आचार्य श्रीराम शर्मा >> कुछ धार्मिक प्रश्नों का उचित समाधान कुछ धार्मिक प्रश्नों का उचित समाधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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कुछ धार्मिक प्रश्नों का उचित समाधान
दान में विवेक की आवश्यकता
भिक्षा वृत्ति एक प्रकार का महान् उत्तरदायित्व है, जिसका भार उठाने के लिए बिरले ही व्यक्तियों को साहस होना चाहिए। शास्त्रकारों ने भिक्षा की अग्नि से उपमा दी है। जैसे अग्नि को बड़ी सावधानी से स्पर्श करने की, पूरी सतर्कता के साथ यथोचित स्थान में रखने की और विवेकपूर्वक प्रयोग में लाने की आवश्यकता होती है, वैसे ही भिक्षा को ग्रहण करना, ग्रहण करके उसे रखना और फिर उसे उपयोग में लाना बहुत ही सावधानी का काम है। जिस प्रकार थोड़ी सी असावधानी बरतने पर अग्नि की एक छोटी सी चिनगारी बड़े भयंकर, घातक परिणाम उपस्थित कर देती है, वही हाल भिक्षा का है। यदि इस 'अग्नि वृत्ति' का थोड़ा भी गलत उपयोग किया जाय तो बड़े व्यापक पैमाने पर भयानक अनिष्ट उत्पन्न हुए बिना नहीं रहते।
(१) यज्ञार्थाय और (२) विपद् वारणाय-इन दो कार्यों के लिए ही शास्त्रकारों ने भिक्षा का विधान किया है। इन दो कार्यों के लिए ही भिक्षा दी जानी चाहिए। यज्ञ का अर्थ है-पुण्य, परोपकार, सत्कार्य, लोक कल्याण सुख-शांति की वृद्धि सात्विकता का उन्नयन। जिन कार्यों से समाष्टि की-जनता की-संसार में श्रेय और अभ्युदय की अभिवृद्धि होती हो, उन लोकोपयोगी कार्यों के लिए भिक्षा ली जानी चाहिए। शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग, सहयोग, सुख, सुविधा बढ़ाने के कार्यों के लिए जो प्रयत्न किये जाते हैं वे तथा मानवीय स्वभाव में सत् तत्व को, प्रेम, त्याग, उदारता, क्षमा, विवेक, धर्मपरायणता, ईश्वर प्रणिधान, दया, उत्साह, श्रम, सेवा, संयम आदि सद्गुणों को बढ़ाने के लिए जो प्रयत्न किये जाते हैं-इन दोनों ही प्रकार के कार्यों को, अनुष्ठान को यज्ञ कहा जाता है। आजकल अनेक संस्थाऐं इस प्रकार के कार्य कर रही हैं। प्राचीन समय में कुछ व्यक्ति ही जीवित संस्था के रूप में जीवन भर एक निष्ठा से काम करते थे। स्वर्गीय श्री गणेशशंकर विद्यार्थी की मृत्यु पर महात्मा गांधी ने कहा था कि 'विद्यार्थी जी एक संस्था थे।' जिनका जीवन निष्ठा पूर्वक, सब प्रकार के प्रलोभनों और भयों से विमुक्त होकर यज्ञार्थ लोक सेवा के लिए लगा रहता है वे व्यक्ति भी संस्था हैं। प्राचीन समय में ऐसे यज्ञ रूप ब्रह्म परायण व्यक्तियों को ऋषि, मुनि, ब्राह्मण, पुरोहित, आचार्य, योगी, संन्यासी आदि नामों से पुकाराते थे। जैसे संस्थाओं की स्थापना के लिए आजकल दफ्तर कायम किये जाते हैं और इन दफ्तरों का मकानभाड़ा खर्च करना होता है, उसी प्रकार उन 'संस्था रूप व्यक्तियों', ऋषियों की आत्मा के रहने के मकान उनके शरीर का मकान भाड़ा भोजन, वस्त्र आदि का निर्वाह व्यय, खर्च करना पड़ता था। जैसे मकान भाड़े के लिए और संस्थाओं के अन्य कार्यों के लिए धन जमा किया जाता है, वैसे ही दान, पुण्य, भिक्षा आदि द्वारा उन ऋषि संस्थाओं को पैसा वअन्य वस्तुऐं दी जाती थीं। उन ऋषियों का व्यक्तित्व उच्च, अधिक उच्च, इतना उच्च होता था जिसके सम्बन्ध में किसी प्रकार के संदेह की कल्पना तक उठने की गुंजायश न होती थी। इसलिए जनता उन्हें पैसा आदि देकर उनके सदुपयोग के संबंध में पूर्णतया निश्चिंत रहती थी, उसका हिसाब जाँचने की आवश्यकता न समझती थी। ऋषि लोग भिक्षा द्वारा प्राप्त धन का उत्तम से उत्तम सदुपयोग स्वयं ही कर लेते थे।
देवपूजन, दान-दक्षिणा आदि के नाम पर लोग स्वयमेव समय-समय पर कई बहानों से संस्कार, पर्व, कथा, तीर्थ, पूजा, अनुष्ठान, व्रत, उद्यापन आदि के समय ब्राह्मणों को दान देते थे। उन ब्रह्म परायण संस्था व्यक्ति-ब्राह्मणों के द्वारा होने वाले लोकोपयोगी कार्यों से जनता पूरी तरह प्रभावित रहती थी और उनकी आवश्यकताओं का ध्यान रखते हुए उनके लिए समुचित साधन जुटाने के लिए धन व्यवस्था करने में कोई कमी नहीं रहने देती थी।
व्यक्तिगत रूप से इन ब्राह्मणों की आवश्यकताऐं बहुत ही स्वल्प होती थीं। पीपल के छोटे-छोटे फल-पिप्पली खाकर निर्वाह करने वाले पिप्पलाद ऋषि थे। खेत काटने पर जो अन्न के दाने खेतों में फैले रह जाते थे, उन्हें बीनकर वे गुजारा कर लेते थे। रहने को फूस की झोंपड़ी, पहनने को कटिवस्त्र, भोजन में कंद-मूल, इस निर्वाह को जुटा लेना कुछ खर्चीला न था। दान-दक्षिणा में प्राप्त धन वे लोग प्राय: लोकोपकारी कार्यों के लिए ही लगा देते थे। तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय, जिनमें तीस-तीस हजार छात्र पढ़ते वे और एक-एक हजार आचार्य पढ़ाते थे, एक दो नहीं सैकड़ों की संख्या में थे, जहां छात्रों और गुरुजनों का भोजन व्यय उन विश्वविद्यालयों की ओर से उठाया जाता था। यह धन दान द्वारा ही प्राप्त होता था। सर्जरी और चिकित्सा के सर्वोत्तम साधनों से सम्पन्न वृहत्तम अस्पताल इन ऋषियों द्वारा चलते थे। ज्योतिष, मनोविज्ञान, योग, धर्म, शिक्षा, नीति, कृषि, वाणिज्य, पशुपालन, शिल्प, राजनीति आदि के संबंध में उन ऋषियों की विचार सभाऐं बैठती थीं और महत्वपूर्ण अनुसंधान करके तत्सम्बन्धी खोजों को ग्रन्थों के रूप में, उपदेशों के रूप में अनुभव शालाओं के रूप में जनता के सामने उपस्थित करते थे। वायुयान, जलयान, रेडियो, युद्ध अस्त्र, रसायन आदि नाना प्रकार के वैज्ञानिक अनुसंधान करने के लिए ऋषियों के आश्रमों में ही प्रयोगशालाऐं रहती थीं। उनमें सदैव वैज्ञानिक अनुसंधान होते रहते थे। इस प्रकार के कार्यों का व्यय इस दान पर ही निर्भर रहता था।
वे प्रात:स्मरणीय ब्राह्मण लोग केवल जनता के द्वारा दिये जाने वाले दान पर ही निर्भर न रहते थे, वरन् उनके घरों पर जाकर द्वार-द्वार पर भिक्षा माँगते थे। इस भिक्षाटन में बड़ा भारी रहस्य, महत्व और लाभ सन्निहित होता था। भिक्षा प्रयोजन को लेकर महात्मा लोग उन व्यक्तियों के घर पर भी स्वयमेव पहुंचते थे जो सत्संग के लिए ऋषि आश्रमों में पहुँचने का समय नहीं निकाल पाते थे। इन घरों में जाकर वे अधिक से अधिक पांच ग्रास तक भिक्षा ग्रहण करते थे, इससे अधिक इसलिए नहीं लेते थे कि देने वाले पर अधिक भार न पड़े, उसकी आर्थिक स्थिति को आघात न पहुँचे। भिक्षा लेकर वे चम्पत न हो जाते वरन् दाता के घर की स्थिति मालूम करते थे और उसकी कठिनाइयों को हल करने को महत्वपूर्ण पथ प्रदर्शन करते थे। कहना न होगा कि इस प्रकार का भिक्षाटन उन लोगों का स्वर्ण सौभाग्य होता था जिनके घर पर ऐसे भिक्षुक जा पहुंचते थे। दो चार ग्रास अन्न देना या लेना कुछ महत्व नहीं रखता पर इस बहाने थोड़े समय के लिए भी उन्हें उन महात्माओं को अपने दरवाजे पर पधारने का सौभाग्य मिल जाता था, वे उनके बहुमूल्य उपदेशों से कृतकृत्य हो जाते थे। बीमारी, गरीबी, क्लेश, कलह, अनीति, भीति, भ्रान्ति आदि की दारुण कठिनाइयों से वह सत्संग, गृहस्थों को अनायास ही पार लगा देता था। आज वकील, डाक्टर, लीडर, वैज्ञानिक, प्रोफेसर आदि की सलाह या सेवा लेनी हो तो उसके बदले उनकी खुशामद के लिए मोटी रकम अदा करनी पड़ती है, परन्तु उस समय इन सब योग्यताओं के भण्डार ऋषि लोग पाँच ग्रास भिक्षा मांगने के लिए जनता जनार्दन के द्वार-द्वार पर पहुँचते थे और इस बहाने से जनता को अपनी बहुमूल्य सम्मत्तियों से उपकृत करते थे।
इसके अतिरिक्त भिक्षा के दो और भी प्रयोजन हैं। एक तो यह कि दान देने से देने वाले को त्याग का, परोपकार का, पुण्य का आत्म संतोष प्राप्त होता था, दूसरा यह कि उन ऋषि कल्प ब्राह्मणों को अपने अभिमान एवं अहंकार के परिमार्जन करते रहने का अवसर मिलता था। भीख मांग कर जीविका ग्रहण करने से विनय, नम्रता, निरभिमानता, कृतज्ञता एवं ऋणी होने का भाव उनके मन में जागृत बना रहता था। वे अपने में लोक सेवक, परोपकारी तथा महात्मा होने की अहम्मन्यता उत्पन्न न होने देने के लिए भिक्षुक की तुच्छ स्थिति ग्रहण करते थे। ऐसे भिक्षुकों को दान देते हुए देने वाले अपना मान अनुभव करते थे और लेने वाले निरभिमान बनते थे। इससे उन दोनों के बीच सुदृढ़ सौहार्द्र उत्पन्न होता था। भिक्षा वृत्ति करने वाले की अपेक्षा देने वाले को ही अधिक लाभ रहता था। इस परमार्थ और लोकहित की भावना से ब्रह्म जीवी महात्माओं के लिए भिक्षा का विधान किया गया था।
इस प्रकार यज्ञार्थ भिक्षा ब्राह्मणों द्वारा ग्रहण की जाती थी। वे इस प्राप्त हुए धन को लोक कल्याण के जनता की सुख-समृद्धि की वृद्धि के कार्यों में व्यय करते थे। अपना शरीर और मन उन्होंने परमार्थ में लगा रखा होता था। इन शरीरों की क्षुधा, तृषा, शील, धूप निवारण से रक्षा के लिए भी कुछ व्यय हो जाता था तो वह भी यज्ञ की आहुति के समान ही फलदायक होता था। ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा या भिक्षा देने का यही वास्तविक तात्पर्य था। ब्राह्मण इसीलिए भिक्षा जीवी होते थे। जो व्यक्ति या जो संस्था लोकहित के कार्यों में लगे हैं, वे ब्राह्मण हैं, उन्हें भिक्षा माँगने या प्राप्त करने का अधिकार है। यज्ञार्थ भिक्षा उचित है, शास्त्र सम्मत है। ब्रह्म कार्यों के लिए या ब्रह्मजीवी व्यक्तियों के लिए भिक्षा का प्रयोजन धर्म सम्मत है।
इसके अतिरिक्त दूसरी श्रेणी 'विपद् वारणाय' है। संकटग्रस्तों का संकट दूर करने के लिए सहायता देना मानवीय अन्तःकरण का दैवी स्वभाव है। इस दैवी तत्व को सुरक्षित रखने एवं विकसित करने के लिए मनुष्य में दया उत्पन्न होती है। दुखियों का दुःख देखकर हर एक सच्चे मनुष्य का हृदय करुणा से पूरित हो जाता है और आंखें छलक पड़ती हैं। इस दैवी प्रेरणा को तृप्त करने से ही मनुष्य परमात्मा के निकट पहुँचता है। दूसरों को कष्ट में देखकर जो लोग अपना कलेजा पत्थर का कर लेते हैं, निष्ठुरता धारण कर लेते हैं, अनुदारता एवं स्वार्थपरता में निमग्न होकर उनकी ओर उपेक्षा प्रकट करते हैं, ऐसे मनुष्य असुरता को प्राप्त होकर नर पिशाच का जीवन बिताते हैं। पीड़ितों की सहायता करना, दुखियों को दुःख से छुड़ाना आवश्यक है। इसके लिए शरीर से, बुद्धि से, धन से जैसे भी बन पड़े सहायता करनी चाहिए। 'विपद् वारणाय' भिक्षा देनी चाहिए।
अग्निकाण्ड, जल प्रवाह, अकाल, चोरी, आक्रमण, अन्याय, दुदैंय आदि किसी आकस्मिक कारण से जो लोग असहाय हो गये हैं, जिनकी अपनी सामर्थ्य नष्ट हो गई हो, गिर पड़े हों, अपने पैर पर आप खड़े न हो सकते हों उनको सहायता देने की आवश्यकता है। जिनका शरीर एवं मस्तिष्क उपार्जन शक्ति के लिए बिलकुल अनुपयुक्त हो गया हो, उनको सहायता देने की जरूरत है। इस प्रकार के व्यक्तियों को पैसे की सहायता जरूरी होती है। परन्तु अन्य अनेक प्रकार के पीड़ित ऐसे हैं, जिन्हें पैसे की नहीं, शरीर एवं बुद्धि की सहायता आवश्यक होती है। शोक, चिन्ता, उद्विग्नता, क्लेश, कलह, निराशा, भय, ईर्ष्या, क्रोध, लोभ, तृष्णा, अहंकार, भ्रम, अज्ञान आदि मानसिक संकटों से अनेक मनुष्य ग्रसित होते हैं। वे उतना ही कष्ट पाते हैं जितना कि कठिन रोगों के रोगियों को कष्ट होता है। ऐसे लोगों की पैसे से सहायता हो जाय तो कुछ भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता, उनके लिए बुद्धि द्वारा, विवेक द्वारा जो सहायता पहुंचाई जाती है, वही सच्ची सहायता है। जिनके पास पैसा है, जो आसानी से अपने स्वास्थ्य के लिए पर्याप्त पैसा खर्च कर सकते हैं, उन्हें मुफ्त दवा बांटना निरर्थक है। उन्हें उपयोगी चिकित्सा विधि का मार्ग बताना एवं उस मार्ग तक पहुँचने में क्रियात्मक सहायता देना पर्याप्त है। किसी करोड़पति अमीर को तपैदिक हो जाय तो उसे मुफ्त दवा की आवश्यकता नहीं, उत्तम चिकित्सक तथा उत्तम चिकित्सा स्थान के परिचय की आवश्यकता है। इस प्रकार की सहायता देना और उपयुक्त साधन से मिला देना पर्याप्त है।
गरीब आदमी को पैसा देने मात्र से काम नहीं चलता। उसे गरीबी से छुड़ाने के लिए किसी कारोबार में लगा देना होगा। बहुत से ऐसे गरीब हैं जिनकी शारीरिक योग्यताऐं कुछ काम करने योग्य हैं, बहुत से मनुष्य अंग-भंग, अंधे, असमर्थ भी होते हैं जो शरीर के अन्य अंगों से काम लेकर जीविका उपार्जन कर सकते हैं। जैसे लंगड़े आदमी हाथ से हो सकने वाले धंधे कर सकते हैं। अंधे, गूँगे, बहरे, कुबड़े भी किसी न किसी प्रकार की मजूरी कर सकते हैं। जिनके शारीरिक अंग असमर्थ हैं, उन्हें यदि पढ़ा-लिखा दिया जाय तो वे वाणी, विचार और बुद्धि से हो सकने वाले अध्यापकी आदि कार्य कर सकते हैं। गरीबों या असमर्थों को तात्कालिक, आरंभिक कुछ सहायता की आवश्यकता अवश्य होती है पर उनकी सच्ची सहायता यह है कि उन्हें समझा-बुझा कर काम करने, स्वतंत्र जीविका उपार्जन के लिए तैयार किया जाय और उनके उपयुक्त काम ढूँढ़ देने की व्यवस्था बनाई जाय। इसी प्रकार अग्निकाण्ड, जल प्रवाह, अकाल, आक्रमण, चोरी आदि से पीड़ित व्यक्तियों को आरंभ में तात्कालिक सहायता पहुँचाने के बाद अपने पैरों पर खड़ा होने योग्य बनाने में मदद करनी चाहिए। विपत्ति में पड़े हुए व्यक्तियों को आरंभ में कुछ धन की सहायता आवश्यक होती है। परन्तु वस्तुत: उन्हें उठाकर खड़े कर देने के लायक साधन और मनोबल देने की अधिक जरूरत रहती है।
स्थायी रूप से उन विपद् ग्रस्तों को भिक्षावृत्ति ग्रहण करने का अधिकार है जो शरीर और बुद्धि की दृष्टि से बिलकुल असमर्थ हैं। जिनको निकट कुटुम्बियों से सहायता प्राप्त करने की भी सुविधा नहीं है। अनाथ, बालक, गरीब, रोगी, पागल, अतिवृद्ध, अपाहिज तथा कोढ़ आदि अस्पृर्श्य रोगों वाले व्यक्ति स्थायी रूप से दान के अन्न से अपना निर्वाह कर सकते। ऐसों की जीवन रक्षा करने के लिए जीवनोपयोगी अन्न, वस्त्र एवं निवास स्थान आदि सुविधाऐं देना समाज का कर्तव्य है।
यहां स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि विपद् ग्रस्तों को दूसरों की वही सहायता लेनी चाहिए जो वे अपनी शेष शक्तियों से नहीं कर सकते। वह सहायता उन्हें उतने ही समय तक एवं उतनी ही मात्रा में लेनी चाहिए वे अपने पैरों पर खड़े हो जावें। फिर जो सहायता लें उसे कर्ज रूप से ग्रहण करें और मन में दृढ़ संकल्प रखें कि समर्थ होते ही उस सहायता को दूसरे पीड़ितों को ब्याज समेत चुका देंगे। असहाय या असमर्थ व्यक्तियों को भिक्षा अन्न के बदले लोक कल्याण की शुभकामनाऐं, आशीर्वादात्मक-प्रार्थनात्मक सद्भावनाऐं देते रहना चाहिए और मन में ध्यान रखना चाहिए कि इस जन्म में या अगले जन्म में समर्थ होने पर इस ऋण को समाज को पुन: लौटा देंगे।
दान लेने और देने वाले के मन में यह प्रश्न पूरी सतर्कता के साथ उपस्थित रहना चाहिए कि इस पैसे का उपयोग (१) यज्ञार्थाय, (२) विपद् निवारणार्थ-इन दो कार्यों के अतिरिक्त और किसी तीसरे काम में तो नहीं होगा। जब यह पूर्ण निश्चय हो जाय तभी दान देना या लेना चाहिए। संसार में शारीरिक, मानसिक, नैतिक, सामाजिक, आर्थिक, आध्यात्मिक विभूतियों की संवृद्धि के लिए एवं पाप-तापों को हटाने के लिए जो प्रयत्न होते हैं, वे यज्ञ हैं और विपद् ग्रस्तों को अपने पैरों पर खड़ा कर देने के लिए एवं असमर्थों की
जीवन रक्षा के लिए जो कार्य किये जाते हैं, वे विपद् निवारण की श्रेणी में आते हैं। इन कार्यों में पैसा, समय, बल, बुद्धि के साथ ही आवश्यकता होने पर प्राण तक दे देने चाहिए। यह दान की शास्त्रीय मर्यादा है।
उपरोक्त शास्त्रीय मर्यादा के अतिरिक्त अन्य प्रयोजनों के लिए जो दान लिया या दिया जाता है, वह सब प्रकार अनिष्ट कर, घातक, भयंकर परिणाम उत्पन्न करने वाला तथा पाप कर्म है। अशास्त्रीय भिक्षा पाप, अनाचार, दु:ख दुर्गुण एवं नरक की सृष्टि करती है। भिक्षा सचमुच एक लज्जा की चीज है। भिक्षा माँगने को सर्वत्र मृत्यु के समान कष्टदायक, अपमानजनक कहा है सचमुच अशास्त्रीय भिक्षा अत्यन्त ही गर्हित है, वह नीचता, हीनता, निर्लज्जता एवं पशुता को प्रकट करती है।
हमारे देश एवं धर्म का यह दुर्भाग्य है कि आज अशास्त्रीय भिक्षा की जीविका पर निर्भर रहने वाले मनुष्यों की संख्या लाखों तक पहुँच गई है पिछली सरकारी जनगणना के अनुसार भारतवर्ष में भिखारियों की संख्या ५६ लाख (*अब यह संख्या सम्भवत: करोड़ों में पहुँच चुकी होगी) के लगभग पहुँच गई है। इनमें से भिक्षा के वास्तविक अधिकारी उँगलियों पर गिनने लायक निकलेंगे। लोक कल्याणकारी जन सेवा के कार्य में सर्वतो भावेन लगे हुए विद्वान् निस्पृह ब्राह्मणों की संख्या अत्यन्त ही न्यून निकलेगी। सब कुछ त्याग कर संन्यास लेकर जनता-जनार्दन की आराधना में प्रवृत्त साधु-संन्यासी चिराग लेकर खोजने पड़ेंगे। आकस्मिक घोर अनिवार्य विपत्ति से पीड़ितों एव असमर्थ, असहाय दरिद्रों की संख्या भी बहुत ही कम निकलेगी। इन छप्पन लाख भिक्षुकों में पाँच हजार भिक्षुक भी कठिनाई से ऐसे निकलेंगे जो शास्त्रीय भिक्षा के अधिकारी हैं, शेष सारे पचपन लाख तो ऐसे मिलेंगे जिन्होंने भिक्षा को एक लाभदायक व्यापार-व्यवसाय बना लिया है।
ब्राह्मणत्व के समस्त गुणों से रहित व्यक्ति भी अपने को इस आधार पर भिक्षा का अधिकारी बताते हैं कि हम ब्राह्मणों के वंशज हैं। यह झूठ दावा है। ब्राह्मणत्व कोई जागीर नहीं है, जो पुश्त दर पुश्त विरासत में मिलती चली जाय। जो व्यक्ति ब्राह्मणत्व के गुण, कर्म, स्वभाव से युक्त हैं, उसे भिक्षा जीविका करनी चाहिए पर यदि उसके बेटे में वे गुण न रहें तो उसे ब्राह्मणत्व के लिए मिलनी वाली भिक्षा ग्रहण करने का अधिकार नहीं है इसी प्रकार संसार को मुक्ति दिलाने के प्रयत्न में अपनी मुक्ति तक को त्यागे हुए जो संन्यासी हैं, वे ही अपनी सेवा के बदले में संसार से भिक्षा ले सका है। जो केवल मात्र अपनी निज की मुक्ति के लिए प्रयत्नशील हैं, दुनियां को झूठा कहते हैं, लोक सेवा से दूर रहते हैं, वे पक्के स्वार्थी हैं, वे अपने निज के लाभ में ही तो प्रवृत हैं, चाहे वह लाभ धन का हो, स्वर्ग का हो या मुक्ति का हो। जैसे धन कमाने के लिए ही सदा अपने व्यापार में प्रवृत्त कोई व्यापारी भिक्षा का अधिकारी नहीं, वैसे ही अपनी निज की मुक्ति में तल्लीन योगी, संन्यासी भी भिक्षा के अधिकारी नहीं। जब संसार झूठा है तो भिक्षा भी झूठी है। जब संसार की सेवा से उपेक्षा करते हैं और अपने को उससे अलग मानते हैं तो फिर भिक्षा से भी अलग रहना चाहिए, उसकी भी उपेक्षा करनी चाहिए। भजन करना व्यक्तिगत नित्य कर्म है। स्नान, भोजन, व्यायाम की भांति भजन भी एक अत्यन्त लाभप्रद नित्यकर्म है। भजन करना किसी दूसरे पर अहसान करना नहीं है। न इसके करने 'से किसी को भिक्षा लेने का अधिकार मिलता है।
देखा जाता है कि धर्म के नाम पर या दीनता के नाम पर नाना प्रकार के आडम्बरों, घृणित मायाचारों से भिक्षा उपार्जन की जाती है। इन मायाचारों से जहाँ जनता का पैसा बर्बाद होता है, वहां उनके मस्तिष्क में अन्धविश्वास, भ्रम भय, अज्ञान एवं अविचार का विष भी प्रवेश होता है। पुरुषार्थ, प्रयत्न, कर्म और साहस को छोड़कर लोग आकाश में से देवताओं द्वारा स्वर्ण पुष्प बरसाये जाने की आशा करने लगते हैं। अनेक व्यक्ति अपने कार्यों में दोष ढूँढ़कर उन्हें सुधारने की अपेक्षा दैव कोप की अन्ध कल्पना करके हतोत्साहित हो जाते हैं। धर्म का आडम्बर करके जीविका कमाने वालों के पास विद्या, बल, विवेक, ज्ञान, अनुभव, तप आदि महत्ताऐं तो होती नहीं। इनके न होने पर वे झूठा आधार ग्रहण करते हैं, अपने आपको देवताओं का प्रतिनिधि, कृपापात्र या एजेन्ट साबित करते हैं जिससे भोली जनता उन्हें दैव प्राप्त करने के लिए पूजे। यह मायाचार जनता में ऐसे विषैले अन्ध विश्वास पैदा करता है जो संसार में भयंकर अनिष्ट उत्पन्न करता है।
गरीबी का आडम्बर बना कर भिक्षा माँगने वाले अधिकांश ऐसे व्यक्ति होते हैं, जिनके शरीर में श्रम करने की, जीविका उपार्जन करने की पर्याप्त क्षमता होती है, वे चाहें तो मेहनत-मजूरी करके आसानी से अपना गुजारा कर सकते हैं। पर उन्हें बिना परिश्रम किये, आसानी से जब भिक्षा मिल जाती है तो पसीने बहाने के लिए क्यों तैयार हों? वे गरीबी के, बीमारी के, विपत्ति के झूठे बहाने बनाकर भिक्षा माँगते रहते हैं। कुछ अत्यन्त घृणित कोटि के भिक्षुक तो अधिक जीविका कमाने के लिए बड़े लोमहर्षक कार्य करते हैं। वे अपने शरीर में स्वेच्छापूर्वक घाव बनाते हैं, घावों को अच्छा नहीं होने देते, अपने बालकों के नेत्र हाथ पैर आदि तोड़-फोड़ देते हैं। इस घृणित काम को वे इसलिए करते हैं कि दर्शक लोग दया द्रवित होकर उन्हें अधिक पैसा दें। गायों या बछड़ों को पांच पैर का या अधिक अंग का बनाने के लिए कसाइयों द्वारा कलम लगवाई जाती है। एक बछड़े का पैर काटकर और दूसरे बछड़े की पीठ का मांस काटकर इन दोनों को कसाई लोग सी देते हैं। जब तक वह घाव अच्छा नहीं होता तब तक बछड़े को इस प्रकार जकड़ा रहने देते हैं कि वह जरा भी हिल न सके। जब वह जुड़ जाता है तो इसे शिवजी का वाहन-नन्दी बताकर भिखारी लोग भीख माँगते हैं। बहुत से बछड़ों के पैर की जगह माँस का लोथड़ा भी जोड़ देते हैं। इस क्रिया में एक बछड़ा तो आरंभ में ही मार डाला जाता है, दूसरा जिसमें कलम लगाई गई थी या तो मर जाता है या बड़ी मुश्किल से मृत्यु तुल्य कष्ट सहकर जी पाता है। ऐसे निर्दय हिंसा पूर्ण कार्य करते हुए उन्हें तनिक भी दया नहीं आती। धर्मजीवी भिक्षुकों में से भी अनेक ऐसे ही निर्दय हो जाते हैं। देवी-भैरव, भवानी, पीर, मसान आदि के नाम पर बकरा, मेंढ़ा, भैंसा, मुर्गा आदि पशु-पक्षियों का गला काटते और कटवाते हैं।
अशास्त्रीय भिक्षा पाप रूप है। ऐसा अन्न खाने वालों के रोम-रोम में दुर्गुणों का समावेश हो जाता है। वे झूठ, चोरी, छल, व्यभिचार, मद्यपान, नशेबाजी, ढोंग, पाखण्ड, आलस्य प्रमाद हिंसा असहिष्णुता, अनुदारता आदि असंख्य दोषों से ग्रसित हो जाते हैं। स्वाभिमान एवं स्वावलम्बन नष्ट होने के साथ साथ आत्मा की भव्य ज्योति बुझ जाती है और उनके मन मरघट में पैशाचिक कुविचार नंगा नृत्य करने लगते हैं। अशास्त्रीय भिक्षा का अन्न सद्बुद्धि पर बड़ा घातक आक्रमण करता है और ऐसा अन्न खाने वाले को शीघ्र ही एक घृणित दमनीय नारकीय प्राणी के रूप में परिणत कर देता है। ऐसे प्राणियों की वृद्धि होना किसी भी देश या जाति के लिए एक भारी खतरा है क्योंकि वे प्राणी संक्रामक रोगों के कीटाणुओं की भांति जहां भी फिरते हैं, वह अनिष्ट उत्पन्न करते हैं।
सच्चे यज्ञार्थी भिक्षुकों की अभिवृद्धि किसी भी समाज के लिए गौरव की बात है। त्यागी, परोपकारी, विद्वान, विशेषज्ञ अपने सम्पूर्ण निजी स्वार्थों को तिलांजलि देकर जन कल्याण के कार्य में जुटे रहें, यह बड़ा ही ऊँचा आदर्श है। जहां थोड़ी सी योग्यता वाले मनुष्य अपनी योग्यता के बदले में प्रचुर धन कमा कर ऐश्वर्यवान् बन जाते हैं, वहां अपनी महान् तप जनित क्षमताओं को जनता-जनार्दन के चरणों में अर्पित करके केवल भिक्षा के दानों पर निर्वाह करना दैवी त्याग है ऐसे त्यागियों की वृद्धि होना गौरव की बात है, परन्तु खेद पूर्वक कहना पड़ता है कि ऐसे भिक्षा जीवी अब प्राय: विलुप्त हो चले हैं। अब तो व्यवसायी लोग इस यज्ञ सामग्री की, भिक्षा की लूट कर रहे हैं। यह शर्म कलंक और दुःख की बात है।
भिक्षा वृति का सदुपयोग हो, सच्चे भिक्षुकों का हक चोर-लुटेरे न लूटने पावें, इसके लिए भिक्षा देने वालों की जिम्मेदारी बहुत बढ़ी है। उन्हें देखना चाहिए कि माँगने वाला यज्ञार्थाय या विपद् वारणाय ही माँगता है न? यदि इन दोनों में से कोई प्रयोजन न हो और वह मुफ्त का माल पाने की वृत्ति से मांग रहा हो तो उसे एक तिनका भी देने से मना कर देना चाहिए। अविवेकपूर्वक कुपात्रों को दिया हुआ दान उस दान दाता को नरक में ले जाता है, क्योंकि उन निठल्ले भिक्षुकों द्वारा फैलने वाली अनैतिकता का उत्तरदायित्व उन अविवेकी दानदाताओं पर ही पड़ता है। यदि उन्हें भिक्षा न मिले तो सीधे रास्ते पर आने के लिए स्वयं ही मजबूर होंगे। परन्तु यदि अविवेकी दाता उनका घड़ा भरते ही रहेंगे तो उनके सुधरने की, सीधे रास्ते पर आने की कोई आशा नहीं करनी चाहिए।
दान में विवेक आवश्यक है। जो दान के अधिकारी हैं, उन्हें जी खोलकर मुक्त हस्त होकर देना चाहिए। संसार में सात्विकता, सद्भावना, ज्ञान विवेक तथा सुख-शांति बढ़ाने के लिए एवं विपत्ति ग्रस्तों को संकट से बचाने के लिए हर समय सहायता दी जानी चाहिए। शरीर से, बुद्धि से, पैसे से, यहाँ तक कि प्राण देकर भी विश्व के कष्ट मिटाने और सुख बढ़ाने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। सच्चे ब्राह्मणों को, सच्चे साधुओं को, सच्चे ब्रह्म साधकों को संस्थाओं को ढूँढ़कर उन्हें भिक्षा देनी चाहिए, उनके पुष्ट होने से धर्म की, वैभव की, सुख-शांति की पुष्टि होती है। विपद् ग्रस्तों को उठाकर छाती से लगाना चाहिए, उनके लिए हर समय एवं उचित सहायता पहुँचानी चाहिए। परन्तु सावधान-गौ का ग्रास श्रृंगाल न छीनने पावे, भिक्षा का हवन शाकल्य यज्ञ कुण्ड में पड़ने की जगह अपवित्र गली में न बह जाय। यज्ञार्थाय और विपद् वारणाय प्रयुक्त न होकर कहीं आपका दान कुपात्रों द्वारा न लूट लिया जाय। इसलिए दान में विवेक की आवश्यकता है।
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