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आचार्य श्रीराम शर्मा >> मैं क्या हूँ?

मैं क्या हूँ?

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15528
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अपनी आत्मा के सच्चे स्वरूप का बोध कराने वाली पुस्तक....

तीसरा अध्याय

 

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।

- गीता ३ - ४२।।

शरीर से इंद्रियाँ परे (सूक्ष्म) हैं। इंद्रियों से परे मन है मन से परे बुद्धि है और बुद्धि से परे आत्मा है। आत्मा तक पहुँचने के लिए क्रमशः सीढियाँ चढ़नी पड़ेगी। 

पिछले अध्याय में आत्मा के शरीर और इंद्रियों से ऊपर अनुभव करने के साधन बताये गए थे। इस अध्याय में मन का स्वरूप समझने और उससे ऊपर आत्मा को सिद्ध करने का हमारा प्रयत्न होगा। प्राचीन दर्शनशास्त्र मन और बुद्धि को अलग-अलग गिनता है। आधुनिक दर्शनशास्त्र मन को ही सर्वोच्च श्रेणी की बुद्धि मानता है। इस बहस में आपको कोई खास दिलचस्पी लेने की जरूरत नहीं है। दोनों का मतभेद इतना बारीक है कि मोटी निगाह से वह कुछ भी प्रतीत नहीं होता, दोनों ही मन तथा बुद्धि को मानते हैं। दोनों स्थूल मन से बुद्धि को सूक्ष्म मानते हैं।

हम पाठकों की सुविधा के लिए बुद्धि को मन की ही उन्नत कोटि में गिन लेंगे और आगे का अभ्यास कराएँगे।

अब तक आपने यह पहचाना है कि हमारे भौतिक आवरण क्या हैं? अब इस पाठ में यह बताने का प्रयत्न किया जाएगा कि असली अहम् 'मैं' से कितना परे है? वह सूक्ष्म परीक्षण है। भौतिक आवरणों का अनुभव जितनी आसानी से हो जाता है उतना सूक्ष्म शरीर में से अपने वास्तविक अहम् को पृथक् कर सकना आसान नहीं है। इसके लिए कुछ अधिक योग्यता और ऊँची चेतना होनी चाहिए। भौतिक पदार्थों से पृथकता का अनुभव हो जाने पर भी अहम् के साथ लिपटा हुआ सूक्ष्मशरीर गड़बड़ में डाल देता है। कई लोग मन को ही आत्मा समझने लगे हैं। आगे हम मन के रूप की व्याख्या न करेंगे, पर ऐसे उपाय बतायेंगे, जिससे स्थूल शरीर और भद्दे 'मैं' के टुकड़े-टुकड़े कर सको और उनमें से तलाश कर सको कि इनमें 'अहम्' कौन-सा है? और उनमें भिन्न वस्तुएँ कौन-सी हैं? इस विश्लेषण को तुम मन के द्वारा कर सकते हो और उसे इसके लिए मजबूर कर सकते हो कि इन प्रश्नों का सही उत्तर दे।

शरीर और आत्मा के बीच की चेतना मन है। साधकों की सुविधा के लिए मन को तीन भागों में बाँटा जाता है। मन के पहले भाग का नाम 'प्रवृत्त मानस' है। यह पशु, पक्षी आदि अविकसित जीवों और मनुष्यों में समान रूप से पाया जाता है। गुप्त मन और सुप्त मानस भी उसे कहते हैं। शरीर के स्वाभाविक जीवन बनाए रखना इसी के हाथ में है। हमारी जानकारी के बिना भी शरीर का व्यापार अपने आप चलता रहता है। भोजन की पाचन क्रिया, रक्त का घूमना, क्रमशः रस, रक्त, मांस, मेदा, अस्थि, वीर्य का बनना, मल त्याग, श्वास, प्रश्वास, पलकें खुलना-बंद होना आदि कार्य अपने आप होते रहते हैं। आदतें पड़ जाने का कार्य इसी मन के द्वारा होता है। यह मन देर में किसी बात को ग्रहण करता है, पर जिसे ग्रहण कर लेता है, उसे आसानी से छोड़ता नहीं। हमारे पूर्वजों के अनुभव और हमारे वे अनुभव जो पाशविक जीवन से उठकर इस अवस्था में आने तक प्राप्त हुए हैं, इसी में जमा हैं। मनुष्य एक अल्प बुद्धि साधारण प्राणी था, उस समय की ईष्र्या, द्वेष, युद्ध प्रवृत्ति, स्वार्थ, चिंता आदि साधारण वृत्तियाँ इसी के एक कोने में पड़ी रहती हैं। पिछले अनेक जन्मों के नीच स्वभाव, जिन्हें प्रबल प्रयत्नों द्वारा काटा नहीं गया है। इसी विभाग में इकट्ठे रहते हैं। यह एक अद्भुत अजायब घर है, जिसमें सभी तरह की चीजें जमा हैं। कुछ अच्छी और बहुमूल्य हैं तों कछ सड़ी-गली, भद्दी तथा भयानक भी हैं। जंगली मनुष्यों, पशुओं तथा दुष्टों में जो लाभ हिंसा, क्रूरता, आवेश, अधीरता आदि वृत्तियाँ होती हैं, वह भी सूक्ष्म रूपों से इसमें जमा हैं। यह बात दूसरी है कि कहीं उच्च मन द्वारा पूरी तरह से वे वश में रखी जाती हैं तो कहीं कम| राजस और तामसी लालसाएँ इसी मन से संबंध रखती हैं।

इंद्रियों के भोग, घमंड, क्रोध, भूख, प्यास, मैथुनेच्छा, निद्रा आदि प्रवृत्त मानस के रूप हैं

प्रवृत्त मन से ऊपर दूसरा मन है, जिसे 'प्रबुद्ध मानस' कहना चाहिए। इस पुस्तक को पढ़ते समय आप उसी मन का उपयोग कर रहे हो। इसका काम सोचना, विचारना, विवेचना करना, तुलना करना, कल्पना, तर्क तथा निर्णय आदि करना है। हाजिर जवाबी, बुद्धिमत्ता, चतुरता, अनुभव, स्थिति का परीक्षण यह सब प्रबुद्ध मन द्वारा होते हैं। याद रखो, जैसे प्रवृत्त मानस 'अहम्' नहीं है, उसी प्रकार प्रबुद्ध मानस भी वह नहीं है। कुछ देर विचार करके आप इसे आसानी के साथ 'अहम्' से अलग कर सकते हो। इस छोटी-सी पुस्तक में बुद्धि के गुण-धर्मों का विवेचन नहीं हो सकता, जिन्हें इस विषय का अधिक ज्ञान प्राप्त करना हो, वे मनोविज्ञान के उत्तमोत्तम ग्रंथों का मनन करें। इस समय इतना काफी है कि आप अनुभव कर लो कि प्रबुद्ध मन भी एक आच्छादन है न कि 'अहम्'।

तीसरे सर्वोच्च मन का नाम 'अध्यात्म मानस' है। इसका विकास अधिकांश लोगों में नहीं हुआ होता। मेरा विचार है कि आप में यह कुछ विकसने लगा है, क्योंकि इस पुस्तक को मन लगाकर पढ़ रहे हो और इसमें वर्णित विषय की ओर आकर्षित हो रहे हो। मन के इस विभाग को हम लोग उच्चतम विभाग मानते हैं और आध्यात्मिकता, आत्मप्रेरणा, ईश्वरीय संदेश, प्रतिभा आदि के नाम। से जानते हैं। उच्च भावनाएँ मन के इसी भाग में उत्पन्न होकर चेतना में गति करती हैं। प्रेम, सहानुभूति, दया, करुणा, न्याय, निष्ठा, उदारता, धर्म प्रवृत्ति, सत्य, पवित्रता, आत्मीयता आदि सब भावनाएँ इसी मन से आती हैं। ईश्वरीय भक्ति इसी मन में उदय होती है। गूढ तत्त्वों का रहस्य इसी के द्वारा जाना जाता है। इस पाठ में जिस विशुद्ध 'अहम्' की अनुभूति के शिक्षण का हम प्रयत्न कर रहे। हैं, वह इसी 'अध्यात्म मानस' के चेतना क्षेत्र से प्राप्त हो सकेगी।

परंतु भूलिए मत, मन का यह सर्वोच्च भाग भी केवल उपकरण ही है। 'अहम्' यह भी नहीं है।

आपको यह भ्रम नहीं करना चाहिए कि हम किसी मन की निंदा और किसी की स्तुति करते हैं तथा भार या बाधक सिद्ध करते हैं। बात ऐसी नहीं है। सब सोचते तो यह हैं कि मन की सहायता से ही आप अपनी वास्तविक सत्ता और आत्मज्ञान के निकट पहुँचे हो और आगे भी बहुत दूर तक उसकी सहायता से अपना मानसिक विकास कर सकोगे, इसलिए मन का प्रत्येक विभाग अपने स्थान पर बहुत अच्छा है, बशर्ते कि उसका ठीक उपयोग किया जाए।

साधारण लोग अब तक मन के नीच भागों को ही उपयोग में लाते हैं, उनके मानस-लोक में अभी ऐसे असंख्य गुप्त-प्रकट स्थान है, जिनकी स्वप्न में भी कल्पना नहीं की जा सकी है, अतएव मन को कोसने के स्थान पर आचार्य लोग दीक्षितों को सदैव यह उपदेश देते हैं कि उस गुप्त शक्ति को त्याज्य न ठहराकर ठीक प्रकार से क्रियाशील बनायें।

यह शिक्षा जो तुम्हें दी जा रही है, यह मन के द्वारा ही क्रिया रूप में आ सकती है और उसी के द्वारा समझने, धारण करने एवं सफल होने का कार्य हो सकता है, इसलिए हम सीधे आपके मन से बात कर रहे हैं, उसी से निवेदन कर रहे हैं कि महोदय ! अपनी उच्च कक्षा से आने वाले ज्ञान को ग्रहण कीजिए और उसके लिए अपना द्वार खोल दीजिए। हम आपकी बुद्धि से प्रार्थना करते हैं-भगवती ! अपना ध्यान उस महातत्त्व की ओर लगाइए और सत्य के अनुभवों, अपने आध्यात्मिक मन द्वारा आने वाली दैवी चेतनाओं में कम बाधा दीजिए।

अभ्यास

सुख और शांतिपूर्वक स्थित होकर आदर के साथ उस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए बैठो, जो उच्च मन की उच्च कक्षा द्वारा आपको प्राप्त होने को है।


पिछले पाठ में आपने समझा था कि 'मैं' शरीर से परे कोई मानसिक चीज है, जिसमें विचार, भावना और वृत्तियाँ भरी हुई हैं। अब इससे आगे बढ़ना होगा और अनुभव करना होगा कि यह विचारणीय वस्तुएँ आत्मा से भिन्न हैं।

विचार करो कि द्वेष, क्रोध, ममता, ईष्र्या, घृणा, उन्नति आदि की असंख्य भावनाएँ मस्तिष्क में आती रहती हैं। उनमें से हर एक को आप अलग कर सकते हो, जाँच कर सकते हो, विचार कर सकते हो, खंडित कर सकते हो, उनके उदय, वेग और अंत को भी जान सकते हो। कुछ दिन के अभ्यास से अपने विचारों की परीक्षा करने का ऐसा अभ्यास प्राप्त कर लोगे, मानो अपने किसी दूसरे मित्र की भावनाओं के उदय, वेग और अंत का परीक्षण कर रहे हो। ये सब भावनाएँ आपके चिंतन केंद्र में मिलेंगी। आप उनके स्वरूप का अनुभव कर सकते हो और उन्हें टटोल तथा हिलाडुलाकर देख सकते हो। अनुभव करो कि ये भावनाएँ आप नहीं हो। ये केवल ऐसी वस्तुएँ हैं जिन्हें आप मन के थैले में लादे फिरते हो। अब उन्हें त्यागकर आत्मस्वरूप की कल्पना करो। ऐसी भावना सरलतापूर्वक कर सकोगे।

उन मानसिक वस्तुओं को पृथक् करके आप उन पर विचार कर रहे हो, इसी से सिद्ध होता है कि वस्तुएँ आप से पृथक् हैं। पृथकत्व की भावना अभ्यास द्वारा थोड़े समय बाद लगातार बढ़ती जाएगी और शीघ्र ही एक महान् आकार में प्रकट होगी।

यह मत सोचिए कि हम इस शिक्षा द्वारा यह बता रहे हैं कि भावनाएँ कैसे त्याग करें? यदि आप इसी शिक्षा की सहायता से दुर्वृत्तियों को त्याग सकने की क्षमता प्राप्त कर सको, तो बहुत प्रसन्नता की बात है। पर हमारा यह मंतव्य नहीं है, हम इस समय तो यही सलाह देना चाहते हैं कि अपनी बुरी-भली सब दुर्वृत्तियों को जहाँ की तहाँ रहने दो और ऐसा अनुभव करो–'अहम्' इन सबसे परे एवं स्वतंत्र है, जब आप 'अहम्' के महान् स्वरूप का अनुभव कर लो, तब लौट आओ और उन वृत्तियों को जो अब तक आपको अपनी चाकर बनाए हुए थीं, मालिक की भाँति उचित उपयोग में लाओ। अपनी वृत्तियों को अहम् से परे के अनुभव में पटकते समय डरो मत। अभ्यास समाप्त करने के बाद फिर वापस लौट आओगे और उनमें से अच्छी वृत्तियों को इच्छानुसार काम में ला सकोगे। अमुक वृत्ति ने मुझे बहुत अधिक बाँध लिया है, उससे कैसे छूट सकता हूँ? इस प्रकार की चिंता मत करो, ये चीजें बाहर की हैं। इनके बंधन में बँधने से पहले 'अहम्' था और बाद में भी बना रहेगा, जब अपने को पृथक् करके उनका परीक्षण कर सकते हो, तो क्या कारण है कि एक ही झटके में उठाकर अलग नहीं फेंक सकोगे? ध्यान देने योग्य बात यह है कि आप इस बात का अनुभव और विश्वास कर रहे हो कि 'मैं' बुद्धि और इन शक्तियों का उपभोग कर रहा हूँ। यही 'मैं' जो शक्तियों का उपकरण मानता है, मन का स्वामी 'अहम्' है।

उच्च आध्यात्मिक मन से आई प्रेरणा भी इसी प्रकार अध्ययन की जा सकती है। इसलिए उन्हें भी अहम् से भिन्न माना जाएगा। आप शंका करेंगे कि उच्च आध्यात्मिक प्रेरणा का उपयोग उस प्रकार नहीं किया जा सकता, इसलिए संभव है कि वे प्रेरणाएँ 'अहम्' वस्तुएँ हों? आज हमें आपसे इस विषय पर कोई विवाद नहीं करना है क्योंकि आप आध्यात्मिक मन की थोड़ी-बहुत जानकारी को छोड़कर अभी इसके संबंध में और कुछ नहीं जानते, साधारण मन के मुकाबले में वह मन ईश्वरीय भूमिका के समान है। जिन तत्त्वदर्शियों ने अहम्-ज्योति का साक्षात्कार किया है और जो विकास की उच्च-अत्युच्च सीमा तक पहुँच गए हैं, वे योगी बतलाते हैं कि 'अहम्' आध्यात्मिक मन से ऊपर रहता है और उसको अपनी ज्योति से प्रकाशित करता है, जैसे पानी पर पड़ता हुआ सूर्य का प्रतिबिंब सूर्य जैसा ही मालूम पड़ता है, परंतु सिद्धों का अनुभव है कि वह केवल धुंधली तस्वीर मात्र है। चमकता हुआ आध्यात्मिक मन यदि प्रकाश बिंब है, तो 'अहम्' अखंड ज्योति है।

वह उच्च मन में होता हुआ आत्मिक प्रकाश पाता है, इसी से वह इतना प्रकाशमये प्रतीत होता है। ऐसी दशा में उसे ही 'अहम्' मान लेने का भ्रम हो जाता है, असल में वह भी 'अहम्' है नहीं। ‘अहम्' उस प्रकाश-मणि के समान है, जो स्वयं सदैव समान रूप से प्रकाशित रहती है, किंतु कपड़ों से ढंकी रहने के कारण अपना प्रकाश बाहर लाने में असमर्थ होती है। यह कपडे जैसे-जैसे हटते जाते हैं, वैसे ही वैसे प्रकाश अधिक स्पष्ट होता जाता है। फिर भी कपड़ों के हटने या उनके और अधिक मात्रा में पड़ जाने के कारण मणि के स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं होता।

इस चेतना में ले जाने का इतना ही अभिप्राय है कि 'अहम्' की सर्वोच्च भावना में जागकर आप एक समुन्नत आत्मा बन जाओ और अपने उपकरणों का ठीक उपयोग करने लगो। जो पुराने, अनावश्यक, रद्दी और हानिकर परिधान है, उन्हें उतारकर फेंक सको और नवीन एवं अद्भुत क्रियाशील औजारों को उठाकर उनके द्वारा अपने सामने के कार्यों को सुंदरता और सुगमता के साथ पूरा कर सको, अपने को सफल एवं विजयी घोषित कर सको।

इतना अभ्यास और अनुभव कर लेने के बाद आप पूछोगे कि अब क्या बचा, जिसे 'अहम्' से भिन्न न गिनें? इसके उत्तर में हमें कहना है-'विशुद्ध आत्मा।' इसका प्रमाण यह है कि अपने 'अहम्' को शरीर, मन आदि अपनी सब वस्तुओं से पृथक् करने का प्रयत्न करो। छोटी चीजों से लेकर उससे सूक्ष्म से सूक्ष्म, उससे परे से परे वस्तुओं को छोड़ते-छोड़ते विशुद्ध आत्मा तक पहुँच जाओगे। क्या अब इससे भी परे कुछ हो सकता है? कुछ नहीं। विचार करने वाला, परीक्षा करने वाला और परीक्षा की वस्तु दोनों एक वस्तु नहीं हो सकते। सूर्य अपनी किरणों द्वारा अपने ही ऊपर नहीं चमक सकता। आप विचार और जॉच की वस्तु नहीं हो। फिर भी आपकी चेतना कहती है कि 'मैं हूँ', यही आत्मा के अस्तित्व का प्रमाण है।

अपनी कल्पना शक्ति, स्वतंत्रता शक्ति लेकर इस 'अहम्' को पृथक् करने का प्रयत्न कर लीजिए, परंतु फिर भी हार जाओगे और उससे आगे नहीं बढ़ सकोगे। अपने को मरा हुआ नहीं मान सकते। यही विशुद्ध आत्मा अविनाशी, अविकारी, ईश्वरीय समुद्र का बिंदु, परमात्मा की किरण है।

हे साधक ! अपनी आत्मा का अनुभव प्राप्त करने में सफल होओ और समझो कि आप सोते हुए देवता हो। अपने भीतर प्रकृति की महान् सत्ता धारण किए हुए हो, जो कार्यरूप में परिणत होने के लिए हाथ बाँधकर खड़ी हुई आज्ञा माँग रहीं है। इस स्थान तक पहुँचने में बहुत कुछ समय लगेगा पहली मंजिल तक पहुँचने में भी कुछ देर लगेगी, परंतु आध्यात्मिक विकास की चेतना में प्रवेश करते ही आँखें खुल जाएँगी। आगे का प्रत्येक कदम साफ होता जाएगा और प्रकाश प्रकट होता जाएगा।

इस पुस्तक के अगले अध्याय में हम यह बतायेंगे कि आपकी विशुद्ध आत्मा भी स्वतंत्र नहीं, वरन् परमात्मा का ही एक अंश है और उसी में किस प्रकार ओत-प्रोत हो रही है? परंतु उस ज्ञान को ग्रहण करने से पूर्व आपको अपने भीतर 'अहम्' की चेतना लगा लेनी पड़ेगी। हमारी इस शिक्षा को शब्द-शब्द और केवल शब्द समझकर उपेक्षित मत करो, इस निर्मल व्याख्या को तुच्छ समझकर तिरस्कृत मत करो, यह एक बहुत सच्ची बात बताई जा रही है। आपकी आत्मा इन पंक्तियों को पढ़ते समय आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर होने की अभिलाषा कर रही है। उसका नेतृत्व ग्रहण को और आगे को कदम उठाओ।

अब तक बताई हुई मानसिक कसरतों का अभ्यास कर लेने के बाद 'अहम्' से भिन्न पदार्थों का आपको पूरा निश्चय हो जाएगा। इस सत्य को ग्रहण कर लेने के बाद अपने को मन एवं वृत्तियों का स्वामी अनुभव करोगे और तब उन सब चीजों को पूरे बल और प्रभाव के साथ काम में लाने की सामर्थ्य प्राप्त कर लोगे।

इस महान् तत्त्व की व्याख्या में हमारे ये विचार और शब्दावली हीन, शिथिल और सस्ते प्रतीत होते होंगे। यह विषय अनिर्वचनीय है। वाणी की गति वहाँ तक नहीं है। गुड़ का मिठास जबानी जमा-खर्च द्वारा नहीं समझाया जा सकता। हमारा प्रयत्न केवल इतना ही है कि आप ध्यान और दिलचस्पी की तरफ झुक पडो और इन कुछ मानसिक कसरतों को करने के अभ्यास में लग जाओ। ऐसा करने से मन वास्तविकता का प्रमाण पाता जाएगा और आत्मस्वरूप में दृढता होती जाएगी। जब तक स्वयं अनुभव न हो जाए, तब तक ज्ञान, ज्ञान नहीं है। एक बार जब आपको उस सत्य के दर्शन हो जाएँगे, तो वह फिर दृष्टि से ओझल नहीं हो सकेगा और कोई वाद-विवाद उस पर अविश्वास नहीं करा सकेगा।

अब आपको अपने को दास नहीं, स्वामी मानना पड़ेगा। आप शासक हो और मन आज्ञापालक। मन द्वारा जो अत्याचार अब तक आपके ऊपर हो रहे थे, उन सबको फड़फड़ाकर फेंक दो और अपने को उनसे मुक्त हुआ समझो। आपको आज राज्य सिंहासन सौंपा जा रहा है, अपने को राजा अनुभव करो। दृढतापूर्वक आज्ञा दो कि स्वभाव, विचार, संकल्प, बुद्धि, कामनाएँ रूपी समस्त कर्मचारी शासन को स्वीकार करें और नये संधिपत्र पर दस्तखत करें कि हम वफादार नौकर की तरह अपने राजा की आज्ञा मानेंगे और राज्य-प्रबंध को सर्वोच्च एवं सुंदरतम बनाने में रत्ती भर भी प्रमाद न करेंगे।

लोग समझते हैं कि मन ने हमें ऐसी स्थिति में डाल दिया है। कि हमारी वृत्तियाँ हमें बुरी तरह काँटों में घसीटे फिरती हैं और तरह-तरह से त्रास देकर दुखी बनाती हैं। साधक इन दुःखों से छुटकारा पा जावेंगे, क्योंकि वह उन सब उद्गमों से परिचित हैं।

और यहाँ काबू पाने की योग्यता संपादन कर चुके हैं। किसी बड़े मिल में सैकड़ों घोड़ों की ताकत से चलने वाला इंजन और उसके द्वारा संचालित होने वाली सैकड़ों मशीनें तथा उनके असंख्य कल पुरजे किसी अनाड़ी को डरा देंगे। वह उस घर में घुसते ही हड़बड़ा जाएगा, किसी पुरजे में धोती फँस गई तो उसे छुटाने में असमर्थ होगा और अज्ञान के कारण बड़ा त्रास पावेगा किंतु वह इंजीनियर जो मशीनों के पुरजे-पुरजे से परिचित है और इंजन चलाने के सारे सिद्धांत को भली भाँति समझा हुआ है, उस कारखाने में घुसते हुए तनिक भी न घबरावेगा और गर्व के साथ उन दैत्याकार यंत्रों पर शासन करता रहेगा, जैसा एक महावत हाथी पर और सपेरा भयंकर विषधरों पर करता है। उसे इतने बड़े यंत्रालय का उत्तरदायित्व लेते हुए भय नहीं, अभिमान होगा। वह हर्ष और प्रसन्नतापूर्वक शाम को मिल मालिक को हिसाब देगा, बढिया माल की इतनी बड़ी राशि उसने थोड़े समय में ही तैयार कर दी है। उसकी फूली हुई छाती पर से सफलता का गर्व मानों टपक पड़ रहा है। जिसने अपने 'अहम्' और वृत्तियों का ठीक-ठीक स्वरूप और संबंध जान लिया है, वह ऐसा ही कुशल इंजीनियर-यंत्र-संचालक है। अधिक दिनों का अभ्यास और भी। अद्भुत शक्ति देता है। जाग्रत मन् ही नहीं, उस समय प्रवृत्त मन, गुप्त मानस भी शिक्षित हो गया होता है और वह जो आज्ञा प्राप्त करता है, उसे पूरा करने के लिए चुपचाप तब भी काम किया करता है, जब हम दूसरे कामों में लगे होते हैं या सोए होते हैं। गुप्त मन जब उन कार्यों को पूरा करके सामने रखता है, तब नया साधक चौंकता है कि यह अदृष्ट सहायता है, अलौकिक करामात है, परंतु योगी उन्हें समझाता है कि यह आपकी अपनी अपरिचित योग्यता है, इससे असंख्य गुनी प्रतिभा तो अभी आप में सोई पड़ी है।

संतोष और धैर्य धारण करो। कार्य कठिन है, पर इसके द्वारा जो पुरस्कार मिलता है, उसका लाभ बड़ा भारी है। यदि वर्षों के कठिन अभ्यास और मनन द्वारा भी आप अपने पद, सत्ता, महत्व, गौरव, शक्ति की चेतना प्राप्त कर सको, तब भी वह करना ही चाहिए। यदि आप इन विचारों में हमसे सहमत हों, तो केवल पढ़कर ही संतुष्ट मत हो जाओ। अध्ययन करो, मनन करो, आशा करो, साहस करो और सावधानी तथा गंभीरता के साथ इस साधन-पथ की ओर चल पड़ो।

इस पाठ का बीज मंत्र

  • 'मैं' सत्ता हूँ। मन मेरे प्रकट होने का उपकरण है।

  • 'मैं' मन से भिन्न हूँ। उसकी सत्ता पर आश्रित नहीं हूँ।

  • 'मैं' मन का सेवक नहीं, शासक हूँ।

  • 'मैं' बुद्धि, स्वभाव, इच्छा और अन्य समस्त मानसिक उपकरणों को अपने से अलग कर सकता हूँ। तब जो कुछ शेष रह जाता है, वह 'मैं' हूँ।

  • 'मैं' अजर-अमर, अविकारी और एक रस हूँ।

  • 'मैं हूँ'......

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