आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री पंचमुखी और एकमुखी गायत्री पंचमुखी और एकमुखीश्रीराम शर्मा आचार्य
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गायत्री की पंचमुखी और एकमुखी स्वरूप का निरूपण
(५) आनन्दमय कोश
गायत्री का पाँचवाँ मुख आनन्दमय कोश है। जिस आवरण में पहुँचने पर आत्मा को आनन्द मिलता है, वहाँ उसे शान्ति, सुविधा, स्थिरता, निश्चिन्तता एवं अनुकूलता की स्थिति प्राप्त होती है, वही आनन्दमय कोश है। गीता के दूसरे अध्याय में 'स्थित प्रज्ञ' की परिभाषा की गई है। 'समाधिस्थ' के जो लक्षण बताये गये हैं, वे ही गुण, कर्म, स्वभाव, आनन्दमयी स्थिति में हो जाते हैं। आत्मिक परमार्थ साधना में मनोयोगपूर्वक संलग्न होने के कारण सांसारिक आवश्यकताएँ बहुत सीमित रह जाती हैं। उनकी पूर्ति में इसलिए बाधा नहीं आती कि साधक अपनी शारीरिक और मानसिक स्वस्थता के द्वारा जीवनोपयोगी वस्तुओं को उचित मात्रा में आसानी से कमा सकता है।
प्रकृति के परिवर्तन, विश्वव्यापी उतार-चढ़ाव, कर्मों की गहन गति, प्रारब्ध-भोग, वस्तुओं की नश्वरता, वैभव की चंचल-चपलता आदि कारणों से जो उलझन भरी परिस्थितियाँ सामने आकर परेशान करती हैं, उन्हें देखकर वह हँस देता है। सोचता है, प्रभु ने इस संसार में कैसी धूप-छाँह का, आँख-मिचौनी खेल खड़ा कर दिया है। अभी खुशी तो अभी रंज, अभी वैभव तो अभी निर्धनता, अभी जवानी तो अभी बुढ़ापा, अभी जन्म तो अभी मृत्यु, अभी नमकीन तो अभी मिठाई, यह दुरंगी दुनिया कैसी विलक्षण है। दिन निकलते देर नहीं हुई कि रात की तैयारी होने लगी, रात को आये जरा सी देर हुई कि नव प्रभात का आयोजन होने लगा। यह तो यहाँ का अनादि खेल है, बादल की छाया की तरह पल-पल में धूप-छाँह आती है।
मैं इन तितलियों के पीछे कहाँ तक दौड़ूँ,
मैं इन क्षण-क्षण पर उठने वाली लहरों को कहाँ तक गिनूँ ,
पल में रोने, पल में हँसने की बाल-क्रीड़ा मैं क्यों करूं?
आनन्दमय कोश में पहुँचा हुआ जीव अपने पिछले चार शरीरों, अन्नमय, मनोमय और विज्ञानमय को भली प्रकार समझ लेता है, उसकी अपूर्णता और संसार की परिवर्तनशीलता दोनों के मिलने से ही एक विषैली गैस बन जाती है, जो जीवों को पाप-तापों के काले धुएँ से कलुषित कर देती है। यदि इन दोनों पक्षों के गुण-दोषों को समझ कर, उन्हें अलग-अलग रखा जाये, बारूद और अग्नि को इकट्ठा न होने दिया जाये, तो विस्फोट की कोई सम्भावना नहीं है। यह समझकर वह अपने दृष्टिकोण में दार्शनिकता, तात्विकता, वास्तविकता, सूक्ष्मदर्शिता को प्रधानता देता है। तदनुसार उसे सांसारिक समस्यायें बहुत हल्की और महत्त्वहीन मालूम पड़ती हैं। जिन बातों को लेकर साधारण मनुष्य बेतरह दु:खी रहते हैं, उन स्थितियों को वह हल्के विनोद की तरह समझ कर उपेक्षा में उड़ा देता है और आत्मिक भूमिका में अपना दृढ़ स्थान बनाकर सन्तोष और शान्ति का अनुभव करता है।
गीता के दूसरे अध्याय में भगवान् ने बताया है कि स्थित-प्रज्ञ मनुष्य अपने भीतर की आत्म स्थिति में रमण करता है। सुख-दु:ख में समान रहता है, न प्रिय में राग करता है न अप्रिय में द्वेष करता है। इन्द्रियों को इन्द्रियों तक ही सीमित रहने देता है, उसका प्रभाव आत्मा पर नहीं होने देता। कछुआ जैसे अपने अंगों को समेट कर अपने भीतर कर लेता है; वैसे ही यह अपनी कामनाओं और लालसाओं को संसार में न फैलाकर अपनी अन्तःभूमिका में ही समेट लेता है। जिसकी मानसिक स्थिति ऐसी है उसे योगी, ब्रह्म भूत, जीवन मुक्त या समाधिस्थ कहते हैं।
आनन्दमय कोश की स्थिति पंचम भूमिका है। इसे समाधि अवस्था कहते हैं। समाधि अनेक प्रकार की है। काष्ठ समाधि, भाव समाधि, ध्यान समाधि प्रण समाधि, सहाज समाधि आदि २७ समाधियाँ बताई गई हैं।
मूर्छा, नशा एवं क्लोरोफार्म आदि सूंघने से आई हुई समाधि को काष्ठ समाधि कहते हैं। किसी भावना का इतना व्यतिरेक हो कि मनुष्य की शारीरिक चेष्टाएँ संज्ञा शून्य हो जायें, उसे भाव समाधि कहते हैं। ध्यान में इतनी तन्मयता आ जाए, कि उसे अदृश्य एवं निराकार सत्ता साकार दिखाई पड़ने लगे, उसे ध्यान समाधि कहते हैं। इष्टदेव के दर्शन जिन्हें होते हैं ध्यान समाधि की अवस्था में ऐसी अचेतनता आ जाती है कि यह अन्तर उन्हें नहीं विदित होने पाता कि हम दिव्य नेत्रों से ध्यान कर रहे हें या आँखों से स्पष्ट रूप से अमुक प्रतिमा को देख रहे हैं। प्राण समाधि ब्रह्मरन्ध्र में प्राणों को एकत्रित करके की जाती है। हठयोगी इसी समाधि द्वारा शरीर को बहुत समय तक मृत समान बनाकर भी जीवित रहते हैं। अपने आपको ब्रह्म में लीन होने का जिस अवस्था में बोध होता है। उसे ब्रह्म समाधि कहते हैं।
इस प्रकार की २७ समाधियों में से वर्तमान देश, काल, पात्र की स्थिति में सहज समाधि सुलभ और सुख साध्य है। महात्मा कबीर ने सहज समाधि पर बड़ा बल दिया है। अपने अनुभव से उन्होंने सहज समाधि को सर्वसुलभ देखकर अपने अनुयायियों को इसी साधना के लिए प्रेरित किया है।
महात्मा कबीर का वचन है-
गुरु प्रताप भया जा दिन से सुरति न अनत चली।।
आँख न मूंदू, कान न रूंढूँ, काया कष्ट न धारूं।
खुले नयन में हँस-हँस देखें, सुन्दर रूप निहारूं॥
कहूँ सोई नाम, सुनू सोई सुमिरन खाऊँ सोई पूजा।
गृह उद्यान एक सम लेखें, भाव मिटाऊँ दूजा।।
जहाँ-जहाँ जाऊँ सोई परिक्रमा, जो कछु करूं सो सेवा।
जब सोऊँ तब करूं दण्डवत, पूजू और न देवा॥
शब्द निरन्तर मनुआ गाता, मलिन वासना त्यागी।
बैठत उठत कबहूँ न बिसरें, ऐसी ताड़ी लागी।।
कहैं कबीर यह उनमनि रहनी, सोई प्रकट कर गाई।
दु:ख सुख के एक परे परम सुख, तेहि सुख रहा समाई।।
उपरोक्त पद में सद्गुरु कबीर ने इस सहज समाधि की स्थिति का स्पष्टीकरण किया है। यह समाधि सहज है-सर्व सुलभ है- सर्व साधारण की साधना शक्ति के भीतर है, इसलिए उसे सहज समाधि का नाम दिया गया है। हठ साधनाएँ कठिन हैं। उनका अभ्यास करते हुए समाधि की। स्थिति तक पहुँचना असाधारण, कष्टसाध्य है। चिरकालीन तपश्चर्या, षट्कर्मों। के श्रम साध्य साधन सब किसी के लिए सुलभ नहीं हैं। अनुभवी गुरू के सम्मुख रह कर विशेष सावधानी के साथ वे क्रियायें साधनी पड़ती हैं; फिर भी यदि उनका साधन खण्डित हो जाता है। तो वे संकट भी सामने आ सकते हैं जो योग-भ्रष्ट लोगों के सामने कभी भयंकर रूप से आ खड़े होते हैं। कबीर जी सहज योग को प्रधानता देते हैं। सहज योग का तात्पर्य है-सिद्धान्तमय जीवन, कर्तव्यपूर्ण कार्यक्रम। इन्द्रिय भोगों, पाशविक वृत्तियों एवं काम, क्रोध, लोभ, मोह की तुच्छ इच्छाओं से प्रेरित होकर आमतौर से लोग अपना कार्यक्रम निर्धारित करते हैं, पर सहज समाधि की स्थिति में आदेशों का पालन शेष रह जाता है। इससे क्षुद्रतायें मिट जाती हैं।
सात्त्विक सिद्धान्त को जीवन आधार बना लेने से उन्हीं के अनुसार विचार और कार्य करने से, आत्मा का सत् तत्त्व में रमण करने का अभ्यास पड़ जाता है। यह अभ्यास जैसे-जैसे परिपक्र हो जाता है वैसे-वैसे सहज योग का रसास्वादन होने लगता है, उसमें आनन्द आने लगता है। अधिक दृढ़ता, श्रद्धा, विश्वास, उत्साह एवं साहस के साथ सत-परायणता में, सिद्धान्त युक्त जीवन में संलग्न रहता है, तो वह उनकी स्थाई वृत्ति बन जाती है, वह उसी में तन्मय रहता है और एक दिव्य आवेश-सा छाया रहता है, उसकी मस्ती, प्रसन्नता, सन्तोषवृति असाधारण होती है। इस स्थिति को सहज योग की समाधि या सहज समाधि कहा जाता है।
आनन्दमय कोश का जागरण होने पर मनुष्य सब प्रकार के दु:खों से छूट जाता है। हमारा दृष्टि दोष ही समस्त दु:खों का तात्त्विक कारण है।
अज्ञान, मोह एवं स्वार्थरूपी अंधकार में जीव भटकता और ठोकरें खाता है। प्रकाश उदय होने पर किसी को अंधेरे के कारण उत्पन्न होने वाली असुविधाओं एवं कठिनाइयों से सामना नहीं करना पड़ता, उसी प्रकार दृष्टिकोण परिष्कृत होते जाने पर दुःख, कष्ट, अभाव, क्षोभ, व्यथा, वेदना, शोक, सन्ताप, क्लेश, कलह एवं अन्तद्वन्दों का सामना नहीं करना पड़ता। इसी निरामय स्थिति को ब्राह्मी स्थिति कहते हैं, इस भूमिका में जाग्रत् हुआ व्यक्ति दिव्य दृष्टि प्राप्त करके निरन्तर सर्वत्र भगवान् का दर्शन करता है और हर घड़ी आनन्द विभोर रहता है।
इस स्थिति में पहुँचा हुआ व्यक्ति मनुष्य-आकृति में रहता हुआ भी ईश्वर का प्रतिनिधित्व करता है। अवतारी आत्माएँ इसी स्थिति में रहा करती हैं। उनकी सामथ्र्य का कोई पारावार नहीं रहता। वे ईश्वर का कार्य करते हैं और परमेश्वर के अनन्त ऐश्वर्य का उपयोग एवं उपभोग करने में समर्थ रहते हैं।
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