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आचार्य श्रीराम शर्मा >> मैं क्या हूँ?

मैं क्या हूँ?

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15528
आईएसबीएन :0

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अपनी आत्मा के सच्चे स्वरूप का बोध कराने वाली पुस्तक....

दूसरा अध्याय

 

"नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहु ना श्रुतेन।

- कठोपनिषद् - २-२३

शास्त्र कहता है कि यह आत्मा प्रवचन, बुद्धि या बहुत सुनने से प्राप्त नहीं होती।

प्रथम अध्याय को समझ लेने के बाद आपको इच्छा हुई होगी कि उस आत्मा का दर्शन करना चाहिए, जिसे देख लेने के बाद और कुछ देखना बाकी नहीं रह जाता। यह इच्छा स्वाभाविक है। शरीर और आत्मा का गठबंधन कुछ ऐसा ही है, जिसमें जरा अधिक ध्यान से देखने पर वास्तविक झलक मिल जाती है। शरीर भौतिक, स्थूल पदार्थों से बना हुआ है, किंतु आत्मा सूक्ष्म है। पानी में तेल डालने पर वह ऊपर ही उठ आता है। लकड़ी के टुकड़े को तालाब में कितना ही नीचा पटको, वह ऊपर को ही आने का प्रयत्न करेगा, क्योंकि तेल और लकड़ी के परमाणु पानी की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म हैं। गरमी ऊपर को उठती है, अग्नि लपटें ऊपर को ही उठेंगी। पृथ्वी की आकर्षण शक्ति और वायु का दबाव उसे रोक नहीं सकता है। आत्मा शरीर की अपेक्षा सूक्ष्म है, इसलिए वह इसमें बँधी हुई होते हुए भी इसमें पूरी तरह घुल-मिल जाने की अपेक्षा ऊपर उठने की कोशिश करती रहती है। लोग कहते हैं कि इंद्रियों के भोग हमें अपनी ओर खींचे रहते हैं, पर यह बात सत्य नहीं है। सत्य के दर्शन कर सकने के योग्य सुविधा और शिक्षा प्राप्त न होने पर झख मारकर अपनी आंतरिक प्यास को बुझाने के लिए मनुष्य विषय भोगों की कीचड़ पीता है। यदि उसे एक बार भी आत्मानंद का चस्का लग जाता, तो दर-दर पर क्यों धक्के खाता फिरता? हम जानते हैं कि इन पंक्तियों को पढ़ते समय आपका चित्त वैसी ही उत्सुकता और प्रसन्नता का अनुभव कर रहा है, जैसी बहुत दिनों से बिछुड़ा हुआ परदेशी अपने घर-कुटुंब के समाचार सुनने के लिए आतुर होता है। यह एक मजबूत प्रमाण है, जिससे सिद्ध होता है कि मनुष्य की आंतरिक इच्छा आत्मस्वरूप देखने की बनी रहती है। शरीर में रहता हुआ भी वह उसमें घुल-मिल नहीं सकता, वरन् उचक-उचककर अपनी खोई हुई किसी चीज को तलाश करता है। बस, वह स्थान जहाँ भटकता है, यही है। उसे यह याद नहीं आती कि मैं क्या चीज ढूँढ़ रहा हूँ? मेरा कुछ खो गया है, इसका अनुभव करता है। खोई हुई वस्तु के अभाव में दुःख पाता है, किंतु माया-जाल के परदे से छिपी हुई चीज को नहीं जान पाता। चित्त बड़ा चंचल है, घड़ी भर भी एक जगह नहीं ठहरता। इसकी सब लोग शिकायत करते हैं, परंतु कारण नहीं जानते कि मन इतना चंचल क्यों हो रहा है? वह अपनी खोई हुई वस्तु के लिए हाहाकार मचा रहा है। कस्तूरी मृग कोई अद्भुत गंध पाता है और उसके पास पहुँचने के लिए दिन-रात चारों ओर दौड़ता रहता है। क्षण भर भी उसे विश्राम नहीं मिलता। यही हाल मन् का है। यदि वह समझ जाए कि कस्तूरी मेरी नाभि में रखी हुई है, तो वह कितना आनंद प्राप्त कर सके और सारी चंचलता भूल जाए।

आत्मदर्शन का मतलब अपनी सत्ता, शक्ति और साधनों का ठीक-ठीक स्वरूप अपने मानस-पटल पर इतनी गहराई के साथ अंकित कर लेना है कि वह दिन भर जीवन में कभी भी भुलाया न जा सके। तोता रटंत विद्या में आप बहुत प्रवीण हो सकते हो। इस पुस्तक में जितना कुछ लिखा है, उससे दस गुना ज्ञान आप सुना सकते हो, बड़े-बड़े तर्क उपस्थित कर सकते हो। शास्त्रीय बारीकियाँ निकाल सकते हो। परंतु ये बातें आत्ममंदिर के फाटक तक ही जाती हैं, इससे आगे इनकी गति नहीं है। रटट तोता पंडित नहीं बन सकता। शास्त्र ने स्पष्ट कर दिया कि "यह आत्मा उपदेश, बुद्धि या बहुत सुनने से प्राप्त नहीं हो सकता।” अब तक आप इतना सुन चुके हो, जितना अधिकारी भेद के कारण आम लोगों को भ्रम में डाल देता है। आज हम आपके साथ कोई बहस करने उपस्थित नहीं हुए हैं। यदि आपको यह विषय रुचिकर हो और आत्मदर्शन की लालसा हो तो हमारे साथ चले आओ, अन्यथा अपना मूल्यवान् समय नष्ट मत करो।

आत्मदर्शन की सीढ़ियों पर चढ़ने से पहले सर्वप्रथम समतल भूमि पर पहुँचना होगा। जहाँ आज आप भटक रहे हो, वहाँ से लौट आओ और उस भूमि पर स्थित हो जाओ, जिसे प्रवेश-द्वार कहते हैं। मान लो कि आपने अपने अन्य सब ज्ञानों को भुला दिया है। और नये सिरे से किसी पाठशाला में भरती होकर क, ख, ग सीख रहे हो, इसमें अपमान मत समझो। आपका अब तक का ज्ञान झूठा नहीं है। आप उर्दू खूब पढे हो और यदि हिंदी द्वारा भी लाभ प्राप्त करना चाहो तो एकदम उसका दर्शनशास्त्र नहीं पढ़ने लगोगे, वरन् वर्णमाला ही से आरंभ करोगे। हम अपने आदरणीय और ज्ञानी जिज्ञासुओं की पीठ थपथपाते हुए दो कदम पीछे लौटने को कहते हैं, क्योंकि ऐसा करने से वे प्रथम सीढ़ी पर पाँव रख सकेंगे और आसानी एवं तीव्र गति से ऊपर चढ़ेंगे।

आपको विचार करना चाहिए कि जब मैं कहता हूँ तब, 'मैं' का क्या अभिप्राय होता है? पशु-पक्षी तथा अन्य अविकसित प्राणियों में यह 'मैं' की भावना नहीं होती। भौतिक सुख-दुःख का तो वे अनुभव करते हैं, किंतु अपने बारे में कुछ अधिक नहीं सोच सकते। गधा नहीं जानता कि मुझ पर किस कारण बोझ लादा जाता है? लादने वाले के साथ मेरा क्या संबंध है? मैं किस प्रकार का अन्याय का शिकार बनाया जा रहा हूँ? वह अधिक बोझ लद जाने पर कष्ट का और हरी घास मिल जाने पर शांति का अनुभव करता है, पर हमारी तरह सोच नहीं सकता। इन जीवों में शरीर ही आत्मस्वरूप है। क्रमशः अपना विकास करते-करते मनुष्य आगे बढ़ आया है। फिर भी कितने मनुष्य हैं, जो आत्मस्वरूप को जानते हैं? तोते-रटंत दूसरी बात है। लोग आत्मज्ञान की कुछ चर्चा को सुनकर उसे मस्तिष्क में रिकॉर्ड की तरह भर लेते हैं और समयानुसार उसमें से कुछ सुना देते हैं। ऐसे आदमियों की कमी नहीं, जो आत्मा के बारे में कुछ नहीं जानते। इनमें सोचने-विचारने की शक्ति जग गई है। उनका संसार आहार, निद्रा, भय, मैथुन, क्रोध, लोभ, मोह आदि तक ही सीमित होता है। इन्हीं समस्याओं को सोचने, समझने और हल करने लायक योग्यता उन्होंने प्राप्त की होती है। मूढ़ मनुष्य भद्दे भोगों से तृप्त हो जाते हैं, तो बुद्धिमान् कहलाने वाले उनमें सुंदरता लाने की कोशिश करते हैं। मजदूर को बैलगाड़ी में बैठकर जाना सौभाग्य प्रतीत होता है, तो धनवान मोटर में बैठकर अपनी बुद्धिमानी पर प्रसन्न होता है। बात एक ही है। बुद्धि का जो विकास हुआ है, वह भोग-सामग्री को उन्नत और आकर्षक बनाने में हुआ है। समाज के अधिकांश सभ्य नागिरकों के लिए वास्तव में शरीर ही आत्मस्वरूप है। धार्मिक रूढियों का पालन मन-संतोष के लिए वे करते रहते हैं, पर उससे आत्मज्ञान का कोई संबंध नहीं। लड़की के विवाह में दहेज देना पुण्य कर्म समझा जाता है, पर ऐसे पुण्य कर्मों से ही कौन मनुष्य अपने उद्देश्य तक पहुँच सका है? यज्ञ, तप, ज्ञान, सांसारिक धर्म में लोकजीवन और समाज-व्यवस्था के लिए इन्हें करते रहना धर्म है, पर इससे आत्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। आत्मा इतनी सूक्ष्म है कि रुपया, पैसा, पूजा-पत्री, दान, मान आदि बाहरी वस्तुएँ उस तक नहीं पहुँच सकतीं, फिर इनके द्वारा उसकी प्राप्ति कैसे हो सकती है?

आत्मा के पास तक पहुँचने के साधन जो हमारे पास मौजूद हैं, वह चित्त, अंतःकरण, मन, बुद्धि आदि ही हैं। आत्मदर्शन की साधना इन्हीं के द्वारा हो सकती है। शरीर में सर्वत्र आत्मा व्याप्त है। कोई विशेष स्थान के लिए नियुक्त नहीं है, जिस पर किसी साधन विशेष का उपयोग किया जाए। जिस प्रकार आत्मा की आराधना करने में मन, बुद्धि आदि ही समर्थ हो सकते हैं, उसी प्रकार उनके स्थान और स्वरूप का दर्शन मानस-लोक में प्रवेश करने से हो सकता है। मानसिक लोक भी स्थूल लोक की तरह ही है। उसमें इसी बाहरी दुनिया की ही अधिकांश छाया है। अभी हम कलको का विचार कर रहे हैं, अभी हिमालय पहाड़ की सैर करने लगे। अभी जिनका विचार किया था, वह स्थूल कलकत्ता और हिमालय नहीं थे, वरन् मानस-लोक में स्थित उनकी छाया थी, यह छाया असत्य नहीं होती। पदार्थों का सच्चा अस्तित्व हुए बिना कोई कल्पना नहीं हो सकती। इस मानस-लोक को भ्रम नहीं समझना चाहिए। यही वह सूक्ष्म चेतना है, जिसकी सहायता से दुनिया के सारे काम चल रहे हैं। एक दुकानदार जिस परदेश से माल खरीदने जाना है, वह पहले उस परदेश की यात्रा मानस-लोक में करता है और मार्ग में कठिनाइयों को देख लेता है, तदनुसार उन्हें दूर करने का प्रबंध करता है। उच्च आध्यात्मिक चेतनाएँ मानस-लोक से आती हैं। किसी के मन में क्या भाव उपज रहे हैं? कौन हमारे प्रति क्या सोचता है? कौन संबंधी कैसी दशा में है, आदि बातों को मानस-लोक में प्रवेश करके हम अस्सी फीसदी ठीक-ठीक जान लेते हैं। यह तो साधारण लोगों के काम-काज की मोटी-मोटी बातें हुईं। लोग भविष्य को जान लेते हैं, भूतकाल का हाल बताते हैं, परोक्ष ज्ञान रखते हैं, सब ईश्वरीय चेतनाएँ मानस-लोक से आती हैं। उन्हें ग्रहण करके जीभ द्वारा प्रगट कर दिया जाता है। यदि यह मानसिक इंद्रियाँ न हुई होती, तो मनुष्य बिलकुल वैसा ही चलता-फिरता पुतला हुआ होता जैसे यांत्रिक मनुष्य विज्ञान की सहायता से यूरोप और अमेरिका में बनाए गए हैं। दस सेर मिट्टी और बीस सेर पानी के बने हुए इस पुतले की आत्मा और सूक्ष्म जगत् से संबंध जोड़ने वाली चेतना यह मानस-लोक ही समझनी चाहिए।

अब हमारा प्रयत्न होगा कि आप मानसिक लोक में प्रवेश कर चलो और वहाँ बुद्धि के दिव्य चक्षुओं द्वारा आत्मा का दर्शन और अनुभव करो। यही एक मार्ग दुनिया के संपूर्ण साधकों का है। तत्त्वदर्शन मानस-लोक में प्रवेश करके बुद्धि की सहायता द्वारा ही होता है। इसके अतिरिक्त आज तक किसी ने कोई और मार्ग अभी तक नहीं ढूंढ़ पाया है। प्रत्याहार धारणा, ध्यान और समाधि ही योग की उच्च सीढियाँ हैं। आध्यात्मिक साधक-योगी यम, नियम, आसन, प्राणायाम अनेक प्रकार की क्रियाएँ करते हैं। हठ योगी नेती, धौति, बस्ति, बज्रोली आदि करते हैं। अन्य मतावलंबियों की साधनाएँ अन्य प्रकार की हैं। ये सब शारीरिक कठिनाइयों को दूर करने के लिए हैं। शरीर को स्वस्थ रखना इसलिए जरूरी समझा जाता है कि मानसिक अभ्यासों में गड़बड़ी न हो। हम अपने साधकों को स्वस्थ शरीर रखने का उपदेश करते हैं। आज की परिस्थितियों में उन उग्र शारीरिक व्यायामों की नकल करने में हमें कोई विशेष लाभ प्रतीत नहीं होता। धुएँ से भरे हुए शहरी वायुमंडल में रहने वाले व्यक्ति को उग्र प्राणायाम करने की शिक्षा देना उसके साथ अन्याय करना है। फल और मेवे खाकर पर्वत प्रदेशीय नदियों का अमृत जल पीने वाले और इंद्रिय भोगों से दूर रहने वाले स्वस्थ साधक हठयोग के जिन कठोर व्यायामों को करते हैं, उनकी नकल करने के लिए यदि आपसे कहें, तो हम एक प्रकार का पाप करेंगे और बिना वास्तविकता को जाने उन शारीरिक तपों में उलझने वाले साधक, उस मेढकी का उदाहरण बनेगे जो घोड़ों को नाल दुकवाते देखकर आपे से बाहर हो गई थी और अपने पैरों में भी वैसी ही कील ठुकवाकर मर गई थी। स्वस्थ रहने के साधारण नियमों को सब लोग जानते हैं। उन्हें ही कठोरतापूर्वक पालन करना चाहिए। यदि कोई रोगी हो तो किसी कुशल चिकित्सक से इलाज कराना चाहिए। इस संबंध में एक स्वतंत्र पुस्तक प्रकाशित करेंगे। पर इस साधन के लिए किसी ऐसी शारीरिक योग्यता की आवश्यकता नहीं है, जिसका साधन चिरकाल में पूरा हो सकता हो। स्वस्थ रहो, प्रसन्न रहो, बस इतना ही काफी है।

अच्छा चलो, अब साधना की ओर चलें। किसी एकांत स्थान की तलाश करो। जहाँ किसी प्रकार के भय या आकर्षण की वस्तुएँ न हों, वह स्थान उत्तम है। यद्यपि पूर्ण एकांत के आदर्श स्थान सदैव प्राप्त नहीं होते, तथापि जहाँ तक हो सके निर्जन और कोलाहल से रहित स्थान तलाश करना चाहिए। इस कार्य के लिए नित नये स्थान बदलने की अपेक्षा एक जगह नियत कर लेना अच्छा है। वन, पर्वत, नदी तट आदि की सुविधा न हो, तो एक छोटा-सा स्वच्छ कमरा इसके लिए चुन लो, जहाँ आपका मन जुट जावे। इस तरह मत बैठो, जिससे नाड़ियों पर तनाव पड़े। अकड़कर, छाती या गरदन फुलाकर, हाथों को मरोड़कर या पॉवों को ऐंठकर एक-दूसरे के ऊपर चढ़ाते हुए बैठने के लिए हम नहीं कहेंगे, क्योंकि इन अवस्थाओं में शरीर को कष्ट होगा और वह अपनी पीड़ा की पुकार बार-बार मन तक पहुँचाकर उसे उचटने के लिए विवश करेगा। शरीर को बिलकुल शिथिल कर देना चाहिए, जिससे समस्त मांस-पेशियाँ ढीली हो जायें और देह का प्रत्येक कण शिथिलता, शांति और विश्राम का अनुभव करे। इस प्रकार बैठने के लिए आरामकुरसी बहुत अच्छी चीज है। चारपाई पर लेट जाने से भी काम चल जाता है, पर सिर को कुछ ऊँचा रखना जरूरी है। मसंद, कपड़ों की गठरी या दीवार का सहारा लेकर भी बैठा जा सकता है। बैठने का कोई भी तरीका क्यों न हो, उसमें यही बात ध्यान रखने की है कि शरीर रूई की गठरी जैसा ढीला पड़ जावे, उसे अपनी साज-सँभाल में जरा-सा भी प्रयत्न न करना पड़े। उस दशा में यदि समाधि चेतना आने लगे, तब शरीर के इधर-उधर लुढ़क पड़ने का भय न रहे। इस प्रकार बैठकर कुछ शरीर को विश्राम और मन को शांति का अनुभव करने दो। प्रारंभिक समय में यह अभ्यास विशेष प्रयत्न के साथ करना पड़ता है। पीछे अभ्यास बढ़ जाने पर साधक जब चाहे तब शांति का अनुभव कर लेता है, चाहे वह कहीं भी और कैसी भी दशा में क्यों न हो ! सावधान रहिए, यह दशा तुमने स्वप्न देखने या कल्पना जगत् में चाहे जहाँ उड़ जाने के लिए पैदा नहीं की है और न इसलिए कि इंद्रिय विकार इस एकांत वन में कबड्डी खेलने लगें। ध्यान रखिए अपनी इस ध्यानावस्था को भी काबू में रखना और इच्छानुवती बनाना है। यह अवस्था इच्छापूर्वक किसी निश्चित कार्य पर लगाने के लिए पैदा की गई है। आगे चलकर यह ध्यानावस्था चेतना का एक अंग बन जाती है और फिर सदैव स्वयमेव बनी रहती है। तब उसे ध्यान द्वारा उत्पन्न नहीं करना पड़ता, वरन् भय, दुःख, क्लेश, आशंका, चिंता आदि के समय में बिना यत्न के ही वह जाग पड़ती है और साधक अनायास ही उन दुःख-क्लेशों से बच जाता है।

हाँ, तो उपर्युक्त ध्यानावस्था में होकर अपने संपूर्ण विचारों को 'मैं' के ऊपर इकटठा करो। किसी बाहरी वस्त या किसी आदमी के संबंध में बिलकुल विचार मत करो। भावना करनी चाहिए कि मेरी आत्मा यथार्थ में एक स्वतंत्र पदार्थ है। वह अनंत बल वाला अविनाशी, अखंड है। वह एक सूर्य है, जिसके इर्द-गिर्द हमारा संसार बराबर घूम रहा है, जैसे सूर्य के चारों ओर नक्षत्र आदि घूमते हैं। अपने को केंद्र मानना चाहिए, सूर्य जैसा प्रकाशवान्। इस भावना को बराबर लगातार अपने मानस-लोक में प्रयत्न की कल्पना और रचना शक्ति के सहारे, मान-लोक के आकाश में अपनी आत्मा को सूर्यरूप मानते हुए केंद्र की तरह स्थित हो जाओ और आत्मा से अतिरिक्त अन्य सब चीजों को नक्षत्र तुल्य घूमती हुई देखो। वे मुझसे बँधी हुई हैं, मैं उनसे बँधा नहीं हूँ। अपनी शक्ति से मैं उनका संचालन कर रहा हूँ। फिर भी वे वस्तुएँ मेरी या मैं नहीं हूँ, लगातार परिश्रम के बाद कुछ दिनों में यह चेतना दृढ हो जाएगी।

वह भावना झूठी या काल्पनिक नहीं है। विश्व का हर एक जड़, चेतन, परमाणु बराबर घूम रहा है। सूर्य के आस-पास पृथ्वी आदि ग्रह घूमते हैं और समस्त मंडल एक अदृश्य चेतना की परिक्रमा करता रहता है। हृदयगत चेतना के कारण रक्त हमारे शरीर की परिक्रमा करता रहता है। शब्द, शक्ति, विचार या अन्य प्रकार के भौतिक परमाणुओं का धर्म परिक्रमा करते हुए आगे बढ़ना है। हमारे आस-पास की प्रकृति का यह स्वाभाविक धर्म अपना काम कर रहा है। हमसे भी जिन परमाणुओं का काम पडेगा, वह स्वभावतः हमारी परिक्रमा करेंगे, क्योंकि हम चेतना के केंद्र हैं। इस बिलकुल स्वाभाविक चेतना को भली-भाँति हृदयंगम कर लेने से आपको अपने अंदर एक विचित्र परिवर्तन मालूम पड़ेगा। ऐसा अनुभव होता हुआ प्रतीत होगा कि मैं चेतना का केंद्र हूँ और मेरा संसार, मुझसे संबंधित समस्त भौतिक पदार्थ मेरे इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं। मकान, कपड़े, जेबर, धन-दौलत आदि मुझसे संबंधित हैं, पर वह मुझमें व्याप्त नहीं, बिलकुल अलग हैं। अपने को चेतना का केंद्र समझने वाला, अपने को माया से संबंधित मानता है, पर पानी में पड़े हुए कमल के पत्ते की तरह कुछ ऊँचा उठा रहता है, उसमें डूब नहीं जाता। जब वह अपने को तुच्छ, अशक्त और बँधे हुए जीव की अपेक्षा चेतन-सत्ता और प्रकाश केंद्र स्वीकार करता है, तो उसे उसी के अनुसार परिधान भी मिलते हैं। बच्चा जब बडा हो जाता है, तो उसके छोटे कपड़े उतार दिए जाते हैं। अपने को हीन, नीच और शरीराभिमानी तुच्छ जीव जब तक समझोगे, तब तक उसी के लायक कपड़े मिलेंगे, लालच, भोगेच्छा, कामेच्छा, चाटुकारिता, स्वार्थपरता आदि गुण आपको पहनने पड़ेंगे, पर जब अपने स्वरूप को महानतम अनुभव करोगे, तब यह कपड़े निरर्थक हो जाएँगे। छोटा बच्चा कपड़े पर टट्टी कर देने में कुछ बुराई नहीं समझता, किंतु बड़ा होने पर वह ऐसा करने में घृणा करता है। कदाचित् बीमारी की दशा में वह ऐसा कर भी बैठे, तो अपने आपको बड़ा धिक्कारता है और शर्मिंदा होता है। नीच विचार, हीन भावनाएँ पाशविक इच्छाएँ और क्षुद्र स्वार्थपरता ऐसे ही गुण हैं, जिन्हें देखकर आत्मचेतना में विकसित हुआ मनुष्य घृणा करता है। उसे अपने आप वह गुण मिल गए होते हैं, जो उसके इस शरीर के लिए उपयुक्त हैं। उदारता, विशाल हृदयता, दया, सहानुभूति, सचाई प्रभृति गुण ही तब उसके लायक ठीक वस्त्र होते हैं। बड़ा होते ही मेंढक की लंबी पूँछ जैसे स्वयमेव झड़ पड़ती है, वैसे ही दुर्गुण उससे विदा होने लगते हैं और वयोवृद्ध हाथी के दाँतों की तरह सद्गुण क्रमशः बढ़ते रहते हैं।

अपने को प्रकाश केंद्र अनुभव करने के लिए तर्कों से काम न चल सकेगा, क्योंकि हमारी तर्क बहुत ही लँगड़ी और अंधी है।

तर्कों के सहारे यह नहीं सिद्ध हो सकता कि वास्तव में वही हमारा पिता है, जिसे पिताजी कहकर संबोधित करते हैं। इसलिए योगाभ्यास के दैवी अनुष्ठान में इस अपाहिज तर्क का बहिष्कार करना पड़ता है और धास्णा, ध्यान एवं समाधि को अपनाना पड़ता है। आत्मस्वरूप के अनुभव में यह तर्क-वितर्क बाधक न बनें, इसलिए कुछ देर के लिए विदा कर दो। विश्वास रखो, इन पंक्तियों का लेखक आपको भ्रम में फंसाने या कोई गलत-हानिकारक साधन बताने नहीं जा रहा है। उसका निश्चित विश्वास है और वह शपथपूर्वक आपसे कहता है कि मेरे ऊपर विश्वास रखने वाले साधक ! यह ठीक रास्ता है, मेरा देखा हुआ है। आओ, पीछे-पीछे चले आओ, आपको कहीं धकेला नहीं जाएगा, वरन् एक ठीक स्थान पर पहुँचा दिया जाएगा। साधन की विधि में बार-बार ध्यानावस्थित होकर मानस-लोक में प्रवेश करो। अपने को सूर्य समान प्रकाशवान् सत्ता के रूप में देखो और अपना संसार अपने आस-पास घूमता हुआ अनुभव करो। इस अभ्यास को लगातार जारी रखो और इसे हृदय-पट पर गहरा अंकित कर लो तथा इस श्रेणी पर पहुँच जाओ कि जब आप कहें कि 'मैं', तब उसके साथ ही चित्त में चेतना, विचार शक्ति और प्रतिभा सहित केंद्रस्वरूप चित्र भी जाग उठे। संसार पर जब दृष्टि डालो तो वह आत्म-सूर्य की परिक्रमा करता नजर आए।

उपर्युक्त आत्मस्वरूप दर्शन के साधन में शीघ्रता होने के लिए आपको हम एक और विधि बताते हैं। ध्यान की दशा में होकर अपने ही नाम को बार-बार, धीरे-धीरे, गंभीरता और इच्छापूर्वक जपते जाओ। इस अभ्यास से मन आत्मस्वरूप पर एकाग्र होने लगता है। लार्ड टेनिसन ने अपनी आत्मशक्ति को इसी उपाय से जगाया था, वे लिखते हैं-'इसी उपाय से हमने कुछ आत्मज्ञान प्राप्त किया है। अपनी वास्तविकता और अमरता को जाना है एवं अपनी चेतना के मूल-स्रोत का अनुभव कर लिया है।

कुछ जिज्ञास आत्मस्वरूप का ध्यान करते समय 'मैं' को शरीर के साथ जोड़कर गलत धारणा कर लेते हैं और साधना करने में गड़बड़ा जाते हैं। इस विघ्न को दूर कर देना आवश्यक है, अन्यथा इस पंचभूत शरीर को आत्मा समझ बैठने पर तो एक अत्यंत नीच कोटि का थोड़ा-सा फल प्राप्त हो सकेगा।

इस विघ्न को दूर करने के लिए ध्यानावस्थित होकर ऐसी भावना करो कि मैं शरीर से पृथक् हूँ। उसका उपयोग वस्त्र या औजार की तरह करता हूँ। शरीर को वैसा ही समझने की कोशिश करो, जैसा पहनने के कपड़े को समझते हो। अनुभव करो कि शरीर को त्यागकर भी आपका 'मैं' बना रह सकता है। शरीर को त्यागकर और ऊँचे स्थान से उसे देखने की कल्पना करो। शरीर को एक पोले घोंसले के रूप में देखो, जिसमें से आसानी के साथ आप बाहर निकल सकते हो। ऐसा अनुभव करो कि इस खोखले को मैं ही स्वस्थ, बलवान्, दृढ़ और गतिवान् बनाए हुए हैं, उस पर शासन करता हूँ और इच्छानुसार काम में लाता हूँ। मैं शरीर नहीं हूँ, वह मेरा उपकरण मात्र है। उसमें एक मकान की भाँति विश्राम करता हूँ। देह भौतिक परमाणुओं की बनी हुई है और उन अणुओं को मैंने ही इच्छित वेश के लिए आकर्षित कर लिया है। ध्यान में शरीर को पूरी तरह भुला दो और 'मैं' पर समस्त भावना एकत्रित करो, तब आपको मालूम पड़ेगा कि आत्मा शरीर से भिन्न है। यह अनुभव कर लेने के बाद जब आप 'मेरा शरीर' कहोगे, तो पूर्व की भॉति नहीं, वरन् एक नये ही अर्थ में कहोगे।

उपर्युक्त भावना का तात्पर्य यह नहीं है कि आप शरीर की उपेक्षा करने लगो। ऐसा करना तो अनर्थ होगा। शरीर को आत्मा का पवित्र मंदिर समझो, उसकी सब प्रकार से रक्षा करना और सुदृढ बनाए रखना आपका परम पावन कर्तव्य है।

शरीर से पथकत्व की भावना जब तक साधारण रहती है। तब तक तो साधक का मनोरंजन होता है, पर जैसे ही वह दृढ़ता  को प्राप्त होती है, वैसे ही मृत्यु हो जाने जैसा अनुभव होने लगता है और वे वस्तुएँ दिखाई देने लगती हैं, जिन्हें हम साधना के स्थान पर बैठकर खुली आँखों से नहीं देख सकते। सूक्ष्म जगत् की कुछ धुंधली झाँकी उस समय होती है और कई परोक्ष बातें एवं दैवी दृश्य दिखाई देने लगते हैं। इस स्थिति में नये साधक डर जाते हैं, उन्हें समझना चाहिए कि इसमें डरने की कोई बात नहीं है। केवल साधन में कुछ शीघ्रता हो गई है और पूर्व संस्कारों के कारण इस चेतना में जरा-सा झटका लगते ही वह अचानक जाग पड़ी है। इस श्रेणी तक पहुँचने में जब क्रमशः और धीरे-धीरे अभ्यास होता है, तो कुछ आश्चर्य नहीं होता। साधना की उच्च श्रेणी पर पहुँचकर अभ्यासी को वह योग्यता प्राप्त हो जाती है कि सचमुच शरीर के दायरे से ऊपर उठ जाए और उन वस्तुओं को देखने लगे, जो इस शरीर में रहते हुए नहीं देखी जा सकती थी। उस दशा में अभ्यासी शरीर से संबंध तोड़ नहीं देता। जैसे कोई आदमी कमरे की खिड़की में से गरदन बाहर निकालकर देखता है कि बाहर कहाँ, क्या होता है और फिर इच्छानुसार सिर को भीतर कर लेता है, यही बात इस दशा में भी होती है। नये दीक्षितों को हम अभी यह अनुभव जगाने की सम्मति नहीं देते, ऐसा करना क्रम का उल्लंघन करना होगा। समयानुसार हम परोक्ष दर्शन की भी शिक्षा देंगे। इस समय तो इसका थोड़ा-सा उल्लेख इसलिए करना पड़ा कि कदाचित् किसी को स्वयमेव ऐसी चेतना आने लगे, तो उसे घबराना या डरना न चाहिए।

जीव के अमर होने के सिद्धांत को अधिकांश लोग विश्वास के आधार पर स्वीकार कर लेते हैं। उन्हें यह जानना चाहिए कि यह बात कपोल-कल्पित नहीं है, वरन् स्वयं जीव द्वारा अनुभव में आकर सिद्ध हो सकती है। आप ध्यानावस्थित होकर ऐसी कल्पना करो कि 'हम' मर गए। कहने-सुनने में यह बात साधारण-सी मालूम पड़ती है। जो साधक पिछले पृष्ठों में दी हुई लंबी-चौड़ी भावनाओं का अभ्यास करते हैं, उनके लिए यह छोटी कल्पना कुछ कठिन प्रतीत न होनी चाहिए, पर जब आप इसे करने बैठोगे तो यही कहोगे कि यह नहीं हो सकती। ऐसी कल्पना करना असंभव है। आप शरीर के मर जाने की कल्पना कर सकते हो, पर साथ ही। यह पता रहेगा कि आपका 'मैं' नहीं मरा है, वरन् वह दूर खड़ा हुआ मृत शरीर को देख रहा है। इस प्रकार पता चलेगा कि किसी भी प्रकार अपने 'मैं' के मर जाने की कल्पना नहीं कर सकते। विचार-बुद्धि हठ करती है कि आत्मा मर नहीं सकती। उसे जीव के अमरत्व पर पूर्ण विश्वास है और चाहे जितना प्रयत्न किया जाए, वह अपने अनुभव के, त्याग के लिए उद्यत नहीं होगी। कोई आघात लंगकर या क्लोरोफार्म सँघकर बेहोश हो जाने पर भी 'मैं' जागता रहता है। यदि ऐसा न होता, तो उसे जागने पर यह ज्ञान कैसे होता कि मैं इतनी देर बेहोश पड़ा रहा हूँ। बेहोशी और निद्रा की कल्पना हो सकती है, पर जब 'मैं' की मृत्यु का प्रश्न आता है, तो चारों ओर अस्वीकृत की ही प्रतिध्वनि पूँजती है। कितने हर्ष की बात है कि जीव अपने अमर और अखंड होने का प्रमाण अपने ही अंदर दृढ़तापूर्वक धारण किए हुए है।

अपने को अमर, अखंड, अविनाशी और भौतिक संवेदनाओं से परे समझना, आत्मस्वरूप दर्शन का आवश्यक अंग है। इसकी अनुभूति हुए बिना सच्चा आत्मविश्वास नहीं होता और जीव बराबर अपनी चिरसेवित तुच्छता की भूमिका में फिसल पड़ता है, जिससे अभ्यास का सारा प्रयत्न गुड़ गोबर हो जाता है। इसलिए एकाग्रतापूर्वक अच्छी तरह अनुभव करो कि मैं अविनाशी हूँ। अच्छी तरह इसे अनुभव में लाए बिना आगे मत बढो। जब आगे बढ़ने लगो, तब भी कभी-कभी लौटकर अपने इस स्वरूप का फिर परीक्षण कर लो। यह भावना आत्मस्वरूप के साक्षात्कार में बड़ी सहायता देगी। आगे वह परीक्षण बताए जाते हैं, जिनके द्वारा अपने "अच्छेद्योऽयमदाह्येयमक्लेद्योऽशोष्य एव च। नित्यः सर्वगतस्थणुरचलोऽयं सनातनः।" (गीता २-२४) का अनुभव कर सको।

ध्यानावस्था में आत्मस्वरूप को देह से अलग करो और क्रमशः उसे आकाश, हवा, अग्नि, पानी, पृथ्वी की परीक्षा में से निकलते हुए देखो। कल्पना करो कि मेरी देह की बाधा हट गई है और अब में स्वतंत्र हो गया हूँ। अब आप आकाश में इच्छापूर्वक ऊँचे-नीचे पखेरुओं की तरह जहाँ चाहें उड़ सकते हो। हवा के वेग से गति में कुछ भी बाधा नहीं पड़ती और न उसके द्वारा जीव कुछ सूखता ही है। कल्पना करो कि बड़ी भारी आग की ज्वाला जल रही है और उसमें होकर मजे में निकल जाते हो और कुछ भी कष्ट नहीं होता है। भला जीव को आग कैसे जला सकती है? उसकी गरमी की पहुँच तो सिर्फ शरीर तक ही थी। इसी प्रकार जीवात्मा के भीतर पानी और पृथ्वी की पहुँच वैसे ही है जैसे आकाश में किसी वस्तु का अस्तित्व अर्थात् कोई भी तत्त्व आपको छू नहीं सकता और आपकी स्वतंत्रता में तनिक भी बाधा नहीं पहुँचा सकता। | इस भावना से आत्मा का स्थान शरीर से ऊँचा ही नहीं, होता, बल्कि उसको प्रभावित करने वाले पंचतत्त्वों से भी ऊपर उठता है। जीव देखने लगता है कि मैं देह ही नहीं, वरन् उसके निर्माता पंचतत्त्वों से भी ऊपर हूँ। अनुभव की इस चेतना में प्रवेश करते ही आपको प्रतीत होगा कि मेरा नया जन्म हुआ है। नवीन शक्ति का संचार अपने अंदर होता हुआ प्रतीत होगा और ऐसा भी न होगा कि पुराने वस्त्रों की तरह भय का आवरण ऊपर से हटा दिया गया है। अब ऐसा विश्वास हो जाएगा कि जिन वस्तुओं से मैं अब तक डरा करता था, वे मुझे कुछ भी हानि नहीं पहुँचा सकतीं। शरीर तक ही उनकी गति है। सो ज्ञान और इच्छाशक्ति द्वारा शरीर से भी इन भयों को दूर हटाया जा सकता है। बार-बार समझ लो। प्राथमिक शिक्षा का बीज मंत्र 'मैं' है। इसका पूरा अनुभव करने के बाद ही आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर अग्रसर हो सकोगे। आपको अनुभव करना होगा कि मेरी सत्ता शरीर से भिन्न है। अपने को सूर्य के समान शक्ति का एक महान् केंद्र देखना होगा, जिसके इर्द-गिर्द अपना संसार घूम रहा है। इससे नवीन शक्ति आवेगी, जिसे तुम्हारे साथी प्रत्यक्ष अनुभव करेंगे। तुम स्वयं स्वीकार करोगे कि अब मैं सुदृढ़ हूँ और जीवन की आँधियाँ मुझे विचलित नहीं कर सकतीं। केवल इतना ही नहीं, इससे भी आगे। अपनी उन्नति के आत्मिक विकास के साथ उस योग्यता को प्राप्त करता हआ भी देखोगे जिसके द्वारा जीवन की ऑधियों को शांत किया जाता है और उन पर शासन किया जाता है।

आत्मज्ञानी दुनिया के भारी कष्टों की दशा में भी हँसता रहेगा और अपनी भुजा उठाकर कष्टों से कहेगा—'जाओ, चले जाओ, जिस अंधकार से तुम उत्पन्न हुए हो उसी में विलीन हो जाओ।' धन्य है वह, जिसने 'मैं' के बीज मंत्र को सिद्ध कर लिया है।

जिज्ञासुओं ! प्रथम शिक्षा का अभ्यास करने के लिए अब हमसे अलग हो जाओ। अपनी मंद गति देखो, तो उतावले मत होओ। आगे चलने में यदि पाँव पीछे फिसल पड़े, तो निराश मत होओ। आगे चलकर आपको दूना लाभ मिल जाएगा। सिद्धि और सफलता आपके लिए है, वह तो प्राप्त होनी ही है। बढो शांति के साथ थोड़ा प्रयत्न करो।

इस पाठ के मंत्र

- मैं प्रतिभा और शक्ति का केंद्र हूँ।

- मैं विचार और शक्ति का केंद्र हूँ।

- मेरा संसार मेरे चारों ओर घूम रहा है।

- मैं शरीर से भिन्न हूँ।

- मैं अविनाशी हूँ, मेरा नाश नहीं हो सकता।

- मैं अखंड हूँ, मेरी क्षति नहीं हो सकती।

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