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आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री की युगांतरीय चेतना

गायत्री की युगांतरीय चेतना

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15483
आईएसबीएन :00000

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गायत्री साधना के समाज पर प्रभाव

नवयुग का आगमन और प्रज्ञावतार


भविष्य में ऐसे स्वर्णिम युग की संभावना सुनिश्चित है, जिसमें मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्गीय वातावरण प्रत्यक्ष देखा जा सकेगा। सृष्टा ने अपने इस विस्व उद्यान को बड़े ही अरमानों को दाब पर लगाकर सूजा है। वह उसे सहज ही नष्ट नहीं होने दे सकता। पतनोन्मुख प्रवृत्तियाँ ढलान की ओर लुढ़कने वाले पानी की तरह हैं वे अपने साथ-साथ लोक मानस को भी निकृष्टता के गर्त में गिरने के लिए घसीटती चली जाती है और विनाश की विभीषिका सामने आ खड़ी होती हैं। इतने पर भी सृष्टा की सजगता बनी ही रहती है और वह अपने प्रबल प्रयत्न से असन्तुलन को सन्तुलन में बदल ही देता है।

अवतरण प्रक्रिया इसी को कहते है। बड़े हुए अधर्म का निराकरण और घटे हुए धर्म का अभिवर्धन, यही होता है अवतारों का प्रयोजन। अवतारी शक्तियों विकृतियों से जूझतीं और सतवृत्तियों को उछालती हुई अपनी जीवन लीला का परिचय देती है।

इन दिनों विनाश की विभीषिकाएँ काली घटाओं की तरह पूरे आकाश में छाई हुई हैं। आश्चर्य यह है कि साधनों का बाहुल्य होते हुए भी यह सब हो रहा है। विकृतियों के गगनचुम्बी होने के समय तो इतिहास में पहले भी आये हैं, पर वे इतने भयानक नहीं हो सके जितने इन दिनों है। भूतकाल में असुरों के अत्याचार आक्रमणपरक होते थे। भौतिक साधनों से वे प्रहार करते थे, फलतः अवतार उन्हें उसी स्तर की शक्ति से मरोड़ कर रख देते थे। राव, कंस, हिरण्यकश्यप महिषासुर, वृत्रासुर आदि के आक्रमण-अत्याचारों को अवतारों ने अस्त्र-शस्त्रों से ही निरस्त किया था। दूसरे प्रकार की विनाश बिभीष्णिकाएँ अभावों के रूप में सामने आती रही है। अन्न, जल आदि साधनों के अभाव में नीति और धर्म को तिलांजलि देने वाले लोगों की गतिविधियों को देखकर 'विभूक्षित: किं न करोति पाप, की उक्ति याद आ जाती है। भूखी सर्पिणी अपने ही अण्डे-बच्चों को निगलती देखी गई है। मनुष्य की अधःपतित मनःस्थिति भी ऐसे ही कुकृत्य करती और अपने ही पाप में आप ही जलती देखी जाती है। एसे अवसरों पर अवतारों का क्रिया-कलाप अभावों को दूर करने और समृद्धि के प्रोत संचार करने का होता है। भगवती दुर्गा तो असुर निकन्दनी कहलाती है, पर सरस्वती और लक्ष्मी तो समृद्धि ही बरसाती है। गंगावतरण इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। अभाव को दूर करने की प्रक्रिया भी अनय का धंस करने के समतुल्य है। अवतार सत्ता का यह महत्वपूर्ण कार्य रहा है। भारतीय धर्म में दस एवं चौबीस अवतारों का अधिकांश का कार्य अन्याय और अभावें को दूर करने और शान्ति की सुखद संभावना उत्पन्न करना ही रहा है।

अपने युग की परिस्थितयाँ अपने ढंग की अनौखी हैं। इनमें न तो कंस और रावण की तरह आक्रमण उत्पीड़न हैं और न दुर्भिक्ष, दुर्घटना जैसा कोई दैवी संकट। फिर भी स्थिति की विपन्नता ऐतिहासिक महासंकटों की तुलना में कहीं अधिक भयानक है। विपत्ति का नया स्वरूप है-आस्था संकट। मानवी अन्तराल में ऐसी मान्यताओं ने जड़ जमा ली है जिन्हें आदर्शों के प्रति अनास्था कह सकते है। संकीर्ण स्वार्थपरता पर आधारित विलासी अहमन्यता ही आज जन-जन की आराध्य बन र्ग्य है। लोभ और मोह की ललक दावानल की तरह बढ़ रही है और अपनी लपटों में उस सबको लपेट रही है जिसे मानवी गरिमा के रूप में देखा और जाना जाता रहा है।

निश्चित ही अपने युग का महादैत्य 'आस्था संकट' है। वह जनमानस की गहरी परतों तक प्रवेश पाने में सफल हो गया है, इतनी गहराई तक भौतिक उपाय-उपचारों का फ्रेश नहीं हो सकता। दलदल में फँसे हाथी को चतुर हाथी ही अपनी बुद्धिमत्ता के सहारे बाहर निकाल पाते हैं। अनास्था के निराकरण में भाव श्रद्धा की प्रखरता ही समर्थ हो सकती है। इसलिए इस बार युग अवतार कतरा प्रज्ञा के रूप में हो रहा है। गायत्री महाशक्ति का अवतरण ही अपने युग के आस्था संकट को दूर करने का एक मात्र आधार हो सकता था, वही हो भी रहा है।

अब से 2500 वर्ष पूर्व प्रज्ञा कतरण का एक खण्ड धर्मचक्र प्रवर्तन के रूप में अपनी इसी अवतारों की क्रीड़ाभूमि से प्रादुर्भूत हुआ था। उसने 'बुद्ध शरणं गच्छामि का उद्‌घोष किया था। जन-मानस को बुद्धि की शरण में जाने की, प्रज्ञा का अवलम्बन ग्रहण करने की प्रेरणा दी थीं। मूर्खताओं और दुष्टताओं को उसने एक साथ ललकारा था। विगत का निकटतम अवतार बुद्ध को माना जाता है। उनने अपने समय की आवश्यकता-साधनों के अनुरूप एक विशाल हेन्न में पूरी की थी। समूचा एशिया महादीप उस आलोक से अआणित हुआ था। प्राय: ढाई लाख नर-नारियों ने तत्कालीन अवतार प्रक्रिया का सहयोग करने के लिए अपने भाव भरे अनुदान प्रस्तुत किये थे। जीवनदानी, चीवरधारी, भिक्षुगण भारतभूमि के कोने-कोने में फ्लैए और सुदूर देशों में अनेकानेक असुविधाओं का सामना करते हुए चले गये थे। 'धम्म शरणं गच्छामि' का मार्गदर्शन उस सृजन-सेना ने घर-घर पहुँचाया और जन-जन को पुण्य प्रयोजन का सहभागी बनने के लिए सहमत किया। वह एक बड़ी क्रान्ति थी। शताब्दियों का छाया कुहासा उनने धोकर साफ किया था। बौद्धिक क्रान्ति के देवता भगवान बुद्ध को भाव परिष्कार के क्षेत्र में अधिक स्पष्टतापूर्वक देखा जाता है। यों तो सप्त ऋषियों से लेकर अन्यान्य महामानव भी इसी दिशा में बहुत कुछ करते ही रहे हैं।

बहुधा किसी भयंकर क्षत-विक्षत घायल के लिए जब कई बड़े आपरेशन आवश्यक होते हैं तो कुशल चिकित्सक उस कार्य को एक बार ही निपटा देने की उतावली नहीं करते। बीच-बीच में विराम देकर ऑपरेशनों की श्रृंखला चलाते है। यों आमतौर से तो साधारण घायलों की जोड़-गाँठ एक बार में ही कर दी जाती है पर अनेक अवयव क्षत-विक्षत हो गये हो तो खण्ड उपचार का सहारा लेने से ही रोगी की प्राणरक्षा शक्य दीखती है अन्यथा घायल की सहनशक्ति जबाव दे सकती है और चिकित्सक का एक बार ही सब कुछ कर देने का निर्णय हानिकारक सिद्ध हो सकता है। इसलिए एक साथ सम्पूर्ण के स्थान पर थोड़ा-थोड़ा कई बार की नीति भी कई बार अधिक उपयोगी समझी जाती है। जनमानस में गहराई तक घुस पड़ी विकृतियों के निष्कासन के सम्बन्ध में भी महाकाल ने यहीं नीति अपनाई प्रतीत होती है। प्रथम चरण में बौद्धिक क्रान्ति बुद्ध के नेतृत्व में हुई, अब क्रन्ति ज्ञानयज्ञ की लाल मशाल के रूप में सम्पादित हो रही है।

पिछले अन्धकार युग में नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक स्तर की जो भ्रष्टताएँ चलती रही हैं, उनसे सूक्ष्म जगत का सारा वातावरण अनाचारी प्रदूषण से भर गया है। रेडियो विकरण की तरह इसी का भयावह प्रभाव प्राणियों-पदार्थों विशेष कर मनुष्यों को प्रभावित कर रहा है। दुष्टता के तत्व इन सबको महामारी के विषाणुओं की तरह प्रभावित करते हैं। वातावरण में सर्दी-गर्मी भरी होती है तो उसका प्रभाव सर्वत्र दीखता है। वायु मण्डल में बीमारियाँ भर जाती हैं, तो भले चंगे आदमी भी रोग-शैया पर गिरते और मौत के चंगुल में अनायास ही जा फँसते हैं। वसन्त और वर्षा का प्रभाव वनस्पतियों से लेकर प्राणियों तक की मनःस्थिति पर प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है। इस परोक्ष वातावरण के अनुरूप ही युगों का नामकरण किया जाता है। युग परिवर्तन का आध्यात्मिक स्वरूप सूक्ष्म जगत में संव्याप्त वातावरण को परिस्कृत करना ही समझा जाना चाहिए। विकृतियाँ जिस क्षेत्र में घुसी हुई हैं, सुधार परिवर्तन का लक्ष्य भी उसी में उथल-पुथल एवं सुधार करना हो सकता है। यह कार्य भौतिक उपचारों से नही वरन् आत्मशक्ति के प्रचण्ड प्रयोग से ही सम्भव है।

इस समय की परिस्थितियों पर विचार करते है तो प्रतीत होगा कि स्थिति बड़ी ही विचित्र और विलक्षण है। प्रष्ट चिंतन के कारण उत्पन्न हुए बुद्धिप्रम ने लोगों के मस्तिष्क को उन्मादी और सनकी जैसा बना दिया है। खीझ और तनॉव के कारण लोग पूरे दिन तनास्टस्त- बेचैन दिखाई देते हैं। इसके अतिरिक्त स्नेह, सौहार्द विश्वास, सहयोग जैसे सहभाव इसी आग में गलते और जलते चले आ रहे हैं। अन्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य की जो गरिमा बताई गई है वह भौतिक साधनों की दृष्टि से भले दृष्टिगोचर होती है। परन्तु मन, परिवार, समाज के क्षेत्रों में हो उसकी समाप्ति ही होती जाती है और लगता है कि प्राणियों को सौम्य-सरल जीवन का जो आनन्द मिलता है मनुष्य उसे गँवा बैठेगा।

यही हाल सामाजिक कुरीतियों, राजनैतिक दुरभि-संधियों अन्य-परम्पराओं तथा पारस्परिक व्यवहार में छद्य-मूर्तताओं का है। इस तरह की प्रवृत्तियाँ जिस तेजी से बढ़ रही हैं उन्हें देखते हुए लगता है कि सहजीवन के आधार नष्ट होते जा रहे हैं और मक्य न्याय का, जंगली कानून का बोलवाला होने जा रहा है। बढ़ते हुए अनाचार ने व्यक्तिगत जीवन में सामाजिक राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय जीवन में इतनी समस्याएँ उत्पन्न कर दी है जिनके हल मिल नहीं रहे है। अणु-आयुधों ने इस सुन्दर पृथ्वी का अस्तित्व ही समाप्त करने की तैयारी कर रखी है। द्रुतगति से बढ़ती हुई जनसंख्या महाविनाश की पूर्व सूचना है। रोकथाम के सारे प्रयत्नों को झुठलाती हुई अपराधों की बाढ़ आ रही है और एक से एक घिनौने क्रूर कर्म देखने-सुनने को मिल रहे है। सब मिलाकर स्थिति का पर्यवेक्षण किया जाता है तो लगता है कि बाहर से टिपटॉप दीखते हुए भी मानवता की काया क्षय और कैन्सर रोगों की तरह मरणासन्न स्थिति की ओर तेजी से बढ़ रही है।

इन परिस्थितियों को मनुष्य कृत सामान्य प्रयत्न कदाचित् ही संभाल सकते हैं। प्रगति के लिए प्रयत्नशील नेतृत्व ने हर मोर्चे पर असफलता अनुभव की है और निराशा व्यक्त की है। ऐसे असन्तुलन को सन्तुलन में बदलने का महान् कार्य सृष्टा की सूक्ष्म चेनता और दिव्य प्रेरणा ही सम्पन्न कर सकती है। यही कार्य इन दिनों हो रहा है। समय की आवश्यकता के अनुरूप महाकाल की प्रचण्ड हलचलें युग अवतार का उद्‌देश्य पूरा करने के लिए क्रमश: अधिकाधिक प्रखर होती चली जा रही है।

नवयुग में मानव समाज की आस्थाएँ किस स्तर की हों, किन मान्यताओं से अग्राणित हों? इसका निर्णय-निर्धारण किया जाना चाहिए। मात्र विचार क्षेत्र की अवांछनीयता को हटा देना ही पर्याप्त न होगा। मूढ़ मान्यताओं को हटा देने पर जो रिक्तता उत्पन्न होगी उसकी पूर्ति परिस्तृत अवस्थाओं को ही करनी होगी। स्वास्थ, शिक्षा, आजीविका, सुरक्षा जैसी सुविधाएँ आवश्यक तो है और उनके उपार्जन अभिवर्धन में किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती, किन्तु इन साधनों तक ही सीमित रह कर किसी समस्या का समाधान नहीं होता, उसका उपयोग करने वाली चेतना का परिस्कृत होना आवश्यक है अन्यथा बड़े हुए सुविधा-साधन दुष्ट-बुद्धि के हाथ में पड़कर नई समस्यायें और नई विपत्तियों उत्पन्न करेगे। दुष्ट जब शारीरिक दृष्टि से बलिष्ठ होता है तो रू कर्मों पर उतारू होता है और आततायी जैसा भयंकर बनता है। चतुर और बुद्धिमान होने पर ठगने-सताने के कुचक्र रचता है। धनी होने पर व्यसन और अहंकार के सरंजाम जुटाता है और अपने तथा दूसरों के लिए क्लेश-विद्वेष के सरंजाम खड़े करता है। अन्यान्य कला-कौशल गिराने और लुभाने के लिए प्रयुक्त होते हैं। सुरक्षा सामग्री का उपयोग दुर्बलों के उत्पीड़न में होता है।

अपने युग की सबसे बड़ी विडम्बना एक ही है कि साधन तो बढ़ते गये किन्तु उनका उपयोग करने वाली अन्तःचेतना का स्तर ऊँचा उठाने के स्थान पर उल्टा-गिरता चला गया। फलत: बड़ी हुई समृद्धि-उत्थान के लिए प्रयुक्त न हो सकी। आंतरिक भ्रष्टता ने दुष्टता की प्रवृत्तियों उत्पन्न कीं और उनके फलस्वरूप विपत्तियों की सवनाशी घटाएँ घिर आयी। समृद्धि के साथ शालीनता का गुथा रहना आवश्यकता है अन्यथा प्रगति के नाम पर किया गया श्रम दुर्गति की विभीषिकायें ही उत्पन्न करता चला जायेगा।

व्यक्तित्व की उत्कृष्टता ही मनुष्य की सबसे बड़ी सफलता और सम्पन्नता है उसी के आधार पर मनुष्य सुसंस्कृत बनता है, आत्म-संतोष श्रद्धा, सम्मान, जन-सहयोग एवं देवी अग्रह प्राप्त कर सकने में सफल होता है। यही वह तत्व है जिसके सहारे भौतिक जीवन में बढ़ी-चढ़ी उपलब्धियाँ करतलगत होती है। साधनों का सही उपार्जन और सही उपयोग भी उसी आधार पर बन पड़ता है, इसके अभाव में इन्द्र और कुबेर जैसे सुविधा-साधन होते हुए भी मनुष्य खिन्न और विपन्न ही बना रहेगा। स्वयं उद्विग्न रहेगा, दुःख सहेगा और समीपवर्ती लोगों के लिए संकट एवं विक्षोभ उत्पन्न करता रहेगा।

अपने युग की सबसे बड़ी आवश्यकता व्यक्तियों की अन्तः-भूमिका को अधिक सुसंस्कृत और समुन्नत बनाने की है। यह कार्य समृद्धि-समर्शन से अधिक महत्वपूर्ण है। उसकी उपेक्षा की जाती रहेगी तो तथाकथित शीलता पिछड़ेपन से भी अधिक मँहगी पड़ेगी। नवयुग की सुखद परिस्थितियों की संभावना का एक मात्र आधार यही है कि व्यक्ति का अन्तराल उत्कृष्ट बनेगा। दृष्टिकोण में उदारता, चरित्र में शालीनता का समावेश होगा तो निश्चित रूप से वैयक्तिक जीवनक्रम में देवत्व उभरेगा, ऐसे देवमानवों की सामूहिक गतिविधियाँ स्वर्गोपम परिस्थितियाँ उत्पन्न करती हैं। मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का उपहार लाने वाले नवयुग का सारा ढाँचा ही इस आधारशिला पर खड़ा हुआ है कि व्यक्ति का अन्तराल परिस्कृत होना चाहिए। उसे विवेक, चरित्र और व्यवहार की दृष्टि से अधिक उत्कृष्ट होना चाहिए। विकास की सर्वतोमुखी आवश्यकताओं की पूर्ति इसी आधार पर सम्भव है।

प्रश्न यह उठता है कि अन्तराल को स्पर्श किस उपकरण से किया जाय? उसे सुधारने के लिए क्या उपाय काम में लाया जाय? इस दिशा में अब तक दण्ड का भय, पुरस्कार का प्रलोभन और सज्जनता का प्रशिक्षण-यह तीन ही उपाय काम में लाये जाते हैं। किन्तु देखा गया है कि इन तीनों की पहुंच बहुत उथली है उनसे शरीर और मस्तिष्क पर ही थोड़ा-सा प्रभाव पड़ता है। वह भी इतना उथला होता है कि अन्तराल में जमीं आवश्यकताओं का स्तर यदि निकृष्टता का अभ्यस्त और कुसंस्कारी बन चुका है, तो इन ऊपरी उपचारों से व्यक्तित्व का स्तर बदलने में कोई विशेष सहायता नहीं मिलती। पुलिस, जेल, कठोरता सम्पन्न कानूनों की कमी नहीं। प्रतिरोध और दण्ड व्यवस्था के लिए भी खर्चीला तंत्र मौजूद है, पर देखा जाता है कि मनुष्य की चतुराई इस पकड़ से बच जाने के अनेक तरीके निकाल लेती है। सज्जनता के पुरस्कार पाने में देर लगती है और मात्रा भी थोड़ी होती है। धूर्तता सोचती है कि उससे तो कहीं अधिक कमाई छद्म उपायों के सहारे की जा सकती है। इसी प्रकार नीतिमत्ता के पक्ष में किया गया प्रशिक्षण भी एक प्रकार से बेकार ही चला जाता है। देखा गया है कि अनीति अपनाने वाले भी नीति के सिद्धान्तों का जोर-शोर से समर्थन करते हैं। करनी कुछ भी हो कथनी में अनाचारों की भर्त्सना और आदर्शों की प्रशंसा ही करते पाये जाते है। इससे स्पष्ट है कि नीति के पथ में उनका मस्तिष्क पहले से ही प्रशिक्षित है। पड़े को क्या पढ़ाया जाय? जागते को क्या जगाया जाय? शरीर पर लगाये गये बन्धन, मन को दी गई सिखावन अन्य प्रयोजनों में भले ही सफल हो सके, अन्तराल को उत्कृष्टता की दिशा में ले जाने का उद्‌देश्य बहुत ही सीमित मात्रा में पूरा कर पाते हैं।

मानवी सत्ता का एक अत्यन्त गुप्त और अत्यन्त प्रकट रहस्य यह है कि व्यक्तित्व की जड़ें आस्थाओं के अन्तराल में रहती हैं। कोई क्या है? इसे जानने के लिए उसका शरीर, मन और वैभव देखने से कुछ भी काम नहीं चलेगा। स्थिति और सामर्थ्य का मूल्यांकन उसके अन्तराल का स्तर जानने के उपरान्त ही हो सकता है। समूची सामर्थ्य उसी केन्द्र में छिपी पड़ी है। आस्था के अनुरूप आकांक्षा उठती है, आकांक्षा की पूर्ति में मस्तिष्क कुशल वकील की तरह बिना उचित-अनुचित की जाँच पड़ताल किए पूरी तत्परता के साथ लग जाता है। मन का गुलाम शरीर है, शरीर वफादार नौकर की तरह अपने मालिक मन की आज्ञा का पालन करने में लगा रहता है। यन्त्र अपने चालक का आज्ञानुवर्ती होता है। शरीर की समस्त हलचलें मन के निर्देश का अनुगमन करती हैं, मन आकांक्षाओं से प्रेरित होता है और आकांक्षाएँ आस्थाओ के अनुरूप उठती हैं। तथ्यत: आस्थाओं का केन्द अन्तःकरण हो मानवी सत्ता का सर्वस्व है।

आस्थाओं का मर्मस्थल अत्यन्त गहरा है। उतनी गहराई तक राजकीय कानून सामाजिक नियम, तर्क-प्रशिक्षण जैसे उपचार यत्किंचित ही पहुंच पाते हैं। आस्थाओं की प्रबल प्रेरणा इन सब आबरणों को तोड़कर रख देती है। ऐसा न होता तो धर्मोंपदेशक धर्म विरोधी आचरण क्यों करते? लोकसेवा का आवरण ओढ़े सत्ताधारी यों लोक अहित की गतिविधियों में छद्म रूप से निरत रहते। शान्ति और व्यवस्था बनाये रहने के लिए नियुक्त अधिकारी क्यों गुप्त रूप से अपराधी तत्वों के साथ साँठ-गॉठ रखते? स्पष्ट है कि सारे नियम, प्रतिबन्ध, तर्क और आदर्श एक कोने पर रखे जाते हैं और आस्थाओं में घुसी निकृष्टता अपनी विजय दुचुभी बजाती रहती हैं।

आज की युग विपन्नता के मूल में आस्थाओं का दुर्भिक्ष ही एक मात्र कारण है। इस संकट को कैसे दूर किया जाय? जब कि प्रभावशाली समझे जाने वाले उपचार भी उस गहराई तक पहुँचने और आवश्यक परिवर्तन प्रस्तुत करने में असमर्थ रहते हैं।

उत्तर एक ही है कि आस्थाओं के सहारे आस्थाओं का उपचार किया जाये। जंगली हाथी को पालतू हाथी पकड़कर लाते हैं। काँटे से काँटा निकालते हैं और होम्योपैथी प्रतिपादन के अनुसार विष ही विष की औषधि है। उत्कृष्ट आस्थाओं की स्थापना से ही निकृष्ट आस्थाओं का निराकरण होता है। लाठी का जबाव लाठी और घूँसे का जवाब ऐसा वाली उक्ति सर्वविदित है। लोहे को लोहा काटता है। गड्‌ढे में गिरे हुए को गड्‌ढे में उतरकर ही निकालना पड़ता है। आस्थाओं में घुसी हुई निकृष्टता का निराकरण उस सेत्र में उत्कृष्टता की मान्यताएँ स्थापित करने से ही सम्भव है व्यक्ति को परिस्कूत करने का प्रमुख उपाय यही है।

उपासना और साधना का उद्‌देश्य अन्तःक्षेत्र में उच्चस्तरीय श्रद्धा का आरोपण, परिपोषण एवं अभिवर्धन करना है। शरीर से शरीर लड़ते है विचारों से विचार जूझते हैं और आस्थाओं में आस्थाएँ ही परिवर्तन एवं परिष्कार उत्पन्न करती हैं।

गायत्री में सन्निहित ब्रह्मविद्या का तत्वज्ञान अन्तःकरण को प्रभावित करके उसमें सतृश्रद्धा का अभिवर्धन करता है। स्वाध्याय, सत्संग, मनन, चिन्तन जैसी भाव संवेदनाओं को छू सकने वाला प्रशिक्षण ही अन्तरात्मा को बदलने एवं सुधारने में समर्थ हो सकता है। जीव का ब्रह्म से आत्मा का परमात्मा से छुटता का महानता से संयोग करा देना ही योग है। योग का तात्पर्य है-सामान्य को असामान्य से व्यवहार को आदर्श से जोड़ देना। इस उपचार से आस्थाओं के परिष्कार की आवश्यकता भली प्रकार पूरी हो सकती है। युग परिवर्तन चक्र से जन-जन को अवगत कराया जाना चाहिए। इसके लिए जो भी मानवी पुरुषार्थ किए जायेगे उनके पीछे महाकाल की प्रचण्ड सामर्थ्य-सहयोग और शक्ति ही आधारभूत भूमिका निभायेगी। वस्तुत: इस तरह के प्रयासों का स्वरूप भले ही मानवी दिखाई दे पर वह महाकाल की प्रबल प्रेरणाओं का ही अभिनय होगा, जिसके पीछे कठपुतली के खेल में बाजीगर की उँगलियाँ ही परोक्ष रूप से काम करती हैं। युग परिवर्तन के लिए प्रयुक्त होने वाली प्रक्रिया को त्रिविध कहा जा सकता है। उसके तीन पक्ष हैं-पहला तत्वज्ञान, दूसरा प्रयोग विधान और तीसरा देवत्व का अभ्युत्थान। युग परिवर्तन के संदर्भ में त्रिपदा गायत्री के तीन चरणों का यही त्रिविध कार्यक्रम है।

'तत्वज्ञान' का तात्पर्य है-आत्मशक्ति की विस्मृत और विलुप्त गरिमा से जनसाधारण को परिचित करना। भौतिक साधनों की तुलना में उसकी विशिष्टता तर्क, प्रमाण और अनुभव के आधार पर स्वीकृत करना। समस्त समस्याओं का एकमात्र हल और उज्ज्वल भविष्य का प्रधान आधार आत्म परिष्कार को समझा जाना चाहिए।

'प्रयोग विधान' का अर्थ है कि गायत्री महाशक्ति के सहारे व्यक्ति के अन्तराल में नव जागृति एवं जीवन्त स्फुरणा का विकसित होना। इसके लिए योगाभ्यास और तप साधना के छोटे-बड़े साधना विधानों का अपनाया जाना, नित्य कर्म की साधारण उपासना से लेकर कुण्डलिनी जागरण और पंचकोशों के अनावरण प्रयोग इसी गणना में आते है। भौतिक सिद्धियों और आत्मिक ऋद्धियों का क्षेत्र इन्हीं अभ्यासों में सन्निहित है।

देवत्व का अभ्युत्थान युग परिवर्तन की विधि-व्यवस्था एवं नवयुग की आचार संहिता का निर्धारण समझा जा सकता है। व्यक्ति की आस्थाएँ और गतिविधियों, समाज की परम्पराएं और व्यवस्थाएं क्यों होंगी? वर्तमान और भविष्य में क्या अन्तर होगा? इसकी जानकारी एवं तैयारी इसी क्षेत्र में आती है।

गंगा का अवतरण हिमालय पर हुआ था और उसका विकास-बिस्तार आर्यावर्त से लेकर गंगासागर तक हुआ है। गायत्री का अवतरण जनमानस में होगा। आत्म साधना हर व्यक्ति को सर्वप्रमुख और सर्वसुखद कृत्य प्रतीत होगा। इस मार्ग पर चलने वालों का भीतरी और बाहरी स्वरूप ऐसा बन जायेगा जिसे मनुष्य में देवत्व का उदय कहा जा सकेगा। परिस्तृत व्यक्तियों की सामूहिक गतिविधियों में शालीनता का अधिकाधिक समावेश होगा तो परिस्थितियाँ सहज ही ऐसी बनती चली जायेगी जिन्हें धरती पर स्वर्ग के अवतरण की संज्ञा दी जा सके।

गायत्री मन्त्र यों संस्कृत भाषा का हिन्दू धर्म में प्रचलित वेदमंत्र है और इस समुदाय में दैनिक उपासना से लेकर आत्मीत्कर्म की विशेष साधना-तपश्चर्या के काम आता है। यह उसका छोटा-सा प्रयोगात्मक परिचय है। वस्तुत: गायत्री अध्यात्म विद्या की त्रिवेणी है जिसमें प्रकृति के सत्, रज-तम जीव के सत्य शिव सुन्दरम् और ब्रह्म के सतू चिढ़ आनन्द गुणों की दिव्य धाराएँ गुथीं हुई हैं। उसका तत्वज्ञान सार्वभौम है उसके प्रयोग सर्वजनीन हैं उसका आलोक स्वर्गीय संभावनाओं से भरा-पूरा है। मार्गदर्शन में समूची मनुष्य जाति अपने स्वरूप और भाग्य का नया निर्माण करेगी। भाषा, धर्म देश आदि की समस्त परिधियों को निरस्त करती हुई युग शक्ति गायत्री प्रस्तुत विभीषिकाओं के निवारण में गंगावतरण द्वारा सगर-पुत्री के पुनरुद्धार जैसी भूमिका सम्पादित करेगी। इस सुनिश्चित तथ्य को हम सब इन्हीं अस्त्रों से देख सकने में समर्थ होगे।

युग अवतरण काल की हलचलों पर दृष्टिपात करने से पता चलता है कि जागृत आत्माओं की उस ईश्वरीय पुण्य प्रयोजन में विशेष भूमिका रही है। युग प्रवाह तो मूक्ष होता है। उस आलोक द्वारा अन्तःकरण प्रभावित किए जाते हैं और उमगें उत्पन्न की जाती है। महाकाल की भूमिका उस अवसर पर इतनी ही होती है। उस प्रेरणा को क्रियाचित करना उनका काम रहता है जिन्हें जीवित, जागृत विशिष्ट, महामानव स्तर के कहा जाता है। आदर्शों के लिए बढ़-चढ़कर त्याग, बलिदान करने वाले महामानव ही देवमानव कहलाते हैं। उन्हीं का दुस्साहस सामान्य जन समुदाय में अनुगमन का उत्साह उत्पन्न करता है। अगमन ही कठिन पड़ता है, पीछे चलने वालों का समूह तो साहसिक लोगों को उपलब्ध हो ही जाती है।

पुराणों में वर्णित अवतार गाथाओं में से प्राय: प्रत्येक के साथ यह प्रसंग जुड़ा हुआ है कि धर्म सन्तुलन बनाने के लिए जब भगवान धरती पर आये तो उनके साथ देव मण्डली भी उस महाभियान में हाथ बेटाने के लिए साथ-साथ आयीं। देवताओं ने पाण्डवों, रीछ-वानरों आदि के रूप में जन्म लिया और साहसिक धर्म सहयोग का उदाहरण उपस्थित करते हुए जनमानस का प्रवाह मोड़ा। आज भी ऐसे देवमानवों की, जागृत आत्माओं की कमी नहीं जो युग अवतरण की इस पुण्य बेला में अपनी भूमिका निभाकर युग गाथा की परम्परा में अपने सहयोग का अध्याय जोडूँग। परिवर्तन की प्रक्रिया को पूर्ण करने के लिए यह उचित भी है और आवश्यक भी है।

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