्ण (इधर-उधर बिखरा हुआ), गणिक (वेश्याओं) का तथा पणिक (दुकान, होटल आदि) का भोजन न करे। (च.सू. ८/२० के अनुसार आकीर्ण का अर्थ-बहुजनाकीर्ण है।) गात्र (काँख, ताली आदि) से, मुख से तथा नाखूनों से बाजा बजाने की नकल न करें। हाथों को हिलाना एवं बालों का अवधूनन (कम्पन) न करे। (प्रायः हाथों तथा केशों का कम्पन यह लक्षण उन्मादरोगियों में देखा जाता है। चेतन अवस्था में ये कृत्य शिष्टाचार के विरुद्ध हैं।)
जल, अग्नि तथा पूज्यजनों के बीच में से होकर इधर-उधर नहीं जाना चाहिए। (इस विषय को चाणक्य ने इस प्रकार कहा है—'विप्रयोर्विप्रवह्नयोश्च दम्पत्योः स्वामिभृत्ययोः। अन्तरेण न गन्तव्यं हलस्य वृषभस्य च'।—चाणक्यनीति) श्मशान में चिता के धुंआ से दूर रहे, मद्य (मादक पदार्थों के सेवन) का अभ्यासी न बने। स्त्रियों का विश्वास न करे और इन्हें स्वतन्त्रता प्रदान न करे, क्योंकि 'प्रायः साहसिकाः स्त्रियः ॥४०-४४॥
वक्तव्य-ऊपर कहा गया सद्वृत्त सत्पुरुषों तथा कुलांगनाओं के आचरण का लेखा-जोखा है। प्रतिदिन के आचरण में उक्त उपदेशों का समावेश अवश्य कर लेना चाहिए। सद्वृत्त में कहे गये विषयों के लिए च.सू. ५ तथा ८ को और सु.चि. २४ को देखें। यहाँ कहा गया सम्पूर्ण वृत्त सद्धर्म है। इनका व्यावहारिक प्रयोग मनुष्य को सदाचारी एवं सज्जन बनाता है, जिससे समाज उसका आदर करता है और परलोक में उसे शुभ गति प्राप्त होती है।
आचार्यः सर्वचेष्टासु लोक एव हि धीमतः।
अनुकुर्यात्तमेवातो लौकिकेऽर्थे परीक्षकः॥ ४५ ॥
अन्य सदुपदेश—सभी प्रकार के सांसारिक व्यवहारों को सीखने के लिए बुद्धिमान् मानव का सम्पूर्ण संसार ही आचार्य (गुरु) है, फिर भी सांसारिक अर्थ (स्वार्थ तथा परार्थ) की परीक्षा (क्या करने में हित है और क्या करने में अहित है, इस प्रकार का विचार) करने वाला मनुष्य संसार का अनुकरण करे॥ ४५।।
वक्तव्य-भगवान् पुनर्वसु ने उक्त विषय में अत्यन्त स्पष्ट निर्देश इस प्रकार दिया है—'कृत्स्नो हि लोको बुद्धिमताम् आचार्यः, शत्रुश्च अबुद्धिमताम्' (च.वि. ८।१४) अर्थात् समझदार नर-नारियों के लिए सम्पूर्ण संसार आचार्य (गुरु या उपदेशक) है, क्योंकि वे उससे अच्छी बातें सीखते हैं और नासमझ लोग उससे बुरी बातें सीखते हैं, अतः संसार को उनका शत्रु कहा गया है।
आर्द्रसन्तानता त्यागः कायवाक्चेतसां दमः।
स्वार्थबुद्धिः परार्थेषु पर्याप्तमिति सद्वतम् ॥४६॥
सदाचार-सूत्र—सभी प्राणियों पर दयालु होना, दान देना, शरीर, मन तथा वाणी पर नियन्त्रण रखना अर्थात् इन्हें स्वतन्त्र न छोड़ना तथा दूसरों के अर्थों में स्वार्थबुद्धि रखना (उन्हें भी अपने ही जैसा समझना) यह सूत्र रूप में पूर्ण सदाचार माना गया है।।४६॥
नक्तंदिनानि मे यान्ति कथम्भूतस्य सम्प्रति।
दुःखभाङ्न भवत्येवं नित्यं सन्निहितस्मृतिः॥४७॥
विचार-पद्धति—आजकल मेरे रात-दिन कैसे बीत रहे हैं, मैं कैसा होता जा रहा हूँ? इस प्रकार का प्रतिदिन ध्यानपूर्वक विचार करने वाला पुरुष कभी दुःखी नहीं होता है।। ४७।।
वक्तव्य—महर्षि चाणक्य ने भी इसी प्रकार सोचने के लिए मनुष्य को बाध्य किया है—
कः काल: कानि मित्राणि को देशः कौ व्ययागमौ।
कस्याऽहं का च मे शक्तिरिति चिन्त्यं मुहुर्मुहुः ॥ (चाणक्यनीति)
इस प्रकार विचार करने वाला पुरुष अज्ञानवश हुई अपनी भूलों को सुधार सकता है। इसका परिणाम यह होता है कि वह कभी दुःखी नहीं होता।
इत्याचारः समासेन, यं प्राप्नोति समाचरन्।
आयुरारोग्यमैश्वर्यं यशो लोकांश्च शाश्वतान् ॥४८॥
इति श्रीवैद्यपतिसिंहगुप्तसूनुश्रीमद्वाग्भटविरचितायामष्टाङ्गहृदयसंहितायां
प्रथमे सूत्रस्थाने दिनचर्या नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२॥
सद्वृत्त का उपसंहार—इस प्रकार संक्षेप से आचार (सदाचार अथवा सद्वृत्त = सज्जनों का कर्तव्य) कह दिया गया है। जिसका अपने जीवन में आचरण करता हुआ पुरुष (नर-नारी) दीर्घायु, आरोग्य (उत्तम स्वास्थ्य), ऐश्वर्य (धन-सम्पत्ति), सुयश तथा स्वर्ग आदि सनातन लोकों को प्राप्त करता है।। ४८।।
वक्तव्य—इस अध्याय में मनुष्यों के हित के लिए सदाचार का संक्षेप से वर्णन किया गया है। यही मनुष्यों का प्रथम अथवा परम धर्म है। इसके सम्बन्ध में मनु ने कहा है। देखें—मनु. १११०८-११०। इस सदाचार रूपी धर्म से धन-सम्पत्ति की प्राप्ति होती है, इससे सुख मिलता है और इसी से रोगों का नाश होता है। लोक में व्याप्त अन्य धर्मों से सदाचार नामक धर्म सर्वोत्तम हैं। इसका सेवन करने से मानव-जीवन सफल हो जाता है और इसका आचरण न करने से मनुष्य का विनाश हो जाता है। अतः सभी को सदाचार का सेवन करना चाहिए।
इस प्रकार वैद्यरत्न पण्डित तारादत्त त्रिपाठी के पुत्र डॉ० ब्रह्मानन्द त्रिपाठी द्वारा विरचित निर्मला हिन्दी व्याख्या, विशेष वक्तव्य आदि से विभूषित अष्टाङ्गहृदय-सूत्रस्थान में दिनचर्या नामक दूसरा अध्याय समाप्त ॥२॥
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