नई पुस्तकें >> गायत्री और उसकी प्राण प्रक्रिया गायत्री और उसकी प्राण प्रक्रियाश्रीराम शर्मा आचार्य
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गायत्री मंत्र का नामकरण
गायत्री मंत्र का नामकरण उसकी इसी विशेषता के आधार पर हुआ है, गायत्री शब्द के तीन अक्षरों में यही भावार्थ ओत-प्रोत है।
शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है-
सा हैषा गयांस्तत्रे। प्राणा वै गयास्तत्प्राणांस्तत्रे तद्यद् गयांस्तत्रे तस्माद् गायत्री नाम।
अर्थात् गय कहते हैं प्राण को। त्री अर्थात् त्राण, रक्षण करने वाली, जो प्राण की रक्षा करे उस शक्ति का नाम गायत्री हुआ।
और भी देखिये-
गयाः प्राणा उच्यन्ते, गयान् प्राणान् त्रायते सा गायत्री।।
‘गय' प्राण को कहते हैं, जो प्राणों की रक्षा करे उसे गायत्री कहते हैं।
गायत्रं त्रायते इति वा गायत्री प्रोच्यते तस्मात् गायन्तं त्रायते यतः।
प्राणों का संरक्षण करने वाली होने से उसे गायत्री कहा जाता है।
गायतस्त्रायसे देवि तद्गायत्रीति गद्यसे।
गय: प्राण इति प्रोक्तस्तस्य त्राणादपीति वा।।
जो गाने से त्राण (रक्षा) करे वह देवी गायत्री कही जाती है अथवा (जो गय अर्थात् प्राणों का त्राण करने वाली है वह गायत्री है।
गातारं त्रायते यस्माद् गायत्री तेन गीयते।
गायन करने वाले की त्राण उद्धार करती है, इसलिए उसे गायत्री कहते हैं।
तेषां एते पञ्च ब्रह्मपुरुषाः स्वर्गस्य लोकस्य द्वारपाः ये एतानेवं पंचब्रह्म पुरुषान् स्वर्गस्य लोकस्य द्वारपान् वेदास्य कुले वीरो जायते प्रतिपद्यते स्वर्गलोकम्।
हृदय की चैतन्य ज्योति गायत्री ब्रह्म रूप है। उस तक पहुँचने के लिए व्यान, अपान, समान, उदान ये पाँच प्राण द्वारपाल है। इनको वश में करना चाहिए, जिससे कि हृदयस्थित गायत्री रूप ब्रह्म की प्राप्ति संभव हो सके। इस क्रिया से उपासना करने वाले को स्वर्ग-सुख प्राप्त होता है और उसकी कुल-परम्परा से वीर-जन उत्पन्न होते हैं।
‘गा’ चेति सर्वगा शक्तिर्यत्री तत्र नियन्त्रिका।
अर्थात् 'गा' शब्द यह सर्व गायत्री शक्ति को बोधक है। उस शक्ति को जो नियंत्रित करने वाली सत्ता है उसे ‘यत्री' कहना चाहिए। गायत्री अर्थात् सर्वव्यापी परा और अपरा प्रकृति पर नियंत्रण करने वाली आत्मचेतना।
‘गा' कारो गतिदः प्रोक्तो ‘य’ कारः शक्ति दायिनी।
'त्र' त्राता च तथा विद्धि 'ई’ कारः स्वयं परम्।।
'गा' कार से गति देने वाली, ‘य’ कार से शक्ति-दायक 'त्र' से त्राण करने वाली और 'ई' कार स्वयं परम-तत्त्व का बोधक है।
सर्वलोकान् व्याहरन्तीति व्याहृतयः।
गायत्री तदित्यादिका चतुर्विंशत्यक्षराऽष्टाक्षरपादपरिच्छेदेन त्रिपदी। तस्या भेदत्रयमाह। प्राणा वै गयास्तेषां गयानां (त्राता) गायत्री। गायन्तं-त्रायते वा गायत्री। सवितृप्रकाशनार्थत्वात् जगतः प्रसवित्री सावित्री। वाग्रूपत्वात् सरस्वती।
सब लोकों को जो बतलाती है, प्रतिपादन करती है, सूचित करती है। वे व्याहृतियाँ कहलाती हैं।
गायत्री 'तत्' से आरम्भ होकर चौबीस अक्षर वाली है और आठ-आठ अक्षरों के तीन पदों के कारण वह त्रिपदी कहलाती है। इसका भेद बतलाते हुए यह कहा है कि ‘प्राण' अर्थात् ‘गय' उसका रक्षण करने वाली वह 'गायत्री' अर्थात् गायत्री का जप करने से प्राणों की रक्षा होती है, इसलिए इसका नाम 'गायत्री' हो गया है। यही गायत्री सूर्य के समान प्रकाश करने वाली होने से, जगत् को उत्पन्न करने वाली होने से ‘सावित्री' के नाम से कही जाती है और यही वाणी के रूप में होने से सरस्वती कही जाती है।
गायत्री में सन्निहित प्राण-शक्ति वस्तुत: परब्रह्म परमात्मा का ब्रह्मतेज 'भर्ग' ही है। निराकार विश्व-व्यापी चेतना के रूप में इसे अनुभव किया जा सकता है। भावों का भगवान् मनुष्य अथवा देवता का रूप धारण कर लोकमंगल के लिए विभिन्न स्तर की लीलाएँ करता रहता है, पर वैज्ञानिक का परब्रह्म सचेतन प्राण-शक्ति के रूप में उस विश्व-ब्रह्माण्ड के कण-कण में सन्निहित एवं सक्रिय बना हुआ विद्यमान है। इसका बाहुल्य देवदूत, अवतार, महामानव, नर-रत्न, ऋषि, मनीषी आदि के रूप में देखा जा। सकता है। गीता के विभूति योग में भगवान् ने अपनी विशेष स्थिति जिन प्राणियों या पदार्थों में वर्णन की है, उनमें इस प्राण-शक्ति की अधिकता हो कारण है।
गायत्री के माध्यम से हम उस ब्रह्म-चेतना प्राण-शक्ति से ही अपना सम्पर्क बनाते और अधिक सचेतन बनने का उपक्रम करते हैं। मनुष्य के सचेतन का व्रह्म- सम्पर्क इस प्राण-शक्ति के माध्यम से ही होता है। इसलिए गायत्री उपासना को ब्रह्म-विद्या के नाम से उपनिषदों, ब्राह्मण-ग्रन्थों तथा आरण्यकों में वर्णन किया गया है। ब्रह्म की चर्चा, विवेचन एवं स्तुति प्राण के रूप से भी की गई है। कहा गया है-
कः एको देव इति। प्राण इति स ब्रह्म तदित्याचक्षते।
वह एक मात्र देव कौन है? वह प्राण है। उसे ही ब्रह्म कहा जाता है।
प्राणो ब्रह्म इति ह स्माह कौषीतकिः।
प्राण ही ब्रह्म है, ऐसा कौषीतकि ऋषि ने व्यक्त किया है।
प्रजापतिश्चरसि गर्भे त्वमेव प्रतिजायसे। तुभ्यं प्राणः प्रजास्त्विमा बलिं हरन्ति यः प्राणैः प्रतितिष्ठसि।
हे प्राण! आप ही प्रजापति हैं, आप ही गर्भ में विचरण करते हैं, आप ही माता-पिता के अनुरूप जन्म लेते हैं, यह सब प्राणी आपको ही आत्म-समर्पण करते हैं। वह प्राणों के साथ ही प्रतिष्ठित हो रहा है।
प्राणो ब्रह्म इति ह स्माह पैंग्यः।
पैंग्य ऋषि ने कहा- प्राण ही ब्रह्म है।
प्राणो विराट् प्राणो देष्ट्री प्राणं सर्व उपासते।
प्राणो ह सूर्यश्चन्द्रमाः प्राणमाहुः प्रजापतिम्।।
प्राण ही विराट् है, वही सबका प्रेरक है। इसी से सब उसकी उपासना करते हैं। प्राण ही सूर्य है, चन्द्रमा है और वही प्रजापति है।
प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे।
यो भूतः सर्वस्येश्वरो यस्मिन्त्सर्वं प्रतिष्ठितम्।।
जिसके अधीन यह सारा जगत् है, उस प्राण को नमस्कार है। वही सबका स्वामी है। इसी में यह सारा जगत् प्रतिष्ठित है।
सर्वा ऋचः सर्वे वेदा सर्वे घोषा एकैव व्याहृतिः प्राण एव प्राण ऋच इत्येव विद्यात्।
जितनी ऋचाएँ हैं, जितने वेद हैं, जितने शब्द हैं, जितनी व्याहृतियाँ हैं, ये सब प्राण हैं। उन्हें प्राण रूप समझ कर उन्हीं की उपासना करनी चाहिए।
प्राणो वावज्येष्ठश्च श्रेष्ठ श्च।।
प्राण ही बड़ा है और प्राण ही श्रेष्ठ है।
प्राण एष स पुरि शेते। स पुरि शेते इति स पुरिशयं सन्तं प्राणं पुरुष इत्याचक्षते।
शरीर रूपी पुरी में निवास करने से उसका स्वामी होने के कारण प्राण ही पुरुष कहा जाता है।
शतपथ ब्राह्मण में कई स्थानों पर प्राण को प्रजापति कहा गया है।
प्राणो हि प्रजापतिः।
प्राणा उ वै प्रजापतिः
प्राणः प्रजापतिः
सर्वं हीदं प्राणेनावृतम्।
यह सारा जगत् प्राण से आवृत्त है।
प्राणस्येदं वशे सर्वं त्रिदिवे यत् प्रतिष्ठितम्।
मातेव पुत्रान् रक्षस्व श्रीश्च प्रज्ञां च विधेहि न इति॥
इस विश्व में जो कुछ है वह सब प्राण के अधीन है। जो कुछ स्वर्ग में है वह भी प्राण के ही अधीन है। हे प्राण ! तू हमें माता के समान पाल और लक्ष्मी तथा जीवन-शक्ति प्रदान कर।
स एष वैश्वानरो विश्वरूपः प्राणोऽग्निरुदयते।
यह प्राण ही सारे संसार में वैश्वानर रूप में प्रकट होता है।
अमृतमं वै प्राणाः।।
इस मर्त्यपिण्ड को अमृतत्व से संयुक्त रखने वाला प्राण ही है।
अरा इव रथनाभौ प्राणे सर्वं प्रतिष्ठितम्।
ऋचो यजूंषि सामानि यज्ञः क्षत्रं ब्रह्म च॥
रथ चक्र की नाभि में लगे अरों के समान ऋक् की ऋचायें, यजु साम के मंत्र, यज्ञ, क्षत्रिय, ब्राह्मण आदि सभी इस प्राण में निहित हैं।
प्रजापतिश्चरसि गर्भे त्वमेव प्रतिजायते।
तुभ्यं प्राणः प्रजास्त्विमा बलिं हरन्ति यः प्राणैः प्रतितिष्ठसि॥
प्रजापति तू ही है, गर्भ में तू ही विचरण करता है और तू ही माता-पिता के समान आकृति वाला होकर उत्पन्न होता है। हे प्राण! यह सब देहधारी तुझे बलि देते हैं। तू देहगत अन्य प्राणों के साथ प्रतिष्ठित है।
हमारे सांसारिक जीवन को सफल और सार्थक बनाने में भी प्राण का महत्त्व सर्वोपरि है। जो व्यक्ति यहाँ पर अधोगति की स्थिति में पड़े रहते हैं, उनमें या तो प्राण-शक्ति की न्यूनता होती है अथवा वे उसका प्रयोग गलत तरीके से करते हैं। गायत्री विज्ञान और उसका विधिवत् अभ्यास प्राणों का सदुपायोग करना सिखलाता है। इसलिए गायत्री उपासक यदि अपने लक्ष्य की पूर्ति में दृढ़तापूर्वक लगा रहेगा तो वह अवश्य अपने लोक और परलोक का सुधार कर सकेगा।
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