नई पुस्तकें >> गायत्री और उसकी प्राण प्रक्रिया गायत्री और उसकी प्राण प्रक्रियाश्रीराम शर्मा आचार्य
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गायत्री की प्राण-प्रक्रिया
मनुष्य एक प्राणी है प्राणी उसे कहते हैं-जिसमें प्राण हों। प्राण निकल जाने पर शरीर निर्जीव होकर सड़-गल जाता है, इसलिए मृत्यु होते ही उसे जलाने, गाड़ने, बहाने आदि का प्रबंध करना पड़ता है। मनुष्येत्तर जीवों के मरते ही उनके शरीर को समाप्त करने के लिए श्रृंगाल, कुत्ते आदि पशु, गिद्ध, कौए, चील आदि पक्षी और चींटें, गिडार आदि नष्ट करने के लिए जुट पड़ते हैं। प्राण निकलते ही प्राणी का भौतिक अस्तित्व समाप्त हो जाता है। मनुष्य अथवा अन्य जीव-जन्तुओं के जीवित रहने और विविध क्रिया-कलाप करते रहने का सारा श्रेय इस प्राण-शक्ति को ही है। जिसमें यह तत्त्व जितना न्यूनाधिक होता है उसी अनुपात में उसकी सशक्तता, समर्थता, प्रतिभा एवं स्थिति में कमी-वेशी दिखाई पड़ती है। मनुष्य अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ एवं समर्थ इसीलिए है कि उसमें प्राण-तत्त्व का दूसरों की अपेक्षा बाहुल्य रहता है।
सजीवता, प्रफुल्लता, स्फूर्ति, सक्रियता जैसी शारीरिक विशेषताएँ तथा मनस्विता, तेजस्विता, प्रतिभा, चतुरता जैसी मानसिक विभूतियाँ और कुछ नहीं प्राण-रूपी सूर्य की किरणें, प्राण-रूपी समुद्र की लहरें हैं। इतना ही नहीं आध्यात्मिक स्तर पर पाई जाने वाली सहृदयता, करुणा, कर्तव्यनिष्ठा, संयमशीलता, तितिक्षा, श्रद्धा, सद्भावना, समस्वरता जैसी महानताएँ भी इस प्राण-शक्ति की ही उपलब्धियाँ हैं। प्राण एक विद्युत् है जो जिस क्षेत्र में भी जिस स्तर पर भी प्रयुक्त होती है, उसी में चमत्कार उत्पन्न कर देती है।
प्राण-शक्ति जीवन-शक्ति का दूसरा नाम है। जो जितना सजीव हैं, उसे उतना ही न कहेंगे। यह शक्ति शरीर में चमकती हैं तो व्यक्ति रूप लावण्ययुक्त, निरोग, दीर्घजीवी, परिपुष्ट एवं प्रफुल्ल दिखाई देता है। उसे परिश्रम से ग्लानि तथा थकान नहीं वरन् प्रसन्नता प्राप्त होती है ! मन में प्राण का बाहुल्य हो तो मस्तिष्क की उर्वरता अत्यधिक बढ़ जाती है। स्मरण शक्ति, सूझ-बूझ, कुशाग्रता, बुद्धिमत्ता, तुलनात्मक-निर्णय क्षमता, एकाग्रता जैसी विशेषताएँ उत्पन्न हो जाती हैं। अध्यात्म क्षेत्र में इस मत का संचार होने पर व्यक्ति में शौर्य, साहस, अभय एवं सन्मार्ग पर निरन्तर चलते रहने का पुरुषार्थ हो जाता है। सद्गुणों एवं सद्भावनाओं की भी इसमें कमी नहीं रहती।
यह प्राण-शक्ति ही का ही प्राणी की विशेषता है, यही उसकी वास्तविक सम्पत्ति है। इसी के मूल्य पर भौतिक समृद्धियाँ एवं सफलताएँ मिलती हैं। इसलिए यह कहना उचित है कि जिसके पास जितनी प्राण-शक्ति है, वह उतना ही जीवन संग्राम में विजय वरण करता है। उतना ही यशस्वी बनता है। प्राण का उपार्जन ही समस्त सम्पत्तियों के अधिपति महासम्पत्ति का उपार्जन करना है। यह महासम्पत्ति--जिसके पास जितनी मात्रा में हो वह उतना ही अपने अभीष्ट लक्ष्य में सफल होता चला जाता है। प्राणवान् व्यक्ति भले ही डाकू, तस्कर, ठग, शासक, नेता, वैज्ञानिक, अध्येता, व्यापारी, कृषक, सैनिक, महात्मा आदि कोई भी क्यों न हो, अपने प्रयोजन में असाधारण सफलता प्राप्त करेगा। अपनी दिशा में उन्नति के उच्च शिखर पर अवस्थित दिखाई देगा। अस्तु इस प्राण की सभी को आवश्यकता रहती है।
यह बात अलग है कि कौन उसके लिए प्रयत्न करता है और कौन हाथ पर हाथ रखे बैठा रहता है? किसे उसे प्राप्त करने का मार्ग विदित है और कौन उससे अपरिचित रह रहा है?
प्राण-शक्ति को उपार्जन करने के कई भौतिक उपाय भी हैं और एक सीमा तक उन उपायों से प्राण-शक्ति बढ़ाई जा सकती हैं। उन भौतिक उपायों की समयानुसार फिर कभी चर्चा करेंगे। इन पंक्तियों में आध्यात्मिक मार्ग पर चलकर किस प्रकार उच्चस्तरीय प्राण-शक्ति का अर्जन, अभिवर्धन किया जा सकता है, उसी का उल्लेख करेंगे।
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