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आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री की युगांतरीय चेतना

गायत्री की युगांतरीय चेतना

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15483
आईएसबीएन :00000

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गायत्री साधना के समाज पर प्रभाव

वेदमाता-देवमाता-विश्वमाता


वेदमाता का रूप धारण करके गायत्री महाशक्ति ने इसी धरती पर अपने प्रथम अवतरण का परिचय दिया। मनुष्य को जिस ज्ञान और विज्ञान की आवश्यकता थी वह उसने इस उद्‌गम झोत से पाया। जब अधिक समझने की जिज्ञासा हुई तो गायत्री के शीर्ष और तीन चरण-इन चारों खण्ड विजनों की सुविमत व्याख्या- विवेचना करने के लिए चार बेदी का प्रकटीकरण हुआ।

गायत्री महाशक्ति का अवतरण वेदमाता के रूप में हुआ उसकी प्रखरता अरि परिपक्वता का परिचय देवमाता के रूप में सामने आया। यतम्भरा प्रज्ञा की अन्तराल में प्रतिष्ठापना होने के उपसन्त विचारणा का स्तर उस ऊँचाई तक जा पहुँचा है जिसे ब्रह्मलोक कहते हैं। शरीर पर मनःचेतना का परिपूर्ण नियन्त्रण है, जैसा सोचा जाता है, वैसा कर्म अनायास ही होने लगता है। उत्कृष्ट चिंतन की परिणति आदर्श कर्तृत्व में होनी चाहिए। गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता के धनी व्यक्ति ही देवता कहलाते हैं। मान्यता है कि देवताओं का निवास स्वर्ग में है।

इसका स्पष्टीकरण इतना ही है कि जहाँ श्रेष्ठ व्यक्ति रहते हैं वहाँ उनके आचरण-व्यवहार से वातावरण में स्वर्गीय सुख-शान्ति ' दृष्टिगोचर होती है। सज्जनता की सहज परिणति समृद्धि और प्रगति में होती है, उसके फलस्वरूप सन्तोष और आनन्द की मनःस्थिति एवं परिस्थिति सर्वत्र बिखरी पड़ती युगांतरीय चेतना है। इसी वस्तुस्थिति को पौराणिक भाषाओं में देवताओं का निवास स्वर्ग में होने की बात की जाती रही है।

गायत्री को प्रखरता की स्थिति में देवमाता कहा गया-इस प्रतिपादन में उचित निर्धारण है। सृष्टि का, आदिकाल का वेदमाता स्वरूप प्रगति के मध्यकाल में 'देवमाता' बन गया। इतिहासकार इसी युग का वर्णन सतयुग के नाम से करते हैं, उसे 'देवयुग' भी कहा जा सकता है। उन दिनों भारत के नागरिक संसार भर में जनसंख्या के आधार पर तैतीस कोटि देवता माने जाते थे। उनके उच्चस्तरीय व्यक्तित्व सहज ही यह लोक-सम्मान अर्जित कर रहे थे। उन दिनों की परिस्थितियों इतनी सुसम्पन्न एवं सुखद थीं कि इस समृद्धि से लदी हुई भारतभूमि को संसार भर में एक स्वर से स्वर्गादपि गरीयसी कहा जाता था। भारत को जगद्‌गुरु और चक्रवर्ती शासक कहलाने का श्रेय उन्हीं दिनों मिला था। उनने अपनी उत्कृष्टता को समस्त संसार में बखेरा था, फलतः कृतज्ञता के भावभरे उपहार इस देशवासियों को मिलते थे, उन्हीं दिनों की भारतीय संस्कृति देव संस्कृति कही जाती थी। उस गौरव भरे अतीत की चर्चा करते हुए इस गई-गुजरी स्थिति में भी हमारा मस्तक सहज ही ऊँचा हो जाता है। गायत्री तत्वज्ञान का व्यवहार में समावेश होने की स्थिति का निरूपण करते इस प्रकटता का नाम देवमाता उचित ही दिया गया।

अवतरण और अभिवर्धन की दोनों कक्षाएं पार करके अब गायत्री महाशक्ति को विश्वमाता बनने की सुविस्तृत भूमिका निभानी पड़ रही है। इसे प्रौढ़ता और परिपूर्ण प्रचण्डता की स्थिति कह सकते हैं। दुर्गा अवतरण की प्रौढता उन दिनों थी जब उनने महिषासुर, मधुकैटभ, शुम्भ-निशुम्भ, रक्त-बीज आदि दुर्दान्त दैत्यों के साथ रोमांचकारी युद्ध करके उन्हें परास्त किया था। गायत्री की प्रस्तुत युगांतरीय चेतना को इसी स्तर का समझा जाना चाहिए। विचार क्रान्ति के रूप में उसके दावानल जैसे विस्तार को इन्हीं दिनों प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।

सामयिक परिस्थितियों की विषमता भयावह है। आन्तरिक विकृतियों ने मानवी गरिमा की जड़ें काटकर रख दी हैं। नीति का परित्याग करके लिप्सषस्त मनुष्य वह करने लगा है जो उसके लिए हर दृष्टि से अशोभनीय है। उत्कृष्टता के उत्तरदायित्वों का परित्याग करके निकृष्टता अपनाने वाले शीर्षस्थ मनुष्य ने सामूहिक आत्महत्या जैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर ली हैं। प्रगति के नाम पर दीखने वाले चकाचौंध से बुद्धि प्रम तो अवश्य ही होता है, पर वस्तुस्थिति यह है कि हम पतन के गर्त में गिरते और दुर्गति के अनेकानेक त्रास सहते. हुए मौत के दिन पूरे कर रहे हैं। लगता हं प्रलय जैसा महाविनाश किसी भी दिन वजपात की तरह सिर पर टूटने बाला है। सर्वत्र आतंक छाया हुआ है भावी आशंकाओं से जनमानस बुरी तरह भयभीत हो रहा है।

का अपनी बहुमूल्य कलाकृति इस विश्व वसुधा से असाधारण लगाव है इसलिए तो जब कभी लोक चेतना पर प्रष्टता की काली घटायें छाई हैं तभी उन्हें हटाने के लिए सन्तुलन बनाने के लिए भगवान के अवतार होते रहे हैं। 'यदायदाहि धर्मस्य...' का आस्वासन भूतकाल में उचित अवसर पर पूरा किया जाता रहा है। इन दिनों भी उसी की पुनरावृत्ति हो रही है। लोकमानस में घुसी दुष्प्रवृत्तियों का उनूलन करने के लिए इस बार उसका स्वरूप मतम्भरा प्रज्ञा कां ही हो सकता था। व्यापक क्षेत्र का परिशोधन, जनमानस का परिष्कार करने के लिए जिस दिव्य चेतना का अवतरण ऊँचे लोकों से धरती पर इन दिनों हो रहा है उसे युग शक्ति गायत्री कहा गया है। उसकी भूमिका विस्वमाता जैसी है उज्ज्वल भविष्य के निर्माण में उसी का आलोक काम करेगा। नवनिर्माण के लिए इन दिनों जिस प्रचण्ड आत्माक्ति की आवक्ष्यकता अनुभव की जा रही है। उनका दिव्य अनुदान संत्रस्त मानवता को युग शक्ति गायत्री के रूप में ही मिलने जा रहा है। व्यक्ति और समाज की समस्याओं का चिरस्थाई समाधान इसी माध्यम से सम्भव होगा।

भूतकाल में सम्भव है कि उस महाशक्ति को समुदाय जाति, लिंग आदि के घेरे में प्रतिबन्धित किया गया हो, पर अब अगले दिनों वैसा सम्भव नही। दीपक कैद हो सकता है, सूरज नहीं। युग शक्ति गायत्री पर धर्म-देश का अनुबन्ध नहीं होगा, वह सार्वभौम सर्वजनीन और सर्वसुलभ होगी। 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के आदर्शों का पालन करने के लिए विश्व मानब को आगे घसीटने और ऊँचा उछालने बाली दिव्य शक्ति को, संसार को सुन्दर बनाने का उपक्रम पूरा करना है। इसलिए उसकी व्यापकता को देखते हुए युग शक्ति के नाम से संबोधन किया जाना वस्तुस्थिति का परिचायक माना जायेगा। अवांछनीयता का ध्वंस और शालीनता का सम्बर्द्धन करने को दोनों ही बिशेषताएँ गायत्री मन्त्र में मौजूद है। उसके तत्वज्ञान और विधि-विधान में बे तत्व भरे पड़े हैं जिनके सहारे नये संसार का भौतिक एवं आत्मिक पुनरुत्थान भली प्रकार किया जा सके। विस्व शान्ति और विस्व समृद्धि का उभय पक्षीय प्रयोजन जिस दिव्य चेतना के माध्यम से इन दिनों हो रहा है उसे विश्वमाता हीं कहा जायेगा।

संस्कृत शब्दावलि में गुन्धित और उपासना उपचार में प्रयुक्त होने पर भी गायत्री मन्त्र को उतनी परिधि में सीमित नही किया जा सकता। उसका कार्यक्षेत्र और बिकास-बिस्तार अत्यधिक है। इतना व्यापक कि जिसे मनुष्य की हर समस्या के समाधान और हर सुखद संभावना का साधन मानने में किसी विचारशीलन को कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। नवयुग के अवतरण की सुखद संभावनाओं में गायत्री महाशक्ति की भूमिका ही प्रधान रहेगी।

बीज छोटा-सा होता है उसके अन्तराल में विशाल वृक्ष की समस्त विशेषताएं वृक्ष रूप में विद्यमान रहती हैं। परमाणु तनिक-सा होता है पर उसकी अन्तरंग क्षमता और गतिशीलता को देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। शुक्राणु में पाये जाने वाले गुण-सूत्र प्रत्यक्षतः बहुत ही तुच्छ होते हैं, पर उनमें महान मानव का अस्तित्व जमा बैठा होता है। गायत्री मंत्र को भी ऐसी ही उपमा दी जा सकती है। उसका आकार छोटा रहने और उपयोग तनिक-सा दीखने पर भी वस्तुत: संभावना इतनी व्यापक है कि उसे नई दुनियाँ गढ़ देने में समर्थ कहा जा सके।

ब्राह्मी चेतना की महाशक्ति गायत्री के दो रूप हैं-एक ज्ञान दूसरा बिज्ञान। ज्ञान पक्ष को उच्चस्तरीय तत्वज्ञान की, ब्रह्मविद्या की, कृतम्भरा की संज्ञा दी जा सकती है। इसका उपयोग आस्थाओं और आकांक्षाओं को उच्चस्तरीय बनाने के लिए आवश्यक प्रशिक्षण के रूप में किया जा सकता है। ज्ञानयज्ञ-बिचार क्रान्ति आदि के बौद्धिक उत्कृष्टता के साधन इसी आधार पर जुटते हैं। लेखनी, वाणी एवं दृश्य-श्रवण जैसे साधनों का उपयोग इसी निमित्त होता है। स्वाध्याय सत्संग, चिन्तन, मनन आदि की गतिविधियाँ इसी के निमित्त चलती हैं।

गायत्री का दूसरा पक्ष हैं-विज्ञान। उपासना एवं साधनो को अनेकों प्रथा पद्धतियों के रूप में यही विधि-विधान बिखरा पड़ा है। मोटे रूप से यह सब ऐसा प्रतीत हाता है कि किसी देवी-देवता की अभ्यर्थना करके कुछ मनोवांछित प्राप्त करने के लिए मनुहार करने जैसा है, किन्तु वास्तविकता ऐसी है नहीं। मानवी सत्ता के अन्तराल में इतनी महान् संभावनाएँ और क्षमताएँ प्रसुप्त स्थिति में भरी पड़ी है कि उन्हें प्रकारान्तर से ब्रह्मचेतना की प्रतिकृति 'ट्रू-कापी कहा जा सके। अन्तराल की प्रयुक्तता ही दरिद्रता है और उसकी जागृति में सम्पन्नता का महासागर लहलहाता देखा जा सकता है। जो उसे जगाने-साधने और सदुपयोग करने में समर्थ हो सकें उन्हें महामानव की संज्ञा दी गई है। उनने ऐतिहासिक भूमिकाएँ निबाही हैं। स्वयं धन्य बने हैं और अपने सम्पर्क सेत्र के जन समुदाय एवं वातावरण को धन्य बनाया है।

व्यक्ति का शरीर तो प्राय: साढ़े पाँच ल्प लम्बे और डेढ़ मन भारी काय कलेवर के रूप में दीखता है पर उसकी मूल सत्ता चेतना के गहवर में अन्तःकरण में छिपी बैठी है। बही जैसा भी वातावरण होता है उसी में चेतना को निर्वाह करना पड़ता है फलत: उसका स्वरूप भी वैसा ही बन जाता है। टिड्‌डे हरी घास में रहने पर हरे रहते है और सूखी घास में रहने पर पीले बन जाते हैं। अन्तःकरण का स्तर ही चेतना की उत्कृष्टता और निकृष्टता के लिए उत्तरदायी है। इस अन्तराल के मर्मस्थल का स्पर्श भौतिक उपकरणों से सम्भव नहीं हो सकता है। उतनी गहराई तक सचेतन उपचार ही पहुँचते हैं। गायत्री महामन्त्र की साधना- उपासना का प्रयोजन यही है। इसी उपाय-उपचार को गायत्री महाविज्ञानी कहते हैं। प्रसुप्त का जागरण उसका उद्‌देश्य है। मनुष्य की महानता इन्द्रियातीत है उसे सुधारने, उभारने एब उछालने के तीनों प्रयोजन पूरे करने वाली प्रक्रिया का नाम गायत्री उपासना है, इस विज्ञान पक्ष के सहारे भौतिक प्रगति के अनेकों आधार खड़े होते हैं। ज्ञानयज्ञ के अन्तर्गत चिन्तन और दृष्टिकोण में ऐसा परिष्कार होता है जिसे थीषकल्प कहा जा सके। व्यष्टि और समष्टि के दोनों ही पक्षों को समुन्नत बनाने के लिए गायत्री विद्या की उपयोगिता असाधारण है। सामयिक प्रयोजनों की पूर्ति के लिए उसी की भूमिका युग शक्ति के रूप में सम्पन्न होने जा रही है।

अधर्म के समस्त पक्षधर क्रिया-कलापों का नियमन करने और धर्मरक्षा के समर्थन में पुनरुत्थान का उद्‌देश्य लेकर समय-समय पर भगवान के अवतार होते रहे हें। इसके लिए सामयिक परिस्थितियों के अनुरूप समाधान प्रस्तुत किए जाते है। अवतार की यही लीलाएँ है। हर अवतार का उद्‌देश्य तो एक ही रहता है-समष्टि गत विकृत मनत्नस्थिति और विपन्न परिस्थिति का समाधान। इसके लिए अनीति विरोधी और नीति समर्थक गतिविधियों का सुनियोजन ही अवतार का एकमात्र कार्यक्रम होता है। इस कार्यक्रम का स्वरूप क्या हो? इसका निर्धारण सामयिक समस्याओं के स्वरूप को देखकर निर्धारित होता है। यही कारण है कि ईस्वर अवतरण के लक्ष्य एक रहते हुए भी विभिन्न अवतारों के क्रिया-कलापों में अन्तर पाया जाता है। भगवती-सरस्वती का अवतार बौद्धिकता की परिपुष्टि के लिए शिक्षा के लिए आवश्यक साधन एवं उत्साह साथ लेकर हुआ था। सरस्वती को बौद्धिकता एवं दुर्गा की सामाजिकता को क्रान्ति चेतना कहा जा सकता है। तीसरी शक्ति है-गायत्री। गायत्री है अन्त-क्षेत्र की आध्यात्मिकता और बाह्य क्षेत्र की नैतिकता। गायत्री अवतरण के साथ-साथ ही नीति-धर्म एवं अध्यात्म का अवतरण हुआ। वेद के माध्यम से तत्वज्ञान, अनुशासन और नीति-निर्धारण की व्यवस्था चली। लक्ष्मी चेतना पक्ष में नहीं जाती, वे भौतिकता एवं कला की प्रतीक है। अस्तु अवतरण प्रसंग में उनका, उनकी लीलाओं का उल्लेख नहीं होता है।

अपने युग की समस्त विकृतियाँ अपेक्षाकृत अधिक गहरी है। उनने मानवी अन्तराल में अनास्था के रूप में जड़ें जमाई है और चिन्तन एवं कर्तृत्व को भ्रष्ट करके रख दिया है। जनमानस का परिष्कार ही वर्तमान आस्था संकट के निराकरण का, समस्त समस्याओं के समाधान का एक मात्र उपाय है। उज्ज्वल भविष्य के आस्वासन का यही केन्द बिन्दु है। सुधार और उत्थान के अन्यान्य उपचार तो इसी केन्द्र बिन्दु के इर्द-गिर्द परिभ्रमण करते हैं। प्रस्तुत युग क्रान्ति को अनास्थाओं के उन्दुलन और आस्थाओं के आरोपण का लख पूरा करने में संलग्न देखा जा सकता है। अपने युग में ब्राह्मी चेतना के अवतरण का यही स्वरूप प्रकट होते देखा जा सकता है।

अवतार चर्चा में प्राय: नेतृत्व करने वाले व्यक्तियों को श्रेय मिलता रहा है। इसे चर्मचक्षुओं का स्मृल मूल्यांकन कहा जा सकता है। वस्तुतः युग परिवर्तन मूल जगत में उठने बाले तूफानी चेतना प्रवाह के रूप में दिव्य लोक से उठते-उभरते हैं। उससे प्रभावित होकर अगणित जागृत आत्माएँ कन्धे से कन्धे मिलाकर अपने-अपने ढंग से उत्तरदायित्वों का निर्वाह करती है। हर अवतार का यही तात्विक स्वरूप है। अगली लाइन में खड़े व्यक्ति का फोटो कैमरे में अधिक साफ आता है। इतने पर भी महत्व और अस्तित्व उस ग्रुप के सभी सदस्यों का होता है। अवतारों के नाम से प्रख्यात व्यक्तियों को अगली लाइन में खड़े विशेष नेतृत्व भर करने वाले श्रेयाधिकारी कहा जा सकता है। तत्वत: अवतार तो मूल जगत में कोलाहल मचाने वाली युग चेतना को ही समझा जा सकता है। नौ अवतरण पूरे हुए, अब दसवाँ अवतरण अपने समय का अबतार युग शक्ति गायत्री का है। अन्धकार युग का निराकरण और उज्ज्वल भविष्य का शुभारम्भ इसी दिव्य भावना के साथ प्रादुर्भूत होता हुआ हम सब अपने इन्हीं चर्मचसुओं से प्रत्यक्ष देख रहे है।

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