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आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री पंचमुखी और एकमुखी

गायत्री पंचमुखी और एकमुखी

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15488
आईएसबीएन :00000

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गायत्री की पंचमुखी और एकमुखी स्वरूप का निरूपण

(३) मनोमय कोश


पश्च कोश में 'मनोमय कोश' है। इसे गायत्री का तृतीय मुख भी कहा गया है। मनुष्य को नारकीय एवं घृणित पतितावस्था तक पहुँचा देना तथा उसे मानव से भूसुर बना देना मन का ही खेल है। मन में प्रचण्ड प्रेरक शक्ति है। इस प्रेरक शक्ति से अपने कल्पना-चित्रों को वह ऐसा सजीव कर देता है कि मनुष्य बालक की तरह उसे प्राप्त करने के लिए दौड़ने लगता है। रंग-बिरंगी तितलियों के पीछे जैसे बच्चे दौड़ते-फिरते हैं, तितलियाँ जिधर जाती हैं, उधर ही उन्हें भी जाना पड़ता है। इसी प्रकार मन में जैसी ओर शरीर चल पड़ता है।

असंस्कृत, छुट्टल मन, प्रायः इन्द्रिय भोग अहंकार तृप्ति और धन संचय के तीन क्षेत्रों में ही सुख ढूँढ़ पाता है। उसके ऊपर कोई अंकुश न होने से वह उचित-अनुचित का विचार नहीं करता और "जैसे बने वैसे करने" की नीति को अपना कर जीवन की गतिविधि को कुमार्गगामी बना देता है। मन की दौड़ स्वच्छन्द हो जाने पर बुद्धि का अंकुश भी नहीं रहता। फलस्वरूप एक योजना छोड़ने दूसरी अपनाने में योजना के गुण-दोष ढूँढ़नें की बाधा नहीं रहती।

मन को वश में होने का अर्थ है उसका बुद्धि एवं विवेक के नियंत्रण में होना। बुद्धि जिस बात में औचित्य अनुभव करे, कल्याण देखे, आत्मा का हित, लाभ और स्वार्थ समझे, उसके अनुरूप कल्पना करने, योजना बनाने, प्रेरणा देने का काम करने को मन तैयार हो जाए, तो समझना चाहिए, मन वश में हो गया। क्षण-क्षण में अनावश्यक दौड़ लगाना, निरर्थक स्मृतियाँ और कल्पनाओं में भ्रमण करना अनियन्त्रित मन का काम है। जब वह वश में हो जाता है, तो जिस एक काम पर लगा दिया जाए, उसमें लग जाता है।

मन की एकाग्रता एवं तन्मयता में इतनी प्रचण्ड शक्ति है कि उस शक्ति की तुलना संसार की किसी और शक्ति से नहीं हो सकती। जितने भी विद्वान लेखक, कवि, वैज्ञानिक, अन्वेषक, नेता, महापुरुष अब तक हुए हैं, उन्होंने मन की एकाग्रता से ही काम किया है।

सूर्य की किरणें चारों ओर बिखरी पड़ी रहती हैं उनका कोई विशेष उपयोग नहीं होता, पर जब आतिशी शीशे द्वारा उन किरणों को एकत्रित कर दिया जाता है, तो जरा से स्थान की धूप से अग्नि जल उठती है और उस जलती हुई अग्नि से भयंकर दावानल लग सकता है। एक दो इंच क्षेत्र में फैली हुई धूप का केन्द्रीकरण भयंकर दावानल के रूप में प्रकट हो सकता है। मन की बिखरी हुई कल्पना, आकांक्षा और प्रेरणा शक्ति भी जब एक केन्द्र पर एकाग्र होती है, तो उसके फलितार्थ की कल्पना मात्र से आश्चर्य होता है।

पातञ्जलि ऋषि ने योग की कल्पना करते हुए कहा है कि...'योगश्चित्तवृत्ति निरोधः' अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध करना, रोकः कर एकाग्र करना ही योग है। योग साधना का विशाल कर्मकाण्ड इसलिए है कि चित्तवृत्तियाँ एक बिन्दु पर केन्द्रित होने लगें तथा आत्मा के आदर्शानुसार उसकी गति-विधि हो। इस कार्य में सफलता मिलते ही आत्मा अपने पिता परमात्मा की सन्निहित समस्त ऋद्धि-सिद्धियों का स्वामी बन जाता है। वश में किया हुआ मन ऐसा शक्तिशाली अस्त्र है कि उसे जिस ओर भी प्रयुक्त किया जाएगा उस ओर आश्चर्यजनक चमत्कार उपस्थित हो जायेगा। संसार के किसी भी कार्य में उसे लगाया जाए, तो उसी में सफलता प्राप्त होगी। धन, ऐश्वर्य, नेतृत्व, प्रतिभा, यश, विद्या, स्वास्थ्य भोग, अन्वेषण आदि जो भी वस्तु अभीष्ट होगी, वह वशवर्ती मन के प्रयोग से निश्चित ही प्राप्त होकर रहेगी। उसकी प्राप्ति में संसार की कोई शक्ति बाधक नहीं हो सकती।

सांसारिक उद्देश्य ही नहीं वरन् उससे पारमार्थिक आकांक्षाएँ भी पूरी होती हैं। समाधि सुख मनोलय का ही एक चमत्कार है, एकाग्र मन से की हुई उपसना से इष्टदेव का सिंहासन हिल जाता है और उसे गज के लिए गरुड़ को छोड़कर नंगे पैर भागने वाले भगवान् की तरह भागना पड़ता है। अधूरे मन की साधना अधूरी और स्वल्प वीर्य होने से न्यून फलदायक होती है, परन्तु एकाग्र वशवर्ती मन तो वह लाभ क्षणभर में प्राप्त कर लेता है जो योगी लोगों को जन्म-जन्मान्तरों की तपस्या से मिलता है। सदन कसाई, गणिका, गीध, अजामिल आदि असंख्य पापी जो जीवन भर दुष्कर्म करते रहे, क्षण भर के आर्तनाद से तर गये।

मैस्मेरेजम, हिप्रोटिज्म, पर्जन मेग्रेटिज्म, मेण्टलथैरेपी, ऑकल्प साइन्स, मेंन्टल हीलिंग, स्प्रिचुऑलिज्म आदि के चमत्कारों की पाश्चात्य देशों में धूम है। तन्त्र क्रिया, मन्त्र शक्ति, प्राण विनिमय, शाबरीविद्या, छायापुरुष, पिशाच सिद्ध, शव साधन, दृष्टिबन्ध, अभिचार घात, चौकी, सर्प कीलन, जादू आदि चमत्कारी व्यक्तियों से भारतवासी भी चिर-परिचित हैं। यह सब खेल-खिलौने एकाग्र मन की प्रचण्ड संकल्प शक्ति के छोटे-छोटे मनोविनोद मात्र हैं।

गीता में भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को दो उपाय मन को वश में करने के बताये हैं। (१) अभ्यास और (२) वैराग्य। अभ्यास का अर्थ है- वे योग साधनायें जो मन को रोकती हैं। वैराग्य का अर्थ है व्यावहारिक जीवन को संयमशील और व्यवस्थित बनाना। विषय विकास,आलस्य, प्रमाद, दुव्र्यवहार, दुराचार, लोलुपता, समय का दुरुपयोग, कार्य की अव्यवस्था आदि कारणों से सांसारिक अधोगति होती है और लोभ, मोह, क्रोध, तृष्णा आदि से मानसिक अधःपतन होता है।

शारीरिक, मानसिक और सामाजिक बुराइयों से बचते हुए सादा, सरल, आदर्शवादी, शान्तिमय जीवन बिताने की कला वैराग्य कहलाती है। कई आदमी छोड़कर भीख माँगते फिरना, विचित्र वेश बनाना, अव्यवस्थित कार्यक्रम से जहाँ तहाँ मारे-मारे फिरना ही वैराग्य समझते हैं और ऐसा ही ऊटपटाँग जीवन बनाकर पीछे परेशान होते हैं। वैराग्य का वास्तविक तात्पर्य है भोगों से निवृत होना।

अभ्यास के लिए योगशास्त्रों में ऐसी कितनी ही साधनाओं का वर्णन है, जिसके द्वारा मन की चंचलता, घुड़दौड़, विषय लोलुपता और ऐषणा प्रवृत्ति को रोककर उसे ऋतम्भरा बुद्धि के, अन्तरात्मा के आधीन किया जा सकता है। इन साधनाओं को 'मनोलय योग' कहते हैं। मनोलय के अन्तर्गत १. ध्यान, २. त्राटक, ३. जप, ४. तन्मात्रा साधन, यह चार साधन प्रधान रूप से आते हैं, इन चारों को मनोमय कोश की साधना में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है।

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