आचार्य श्रीराम शर्मा >> जगाओ अपनी अखण्डशक्ति जगाओ अपनी अखण्डशक्तिश्रीराम शर्मा आचार्य
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जगाओ अपनी अखण्डशक्ति
4. रामचरित मानस (अरण्य काण्ड)
एक बार प्रभु आसीना, लछिमन वचन कहे छलहीना
सुर नर मुनि सचराचर साईं, मैं पूछउँ निज प्रभु की नाईं।
(दोहा 13 चौ. 3)
मोहि समुझाई कहहु सोइ देवा,
सब तजि करौ चरन रज सेवा।।
कहउ ग्यान विराग अरु माया,
कहहु सो भगति करहुँ जेहि दाया।।
(दोहा 13, चौ. 4)
ईश्वर जीव भेद प्रभु सकल कही समुझाइ।
जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ।। दो. 14।।
थोरहि महँ सब कहहुँ बुझाई,
सुनहु तात मति मनचित लाई।।
मैं अरु मोर तोर तैं माया
जेहिं बस कीन्हें जीव निकाया।।चौ.।।
गो गोचर जहँ लगि मन जाई
सो सब माया जानेहु भाई।।
तेहि कर भेद सुनहु तुम सोऊ,
विद्या अपर अबिद्या दोऊ।।2।।
एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा,
जा बस जीव परा भव कूपा।।
एक रचई जग गुन बस जाके,
प्रभु प्रेरित नहीं निज बल ताके।।3।।
ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं,
देखि ब्रहम समान सब माहीं।।
कहिय तात सो परम विरागी,
तृन सम सिद्धि तीनि गुन स्वागी।।4।।
''माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव।
बंध मोच्छ प्रद सर्ब पर माया प्रेरक सीब।।5।। दो.
धर्म ते बिरति जोग ते ग्याना
ग्यान मोच्छ प्रद बेद बरवाना।।
जाते बेगि द्रबरुँ मैं भाई,
सो मम भगति भगत सुखदाई।।1।।
सो सुतंत्र अवलंब न आना,
तेहि आधीन ग्यान' बिग्याना।।
भगति तात अनुपम सुखमूला,
मिलइ जो संत होइँ अनुकूला।।2।।
भगति के साधन कहउँ बखानी,
सुगम पंथ मोहि पावहि प्रानी।।
प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती,
निज निज कर्म निरत श्रुति रीती।।3।।
एहि कर फल पुनि विषय बिरागा
तब मम धर्म उपजि अनुरागा।।
श्रवनादिक नूव भक्ति दृढ़ाहीं,
मम लीला रति अति मन माहीं।।4।।
संत चरन पंकज अति प्रेमा,
मन क्रम बचन भजन दृढ़ नेमा।।
गुरु पितु मातु बंधु पति देवा,
सब मोहि कहँ जानै दृढ़ सेवा।।5।।
मम गुन गावत पुलक सरीरा,
गदगद गिरा नयन बह नीरा।।
काम आदि मद दम न जाके,
तात निरंतर बस मैं ताके।।6।।
''बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निःकाम।
तिन्ह के हृदय कमल महुँ करउँ सदा बिश्राम।।16।।
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