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आचार्य श्रीराम शर्मा >> इक्कीसवीं सदी बनाम उज्जव भविष्य भाग-1

इक्कीसवीं सदी बनाम उज्जव भविष्य भाग-1

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15494
आईएसबीएन :00000

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विज्ञान वरदान या अभिशाप

तेजी से बदलला परोक्ष जगत का प्रवाह


मनुष्य कर तो कुछ भी सकता है, पर उसकी परिणति से नहीं बच सकता। दुरुपयोग का परिणाम मात्र संकट और विग्रह ही हो सकता है। वही इन दिनों प्रस्तुत भी हो रहा है। संपन्नों और विपन्नों के बीच शीत युद्ध छिड़ा हुआ है। सज्जनता की उपेक्षा करने वाला प्रचलन स्नेह, सौजन्य और सद्भाव का समापन करने पर उतारू है। घात-प्रतिघात के कुचक्र में फँस कर मनुष्य ने संतोष, उल्लास और सहयोग गाँवा दिया है। दूसरों का शोषण और अहंकार प्रदर्शन के अतिरिक्त और किसी को कुछ सूझता ही नहीं। ऐसे वातावरण में व्यक्तियों का विकृत और समाज का अधःपतित होना स्वाभाविक है। सार्वभौम संतुलन तो बन ही कैसे पड़े? वायु प्रदूषण, अहंकार, अनाचार अपने-अपने ढंग से, अपने द्वारा किए जाने वाले महाविनाशों की चेतावनी दे रहे हैं। भूमि का दोहन, आबादी का बेतहाशा अविश्वास, निराशा और आतंक से संत्रस्त किए हुए हैं। अगले दिन अंधकार भरे दीखते हैं। वर्तमान भी इतना उलझा हुआ है कि एक समस्या का हल ढूँढते-ढूँढते दस और नई विपन्नताएँ बढ़े-चढ़े रूप में सामने आ खड़ी होती हैं। सहयोग के स्थान पर संघर्ष ही स्वभाव और प्रचलन का अंग बनता जा रहा है !

इस माहौल में सूक्ष्म वातावरण भी विषाक्त हो चला है। प्रकृति अपने ऊपर बलात्कार किए जाने पर उपयुक्त दंड देने और प्रतिशोध लेने पर उतारू हो गई है। आए दिन दुर्भिक्ष पड़ता है। बाढ़, भूकंप, रोग-शोक के ऐसे घटनाक्रम आए दिन घटित होते रहते हैं। माता की तरह पोषण करने वाली प्रकृति अब मरने-मारने पर उतारू हो गई है। अणु-आयुधों, मृत्यु किरणों को निस्तब्ध पिंड के रूप में बने रहने का अवसर मिलेगा या नहीं, इसमें संदेह होता है। लगता है कि हर दिशा में उमड़ने वाले विनाश के बादल कहीं महाप्रलय तो करने नहीं जा रहे हैं? यह भी तो हो सकता है कि उन असह्य प्रहारों से यह सुंदर ग्रह कहीं धूल बनकर अनंत आकाश में छितरा न जाए और इसके अस्तित्व का कहीं अता-पता भी शेष न रहे।

साधारण अनुभव में पृथ्वी भी स्थिर दिखाई पड़ती है, दिन पर दिन इसी तरह गुजर जाते हैं, पर सूक्ष्म दृष्टि की गहराई में उतर सकने वाले जानते हैं कि धरती लट्टू की तरह अपनी धुरी पर भ्रमण करती है और साथ ही सूर्य की परिक्रमा के लिए पक्षी की तरह उड़ती रहती है। यह है तो आश्चर्य और समझ में न आने वाला, किंतु इतने पर भी वस्तु स्थिति ऐसी ही है। औसत आदमी सब कुछ यथावत चलता समझ सकता है, किंतु लक्षणों का पर्यवेक्षण कर सकने वाले देखते हैं कि स्थिति इन दिनों में विस्फोटक है और बारूद के ढेर पर बैठे हम सब निकट भविष्य में महाविनाश के ग्रास बनने जा रहे हैं।

बीसवीं सदी का अंत किन दुर्दशाओं के बीच होगा, इसकी चेतावनी विषेशज्ञों से लेकर भविष्यवक्ता तक समान रूप से देते रहे हैं। आशंका है कि वह दुर्दिन कल-परसों ही कहीं सामने आ खड़ा न हो? विकास के नाम पर हम विनाश की दिशा में चले हैं। आज ही सब कुछ पा लेने की सोच में भविष्य को बुरी तरह दाँव पर लगाते रहे हैं। पृथ्वी के खनिज भंडार चुक सकते हैं। बढ़ी हुई जनसंख्या के लिए आहार-विहार तो दूर, राह चलने के लिए भी पृथ्वी छोटी पड़ सकती है। जीवनी शक्ति गवा बैठने के बाद लोग मक्खी-मच्छरों की तरह बेमौत मरेंगे। सद्भाव और सहयोग के अभाव में लोग प्रेत-पिशाच से अधिक कुछ रहेंगे ही नहीं, भले ही उनके पास सज्जा और संपदा कितनी हो अधिक क्यों न हो? लक्षण आज भी सामने है। कल तो उनके घटने की नहीं, बढ़ने की ही आशंका है।

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