लोगों की राय

आचार्य श्रीराम शर्मा >> क्या धर्म अफीम की गोली है ?

क्या धर्म अफीम की गोली है ?

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15527
आईएसबीएन :0

Like this Hindi book 0

5 पाठक हैं

क्या धर्म अफीम की गोली है ?

सांस्कृतिक एकता का आधार-धर्म


सभ्यता और संस्कृति इस युग के दो बहुचर्चित विषय हैं। आस्थाओं और मान्यताओं को संस्कृति और तदनुरूप व्यवहार, आचरण को सभ्यता की संज्ञा दी जाती है। दुनिया में जितनी जातियाँ हैं उनकी सभ्यताएँ और संस्कृतियाँ भी हैं, किंतु यदि भारतीय दर्शन को निरीक्षक मानकर विश्लेषण करें, तो पता चलता है कि सभ्यता और संस्कृतियाँ अनेक नहीं हो सकतीं। मानवीय सभ्यता या संस्कृति कहें या चाहे जो भी नाम दें। मानवीय दर्शन सर्वत्र एक ही हो सकता है। मानवीय संस्कृति केवल एक हो सकती है, दो नहीं; क्योंकि विज्ञान कुछ भी हो, मानवीय प्रादुर्भाव का केंद्रबिंदु और आधार एक ही हो सकता है। इसका निर्धारण जीवन के बाह्य स्वरूप भर से नहीं किया जा सकता। संस्कृति को यथार्थ स्वरूप प्रदान करने के लिए अंतत: धर्म और दर्शन की ही शरण में जाना पड़ेगा।

संस्कृति का अर्थ है-मनुष्य का भीतरी विकास। उसका परिचय व्यक्ति के निजी चरित्र और दूसरों के साथ किए जाने वाले सद्व्यवहार से मिलता है। दूसरों को ठीक तरह समझ सकने और अपनी स्थिति एवं समझ धैर्यपूर्वक दूसरों को समझा सकने की स्थिति भी उस योग्यता में सम्मिलित कर सकते हैं, जो संस्कृति की देन है।

आदान-प्रदान एक तथ्य है जिसके सहारे मानवीय प्रगति के चरण आगे बढ़ते-बढ़ते वर्तमान स्थिति तक पहुँचे हैं। कृषि, पशुपालन, शिक्षा, चिकित्सा, शिल्प, उद्योग, विज्ञान, दर्शन जैसे जीवन की मौलिक आवश्यकताओं से संबंधित प्रसंग किसी एक क्षेत्र या वर्ग की बपौती नहीं है। एक वर्ग की उपलब्धियों से दूसरे क्षेत्र के लोग परिचित हुए हैं। परस्पर आदान-प्रदान चले हैं और भौतिक क्षेत्र में सुविधासंवर्द्धन का पथ-प्रशस्त हुआ है। ठीक यही बात धर्म और संस्कृति के संबंध में भी है। एक ने अपने संपर्क-क्षेत्र को प्रभावित किया है। एक लहर ने दूसरी को आगे धकेला है। लेन-देन का सिलसिला सर्वत्र चलता रहा है। मिल-जुलकर ही मनुष्य हर क्षेत्र में आगे बढ़ा है। इस समन्वय से धर्म और संस्कृति भी अछूते नहीं रहे हैं। उन्होंने एकदूसरे को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से प्रभावित किया है।

अब दुनिया में कोई नसल ऐसी नहीं बची जो पूरी तरह रक्त शुद्धि का दावा कर सके। जातियों के बीच प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से रोटी-बेटी के व्यवहार चलते रहे हैं और नसलों के मूलरूप में आश्चर्यजनक परिवर्तन हो गया है। भारतवंशी लोगों के रक्त में आर्य और द्रविड़ रक्त का सम्मिश्रण इतना अधिक हुआ है कि दोनों से मिलकर एक तीसरी अथवा संयुक्त जाति बन गई है। इसी प्रकार एक सभ्यता पर दूसरी सभ्यता के निकट आने का भारी प्रभाव पड़ा है। भारत में पिछले एक हजार वर्ष से मुस्लिम और ईसाई सभ्यताएँ आती रही हैं। उनके पूर्ण अनुयायी कितने बने, यह बात पृथक है। सामान्य जनमानस ने उनका बहुत कुछ प्रभाव ग्रहण किया है। प्रचलित भारतीय पोशाक ऐसी नहीं है। जिसे दो हजार वर्ष पुरानी कहा जा सके। इसी प्रकार रीति-रिवाजों एवं मान्यताओं में भी अनजाने ऐसे तत्त्वों का समावेश होता रहा है, जिसे खुले मन से न सही, हिचकिचाहट के साथ समन्वय स्वीकार किया जा सके।

यह सभ्यताओं का समन्वय एवं आदान-प्रदान उचित भी है और आवश्यक भी। कट्टरता के कटघरे में मानवीय विवेक को कैद रखे रहना असंभव है। विवेक-दृष्टि जाग्रत होते ही इन कटघरों की दीवारें टूटती हैं और जो रुचिकर या उपयोगी लगता है, उसका बिना किसी प्रचार या दबाव के आदान-प्रदान चल पड़ता है। इसकी रोक-थाम के लिए कट्टरपंथी प्रयास सदा से हाथ-पैर पीटते रहे हैं, पर यह कठिन ही रहा है। हवा उन्मुक्त आकाश में बहती है। सरदी-गरमी का विस्तार-व्यापक क्षेत्र में होता है। इन्हें बंधनों में बाँधकर कैदियों की तरह अपने ही घर में रुके रहने के लिए बाधित नहीं किया जा सकता। संप्रदायों और सभ्यताओं में भी यह आदान-प्रदान अपने ढंग से चुपके-चुपके चलता रहा है। भविष्य में इसकी गति और भी तीव्र होगी।

धर्म और संस्कृति के बारे में तो कुछ कहना ही व्यर्थ है, वे दोनों ही सार्वभौम हैं, उन्हें सर्वजनीन कहा जा सकता है। मनुष्यता के टुकड़े नहीं हो सके। सज्जनता की परिभाषा में बहुत मतभेद नहीं हैं। शारीरिक संरचना की तरह मानवीय अंत:करण की मूलसत्ता भी एक ही प्रकार की है, भौतिक प्रवृतियाँ भी लगभग एक-सी हैं। एकता व्यापक है और शाश्वत। पृथकता सामयिक है और क्षणिक। हम सब एक ही पिता के पुत्र हैं। एक ही धरती पर पैदा हुए हैं। एक ही प्रकाश के नीचे रहते हैं। एक ही सूर्य से गरमी पाते हैं और बादलों के अनुदान से एक ही तरह अपना गुजारा करते हैं। फिर कृत्रिम विभेद से बहुत दिनों तक बहुत दूरी तक किस प्रकार बँधे रह सकते हैं? औचित्य को आधार मानकर परस्पर आदान-प्रदान का द्वार जितना खोलकर रखा जाएगा उतना ही स्वच्छ हवा और रोशनी का लाभ मिलेगा। खिड़कियाँ बंद रखकर हम अपनी विशेषताओं को न तो सुरक्षित रख सकते हैं और न स्वच्छ हवा और खुली धूप से मिलने वाले लाभों से लाभान्वित हो सकते हैं। संकीर्णता अपनाकर पाया कम और खोया अधिक जाता है।

एकता की दिशा में हम आगे बढ़े, तो इसमें पूर्वजों के प्रति अनास्था ही नहीं, वरन् श्रद्धा की ही अभिव्यक्ति है। पूर्वज अपने पूर्वजों की विरासत को कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार करते हुए भी अपने बुद्धिबल और बाहुबल से नए अनुभव एकत्रित करते, लाभ कमाते और साधन जुटाते रहे हैं। इसमें पूर्वजों को संतोष ही हो सकता है, साथ ही गर्व भी। अपनी संतान पर कोई अभिभावक यह बंधन नहीं लगाता कि हमसे अधिक शिक्षा या संपत्ति संतान को नहीं वहाँ उसके प्रति अत्युत्साह और दुराग्रह में विद्वेष के विषबीज भी कम मात्रा में भरे हुए नहीं हैं। यूरोप में ईसाई धर्म के प्रति और एशिया में इस्लाम धर्म के प्रति अत्युत्साह ने जिस निष्ठुरता का परिचय दिया है, उससे उन संस्कृति प्रेमियों का गौरव बढ़ा नहीं। उन धर्मों की गरिमा अंत:करण की गहराई में प्रवेश न कर सकी, यद्यपि बहुतों ने भयभीत होकर अथवा लोभ-लाभ की दृष्टि से उन्हें स्वीकार अवश्य कर लिया।

संस्कृति शब्द को सभ्यता से पृथक रखा जा सके तो अर्थ का अनर्थ होने से बच सकता है। धर्म और संप्रदाय के संबंध में भी यही बात होनी चाहिए। धर्म एक चीज है और संप्रदाय दूसरी। संप्रदायवादधर्मतत्त्व का समर्थक ही हो, यह आवश्यक नहीं। बहुत-सी रिवाजे एवं मान्यताएँ ऐसी हो सकती हैं, जो प्राचीन होने के साथ-साथ लोकप्रिय बन गई हों और अनेक व्यक्ति उनके समर्थक अनुयायी हों, इतने पर भी उनका बहुत-सा पक्ष धर्मभावना के मूलसिद्धांतों से मेल न खाता हो। भारतीय समाज को ही लें। जात-पाँति के नाम पर ऊँच-नीच की भावना और नर-नारी की असमानता की मान्यता गहराई तक लोगों के मन में उतर गई है। नीति और न्याय की दृष्टि से उसका तनिक भी औचित्य नहीं है। फिर भी परंपरागत अभ्यास के कारण उसकी जड़ें इतनी नीची चली गई हैं, जो काटे नहीं कटतीं। इसी प्रकार हिंदू धर्म में अथवा अन्य धर्मों में ऐसे ही प्रचलन हो सकते हैं। देवताओं के सामने पशु-बलि चढ़ाया जाना, धर्म की मूल मान्यताओं से, उच्चस्तरीय आदर्शों से मेल नहीं खाता, फिर भी उसे अनेक धर्मों में मान्यता प्राप्त है।

जिस प्रकार संप्रदाय को धर्म का कलेवर भर कह सकते हैं, वैसे ही सभ्यताओं में संस्कृति के कुछ तत्त्व झाँकते हुए देखे जा सकते हैं। वस्त्र, आभूषण, वेश-विन्यास देखकर किसी व्यक्ति के संबंध में बहुत कुछ जानकारियाँ मिल सकती हैं, फिर भी उस आवरण को पूरा व्यक्तित्व नहीं कहा जा सकता है। धर्म एक तत्त्वज्ञान है जिसमें उत्कृष्ट चिंतन और आदर्श कर्तृत्व की दिशा में मनुष्य को अग्रगामी बनाने के लिए कुछ नीति-नियमों का निर्धारण है। संप्रदाय उस दृष्टिकोण को मानने वाले समुदाय के रहन-सहन का तरीका है। यह तरीका मात्र आदर्शों से ही प्रेरित नहीं होता, वरन् परिस्थितियों, साधनों एवं परंपराओं पर आधारित होता है, उसमें धर्मतत्त्व के सिद्धांत भी किसी मात्रा में घुले-मिले हो सकते हैं। पर कोई समूचा संप्रदाय समूचे धर्मतत्त्व का प्रतिनिधित्व नहीं करता। उसमें दूसरी चीजों का भी समावेश हो सकता है। किसी संप्रदाय का कट्टर अनुयायी सच्चे अर्थों में धर्मात्मा भी होगा, यह नहीं कहा जा सकता। ठीक इसी प्रकार अनेकानेक सभ्यताओं में भी मानवीय संस्कृति की झलक मिल सकती है, पर कोई सभ्यता पूरी तरह सुसंस्कृत होने का दावा नहीं कर सकती। यदि ऐसा ही होता तो फिर पृथकता से लेकर विरोध तक के ऐसे तत्त्व कहीं दिखाई न पड़ते जिनसे टकराव की स्थिति पैदा होती हो।

संस्कृति देश और जाति में विभाजित नहीं हो सकती। वह मानवीय है और सार्वभौम है। दूसरे अर्थों में उसे मनुष्यता-मानवीय गरिमा के अनुरूप उच्चस्तरीय श्रद्धा, सद्भावना कह सकते हैं। इसके प्रकाश में मनुष्य परस्पर स्नेह-सौजन्य के बंधनों में बँधते हैं। सहिष्णु बनते हैं। एकदूसरे के निकट आते और समझने का प्रयत्न करते हैं। विभेद की खाई पाटते हैं, पर सभ्यताओं के संबंध में ऐसा नहीं कहा जा सकता। वे क्षेत्रों-जातियों, मान्यताओं और परिस्थितियों का कलेवर ओढ़े रहने से स्पष्टतः एकदूसरे से बहुत हद तक पृथक दीखती हैं और कितनी ही बातों में उनके बीच साधारण मतभेद भी हैं। सभ्यताएँ टकराती हैं। एक सभ्यता के अनुयायी दूसरे लोगों को अपने झंडे के तले लाने के लिए उचित ही नहीं, अनुचित उपाय भी काम में लाते हैं। अपनी सभ्यता को दूसरों की सभ्यता के आक्रमण से बचाने के लिए लोग सुरक्षा के लिए भारी प्रयत्न करते हैं। ऐसे उपाय सोचते हैं जिनसे परस्पर घुलने-मिलने और आदान-प्रदान के अवसर न आने पाए। धर्मों के बीच कट्टरता इस हद तक देखी जाती है कि दूसरे धर्म के पूजा-उपचारों में सम्मिलित होने पर भी प्रतिबंध रहता है। इसी प्रकार एक सभ्यता वाले पृथक दूसरी सभ्यता वालों के वेश-विन्यास तक को अस्वीकार करते हैं। विचारों की तुलनात्मक समीक्षा करने की तो उनमें गुंजाइश ही नहीं रहती। अपना सो सर्वश्रेष्ठ, दूसरों का सो निकृष्टतम। यही अहंकार बुरी तरह छाया रहता है। सभ्यतानुयायी और धर्मावलम्बी कहलाने वाले व्यक्ति ही इस पक्षपात के सर्वाधिक शिकार पाए जाते हैं।

संस्कृति सौंदर्योपासना है। एक भावभरी उदात्त दृष्टि रहे। वन, उपवनों, नदी, तालाबों, प्राणियों, बादलों, तारकों जैसी सामान्य वस्तुओं का जब सौंदर्य पारखी दृष्टि से देखा जाता है तो वे अंतरात्मा में आह्लाद उत्पन्न करती हैं। श्रद्धा के आरोपण से पत्थर में भगवान पैदा होते हैं। सांस्कृतिक चिंतन से हम इस संसार को भगवान का विराट स्वरूप और अपने कलेवर को ईश्वर के मंदिर जैसा पवित्र अनुभव कर सकते हैं। जहाँ ऐसी दृष्टि होगी, वहाँ दूसरों से सद्व्यवहार करने और अपनी उत्कृष्टता बनाए रखने की ही आकांक्षा बनी रहेगी और उसे जितना कार्यान्वित करना बन पड़ेगा, उतना ही अपना और दूसरों का सच्चा हितसाधन बन पड़ेगा। सुसंस्कृत दृष्टिकोण अपनाकर मनुष्य अपने देवत्व को विकसित करने और वातावरण को सुख-शांति से भरा-पूरा बनाने में आशाजनक सफलता प्राप्त कर सकता है।

विचारक इलियट ने अपने ग्रंथ 'संस्कृति का पर्यवेक्षण' में लिखा है-''संस्कृति का स्वरूप मानवीय उत्कृष्टता के अनुरूप आचरण करने के लिए विवश करने वाली आस्था है। जिसका अंत:करण इस रंग में जितनी गहराई तक रँगा हुआ है, वह उतना ही सुसंस्कत है।''

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book