आचार्य श्रीराम शर्मा >> इक्कीसवीं सदी बनाम उज्जव भविष्य भाग-1 इक्कीसवीं सदी बनाम उज्जव भविष्य भाग-1श्रीराम शर्मा आचार्य
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विज्ञान वरदान या अभिशाप
इक्कीसवाँ सदी बनाम उज्जवल भविष्य
इन आधारों पर इक्कीसवीं सदी सुखद संभावनाओं की अवधि है। बीसवीं सदी में उपलब्धियाँ कम और विभीषिकाएँ अधिक उभरी हैं। अब उस उपक्रम में क्रांतिकारी परिवर्तन होने जा रहा है। प्रातः सायं की संधि बेला की तरह बीसवी सदी का आरंभ वाला यह समय युगसंधि का है। इसका भी अपना एक मध्यकाल है, जिसे बारह वर्ष का माना गया है, सन १९८९ से २००० तक का। इस बीच मध्यवर्ती स्तर के सूक्ष्म और स्थूल परिवर्तनों की क्रांतिकारी तैयारी होगी। बुझता हुआ दीपक अधिक ऊँची लो उभारता है, मरते समय चींटी के पंख उगते हैं। मरणकाल में साँसों की गति तेज हो जाती है। दिन और रात के मिलन वाला संध्याकाल भी अनेक विचित्रताओं को लिए हुए होता है। प्रसव पीड़ा के समय दो प्रकार की परस्पर विरोधी है, तो दूसरी ओर संतान लाभ की प्रसन्नता भी उस परिवार के सभी लोगों पर छांई होती है। युग संधि के इन बारह वर्षों में चलने वाली उथल-पुथल भी ज्वार भाटे जैसी है। इसमें एक जाएगी और अनर्थ उत्पन्न करने में कुछ उठा न रखेगी। दूसरी ओर सूजन के दृश्य और प्रयास भी अपना अपना पूरा जोर आजमाकर बाजी जीतने की चेष्टा में प्राणपण से जुटे दिखाई पड़ेगे।
युग संधि की इस ऐतिहासिक बेला में सूजन संभावनाओं के दृश्यमान प्रयत्न जहाँ शासन, अर्थ क्षेत्र, विज्ञान आदि की परिधि में दिखाई पड़ेंगे, वहाँ अध्यात्म शक्तियाँ भी अपने तपउपचार को ऐसा गतिशील करेंगी, जिससे भगीरथ, दधीचि, हरिशचंद्र, विश्वामित्र आदि द्वारा किए गए महान परिवर्तनों की भूमिका निबाही जाती देखी जा सके। लोक सेवियों का एक बड़ा वर्ग भी इन्हीं दिनों कार्य क्षेत्र में उतरेगा और राम के रीछ वानरों, कृष्ण के ग्वाल-बालों, बुद्ध के परिव्राजकों और गाँधी के सत्याग्रहियों की अभिनव भूमिका का निर्वाह करते हुए एक नए इतिहास की नई संरचना करते हुए देखा जाएगा। यह सब अदृश्य प्रयत्नों की ही अनुकृति समझी जा सकेगी।
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