आचार्य श्रीराम शर्मा >> दर्शन तो करें पर इस तरह दर्शन तो करें पर इस तरहश्रीराम शर्मा आचार्य
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देव अनुग्रह की उपयुक्त पात्रता प्राप्त किए बिना कोई भी व्यक्ति केवल देवदर्शन अथवा दक्षिणा-प्रदक्षिणा द्वारा मनोरथ को सिद्ध नहीं कर सकता
स्कूल का दर्शन
किसी से सुना है कि अमुक प्राथमिक स्कूल में स्वच्छता, व्यवस्था एवं शिक्षा पद्धति बड़ी अच्छी है। उसमें बच्चे को पढ़ाना अच्छा रहता है। इच्छा हुई कि स्कूल के दर्शन करने चाहिए। वहाँ पहुँचे, देखा, जैसा बताया गया था वैसा ही है। इमारत बहुत बढ़िया, सफाई, हवा रोशनी का प्रबंध ठीक, बैठने की सुविधाजनक व्यवस्था, फीस कम, शिक्षक सुयोग्य, हर साल का परीक्षाफल संतोषजनक। स्कूल के दर्शन करने पर इतनी प्राथमिक जानकारी मिली और मन प्रसन्न हुआ, श्रद्धा बढ़ी। इस श्रद्धा ने जिज्ञासा उत्पन्न की कि इसमें क्या-क्या विषय पढ़ाए जाते हैं। हमारे बच्चों के लिए क्या-क्या विषय पढ़ना ठीक होगा, उसे पढ़ने में क्या सुविधा-असुविधा रहेगी, इस स्कूल में भरती होने पर विद्यार्थी को क्या-क्या शर्ते पूरी करनी होंगी। अधिकारियों से पूछा गया, उन्होंने सब कुछ संतोषकजनक ढंग से बता दिया। अब बच्चा स्कूल में दाखिल करा दिया गया। सोचा गया था, इसे डॉक्टर बनाना है, इसलिए 'जीव-विज्ञान' का विषय भी पढ़ते रहना चाहिए। पढ़ाई चालू हुई। बच्चे ने परिश्रमपूर्वक पढ़ना आरंभ किया। इंटर कक्षा उत्तीर्ण करने तक उसने अपना अध्यवसाय धैर्यपूर्वक जारी रखा। अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण हुआ। मेडीकल कालेज में भरती हुआ। पाँच साल सर्जरी आदि में अभ्यास किया, परीक्षा दी, पास हुआ। इस उपक्रम से उस प्राथमिक स्कूल में भरती होने से लेकर डॉक्टर बनने तक की प्रक्रिया पूर्ण करने के उपरांत वह किसी अस्पताल में डॉक्टर की कुर्सी सुशोभित करने लगा। प्राथमिक स्कूल में बच्चे को भरती करने से पूर्व उसका जो दर्शन किया था, वह फलदायक हो गया। बच्चे को डॉक्टर बनाने के लिए पढ़ाना था। इसके लिए अच्छे स्कूल की तलाश थी। सुने अनुसार उपर्युक्त पाठशाला का पता चला तो उसके प्रत्यक्ष दर्शन किए। दर्शन का अभीष्टफल भी मिला, समयानुसार बालक ने डॉक्टर बनने में सफलता भी प्राप्त कर ली। दर्शन का प्रत्यक्ष पुण्यफल मिल गया।
कोई व्यक्ति सोचता है- 'अमुक अच्छी प्राथमिक पाठशाला की कृपा से कई बच्चे डॉक्टर हो चुके हैं, इसलिए हम भी उसका लाभ उठावे। लाभ उठाने के लिए उसे इतना ही पर्याप्त लगता है कि इस स्कूल का दर्शन कर लिया जाए उसकी परिक्रमा लगा ली जाए। दंडवत कर लिया जाए और थोड़े समय में थोड़ा खरच करके यह कर्मकांड पूरा होने पर घर आया जाए।'' बस इतने मात्र से डॉक्टर बनाने का पुण्यफल बच्चे को मिल जाए। कई बच्चे जब इसी स्कूल की कृपा से डॉक्टर हुए हैं, तो हमारा बच्चा क्यों न होगा? इस प्रकार सोचने वाले व्यक्ति की श्रद्धा चाहे कितनी ही बढ़ी-चढ़ी हो और वह उस पाठशाला के प्रति कितने ही उच्चभाव क्यों न रखे, अपने बच्चे को डॉक्टर बनाने में सफलता प्राप्त न कर सकेगा। कारण यह है कि वह दर्शन से लेकर अभीष्ट लाभ तकके बीच की जो लंबी कड़ी है, उसे आँख से ओझल कर रहा है। कितना श्रम करने पर, कितना समय लगाने पर, कितने साधन जुटाने पर पाठशाला के छात्र डॉक्टर बनते हैं, यदि इन बातों की उपेक्षा की जाए तो उचित न होगा। पाठशाला के दर्शन करते ही डॉक्टर होने का वरदान मिलने की आशा करना, न तो उचित है न विवेक सम्मत। वह पूरी हो भी कैसे सकती है?
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