लोगों की राय

नई पुस्तकें >> ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान प्रयोजन और प्रयास

ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान प्रयोजन और प्रयास

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15473
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 0

5 पाठक हैं

प्रस्तुत है ब्रह्मवर्चस् का प्रयोजन और प्रयास

अध्यात्म का प्रवेश द्वार - ध्यान योग


अग्निहोत्र प्रक्रिया का उच्चस्तरीय रूप यज्ञ है, जिसे आध्यात्मिक उत्कर्ष का मान्य उपाय स्वीकार गया है। अन्तःकरण से लेकर अन्तरात्मा तक गुह्य परिष्कारों में यज्ञ की अपनी उपयोगिता और महत्ता है पर वह भावना प्रधान, चरित्र प्रधान और साधना प्रधान होने मे अधिक सूक्ष्म है। इतना सूक्ष्म कि उसे पदार्थ विज्ञान की वर्तमान पकड़ से ऊपर ही समझा जा सकता है। प्रयोगशालाओं के यन्त्र-उपकरण और वैज्ञानिकों की प्रत्यक्षवादी समझ, उसका विवेचन-विश्रेषण आदि करने में समर्थ नहीं हो सकती।

यज्ञ अनेक हैं। वे सभी अध्यात्म के विशिष्ट और विभिन्न अंग हैं। उन सबकी अपनी-अपनी विशिष्ट प्रक्रिया एवं प्रतिक्रिया है। ज्ञान-यज्ञ, ब्रह्म यज्ञ, भूदान यज्ञ आदि की अपनी-अपनी गरिमा है। इसमें से जिनकी वैज्ञानिक प्रयोगशाला में जाँच-परख की जा सकती है उनमे ध्यान-योग बहुचर्चित और सर्वविदित है। उपासना के अनेकानेक विधि-विधान हैं। योगाभ्यास के भी कतिपय विधि-विधान हैं। अनेक संप्रदायों और परम्पराओं में उन सबका उल्लेख, प्रतिपादन एवं प्रचलन है पर उन सभी में किसी न किसी रूप मे ध्यान-योग का समावेश है। बिना ध्यान के अध्यात्म प्रयोजन के लिए किए गये क्रियाकृत्य मात्र कर्मकाण्ड बनकर रह जाते हैं। वस्तुओं की हेरा-फेरी अथवा अंग-संचालन के रूप में की गई क्रिया, मात्र आरम्भिक प्रयोक्ताओं के लिए बाल-कक्षाओं में अपनायी जाने वाली प्रक्रिया मात्र है। उनसे स्वभाव ढलने, स्वास्थ्य संवर्धन के अभ्यास पड़ने के आरम्भिक प्रयोजन ही किसी रूप में पूरे होते हैं। साधना कोई भी क्यों न हो, उसमें यदि ध्यान की उपेक्षा की जाय तो समझना चाहिए कि कृत्य पूरी तरह अधूरा रह गया और वह परिणाम न मिल सका जो अध्यात्म क्षेत्र में प्रवेश करने एवं उत्कर्ष की इच्छा रखने वालों को मिलना चाहिए था।

ध्यान-योग को भौतिकी की कसौटी पर भी कसा जा सकता है। ध्यान की भौतिक-स्थूल परिणतियाँ भी होती हैं। समाधि में निश्चेष्ट हो जाना, अंग का रक्त-संचार बंद कर देना, माँसपेशियों को अतिशय कड़ा कर देना जैसे कौतुक ध्यान-योग के अभ्यासी प्राय: दिखाते रहते हैं। सरकस के पात्रों का कौतूहल प्रदर्शन उनकी एकाग्रता पर अवलम्बित है। वैज्ञानिक, साहित्यकार, कलाकार अपनी विशेषताएँ ध्यान को केन्द्रीभूत करके ही प्रदर्शित कर पाते है। परीक्षाओं, प्रतियोगिताओं में सफल हो पाना प्राय: इसी कौशल पर निर्भर रहता है। निशाना सही लगा सकने की विशेषता इसी अभ्यास पर निर्भर है। टिड्डे बरसात में हरे रंग के होते हैं और वे ही गर्मियों में पीले पड़ जाते हैं। इसका एक ही कारण है कि हरियाली उनके ध्यान में आँखों के आगे रहने से वह तन्मयता उनकी काया को हरा बनाये रहती है पर जब गर्मी आती है और घास सूखकर पीली पड़ जाती है, तब उस पर रहने वाले टिड्डे चारों ओर पीला रंग देखते और ठीक वैसे ही बन जाते हैं। यह मस्तिष्क पर छाये रहने वाले आयामों की प्रतिक्रिया है। वही सर्वत्र दीख पड़ता हैं। आँखों पर चश्मा जिस रंग का पहना जाता है, उसी रंग में रँगा हुआ सारा संसार प्रतीत होता है। जब बदलकर अन्य रंगवाला चश्मा पहन लिया जाता है, तो क्षण भर में सारा दृश्य जगत् अपना रंग बदल लेता है। यह भीतर से उत्पन्न हुई मान्यता की दृश्यमान प्रतिक्रिया है। रस्सी का साँप और झाड़ी का भूत इसी प्रकार बनता है। वह भ्रान्तियाँ कई बार इतनी समर्थ और प्रबल होती है कि सशक्त शत्रु की तरह प्राणघातक भी बन जाती हैं। स्वसंकेतों के आधार पर व्यक्तित्व किस कदर उभरते और गिरते हैं, इसके असंख्य प्रमाण-उदाहरण हमें अपने इर्दगिर्द के वातावरण में बड़ी संख्या में विद्यमान दीखते हैं।

ध्यान योग इन दिनों एक मान्य प्रयोग बन गया है। चिन्तन ने परिवर्तन लाने पर मनुष्य जीवन की दिशाधारा बदल जाती है। आरोग्य की उपलब्धि, मनोबल की प्रखरता एवं भविष्य निर्माण से जुड़ने वाली महती भूमिका में, सघन विचारधारा का असाधारण योगदान होता है। महत्त्वपूर्ण रचनात्मक कार्यों की रूपरेखा पहले योजना के रूप में अपना काल्पनिक स्वरूप निर्धारित करती है। इस संदर्भ में हुए निश्चय के उपरान्त कार्य रूप में परिणित होती है, साधन जुटते हैं और सफलता के आधार खड़े होते हैं। दैनिक घटनाओं का सुनियोजन बन पड़ना और अस्तव्यस्तता की चट्टान से टकराकर छितरा जाना और कुछ नहीं, केवल तत्परता और तन्मयता के समन्वय की कमी-बेशी रहने की परिणति है।

इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए 'ध्यान' को महती सामर्थ्य सम्पदा के रूप में समझा जा सकता है। उसका प्रभाव जिस कायकलेवर पर, मन:संस्थान पर प्रगति और समृद्धि पर दिखाई देता है, उसे सफलताओं की आधारशिला कहा जा सकता है। हर व्यक्ति की अपनी दुनिया होती है। पहले वह बीज के रूप में मनक्षेत्र की कल्पना बनकर आती है। इसके बाद मनःस्थिति और परिस्थिति का खाद-पानी लगने पर सुनिश्च्ति यथार्थता एवं सम्भावना के रूप में सामने आ खड़ी होती है। प्रकारान्तर से जीवन की प्रखरता और ध्यान-धारणा को एक ही रूप में देखा जा सकता है।

अन्तःकरण की विशिष्टता और आत्मा की उत्कृष्टता की साधना हेतु जिन छोटे-बड़े योगाभ्यासों का प्रयोग विभित्र वर्गों के लोग विभिन्न प्रकार से करते रहते हैं, उनमें अन्य क्रिया-कृत्यों का समावेश तो रह सकता है पर ध्यान को नहीं छोड़ा जा सकता। यह ध्यान परब्रह्म का, प्रकाश-ज्योति का, आत्मिक प्रकाश-पुञ्ज का, षट्चक्रों का, पंचकोषों का, त्रिविध कलेवरों से सम्बन्धित तीन ग्रंथिओं का हो सकता है। इष्टदेवों के रूप में अवतारों, देवतत्त्वों, महामानवों अथवा दिव्य शक्तियों को माध्यम बनाया जा सकता है।

इन्द्रिय तन्मात्राओं को विकसित करने के लिए शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श के कुछ भाव चित्र गढ़े जा सकते हैं। सोहम् साधना, अनहद नाद, आज्ञा चक्र जागरण, सहस्त्रार कमल का प्रस्कुटीकरण, कुण्डलिनी जागरण आदि की दिव्य साधनाएँ इसी प्रयोजन के साथ जुड़ती हैं। इन सभी प्रयोगों के अन्तिम परिणामों को देखकर 'साधना से सिद्धि' के सिद्धान्त को कसौटी पर कसा जा सकता है। पर इस बीच का मध्यान्तर भी इस बात का प्रमाण देता रहता है कि क्रिया की प्रतिक्रिया किस रूप में सही पड़ रही है। इस आधार पर प्रगति का, अवगति का, स्थिरता का मूल्यांकन किया जा सकता है। यदि गलती हो रही हो, तो सुधारा जा सकता है। अवगति को रोका जा सकता है। परिणति यदि सफलता की दिशा में चल पड़ी हो तो उसे और भी अधिक तीव्र किया जा सकता है। इस प्रकार आत्मिक प्रगति की दिशा में सही रीति-नीति अपनाते हुए सही दिशा में चला और सही लक्ष्य तक पहुँचा जा सकता है। वैज्ञानिक प्रयोगशालाएँ उस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकती हैं। उस आधार पर निकले हुए निष्कर्ष जीवनोत्कर्ष में असाधारण रूप से सहयोगी बन सकते हैं। अभीष्ट सफलता को लक्ष्य तक पहुँचाने में उनका असाधारण योगदान हो सकता है।

शान्तिकुञ्ज की ब्रह्मवर्चस प्रयोगशाला में इस संदर्भ में आवश्यक शोध प्रबन्ध के लिए सभी उपयोगी एवं आवश्यक उपकरण जुटाये गये है, जिनसे मस्तिष्क मे चल रही हलचलों का स्वरूप, संदर्भ एवं गतिक्रम का परिचय प्राप्त किया जा सकता है। स्नायु संस्थान की गतिविधियों एवं उनका मासपेशियों तथा शरीर के अंग अवयवों पर सम्भावित प्रभाव की जानकारी प्राप्त की सकती है। प्रयोगशाला के इन निष्कर्षों के आधार पर आगे बढ़ चलने के लिए उपयुक्त मार्गदर्शन मिलता है और भूल होने की आशंका का निराकरण होता रहता है।

बह्मवर्चस की प्रयोगशाला में एक चार चैनल का पॉलीग्राफ, एक दो चैनल पॉलीगाफ, १८ चैनल का एक इलेक्ट्रोएनसेफेलोग्राफ संयंत्र तथा कई प्रकार के बायोफीडबैक यंत्र प्रयोग में लाये जाते हैं। पॉलीग्राफ द्वारा रक्त का दबाव, नाड़ी की गति, श्वांस गति, त्वचा का तापमान, इलेक्ट्रोमायोग्राफ तथा इलेक्ट्रोएनसेफेलोग्राफ का एक साथ मापन कर ध्यान की अवधि में शरीर में संव्याप्त विद्युतीय क्षेत्र में परिवर्तन की अति सूक्ष्म स्थिति तक को मापा जा सकता है। ई० ई० जी० उपकरण मस्तिष्क की जागृत, प्रसुप्त तथा गहरे ध्यान की स्थिति में, तरंगों का अंकन कर बताता है कि बहिरंग से मोड़कर व्यक्ति स्वयं को कितना अन्तर्मुखी बना सका? बायोफीडबैक यंत्र में त्वचा का विद्युतीय प्रतिरोध (जी. एस. आर.) माँसपेशिया की विद्युत (ई. एम. जी.) तथा मस्तिष्क की अल्फा तरंगे (आल्फा ई. ई. जी.) इन तीनों को दृश्य एवं ध्वनि के माध्यम से साधक को

दिखाया व ध्यान प्रक्रिया द्वास तीनों में परिवर्तन लाने हेतु उसे प्रशिक्षित किया जाता है। अपनी मनःशक्ति के माध्यम से साधक तनाव शैथिल्य द्वारा त्वचा का प्रतिरोध ज्यादा करता तथा ध्यान की स्थिति मे ही दृश्यमान अल्फा तरंगें उत्पन्न करता है। इससे उसका मनोबल भी बढ़ता है एवं क्रमश: ध्यान की गहराई में जाने का प्रशिक्षण भी मिलता है। इन प्रयोगों के अलावा रिएक्शन टाइम, एप्टीट्यूड, इल्युजन, मेमोरी, सेल्फ कन्सेप्ट संबन्धी लगभग १२ परीक्षण और कराये जाते हैं, जो साइकोमेट्री की परिधि में आते हैं।

इन प्रयोगों का आरम्भ ''रंग-ध्यान'' से किया जाता है। यह अधिक प्रत्यक्ष, अधिक सरल और अधिक स्पष्ट हैं। रंग-विज्ञान के ज्ञाता जानते है कि सूर्य किरणों में सात रंग होते हैं। उनमें से जो पदार्थ जिस रंग की किरण को, जिस अनुपात में परावर्तित करता है, वह उसी रंग का दिखने लगता है। रंग स्वाभाविक हो या कृत्रिम, सभी इसी आधार पर विनिर्मित होते हैं और परिणाम उत्पन्न करते हैं। कमरों में जिस रंग को पोता जाता है, खिड़कियों में जिस रंग के पर्दे रहते है, उसी रंग की किरणों का प्रवाह छनकर उसी परिधि में अपना प्रभाव प्रस्तुत करता है। रंगीन काँचों या काँच पर लगे रंगीन जिलेटीन कागजों से भी यही उद्देश्य पूरा होता है।

ध्यान धारणा के रंग-सम्बन्धी प्रयोगों में साधक को आँखें बंद करके अमुक रंग के ध्यान का निर्देश दिया जाता है। सुविधा के लिये उसी रंग के चश्मे पहना देते हैं अथवा उस कक्ष में वैसे पर्दे लटका कर कृत्रिम प्रकाश उत्पन्न कर रंगों का ध्यान करने को कहा जाता है। इलेक्ट्रानिक स्ट्रोबोस्कोप की मदद से सात विभिन्न रंगों के बल्बों से आँखों पर फ्लैशेज डाले जाते हैं। रंगों का मन-मस्तिष्क पर प्रभाव सर्वविदित है एवं जाँचा-परखा जा चुका है। लाल रंग स्नायु संस्थान एवं रक्त की क्रियाशीलता को बढ़ाता है। प्राण शक्ति इससे बढ़ती है। नारंगी रंग साधक की जीवाणु प्रतिरोधी सामर्थ्य बढ़ाता है तथा सभी अंगो के चयापचय प्रक्रिया को संतुलित करता है। पीला रंग पाचन संस्थान तथा स्वैच्छिक स्नायु संस्थान को संतुलित रखता है। यह बुद्धिवर्धक भी है। हरा रंग मानसिक तनाव से मुक्ति दिलाता व हारमोन ग्रंथियों का स्त्राव बढ़ाता है। नीला रंग रक्त परिशोधन एवं मानसिक अवसाद के हेतु प्रयुक्त होता है। बैगनी रंग हृदय की गति को स्थिर तथा श्वसन प्रक्रिया को संतुलित करता है। यह दर्दनाशक भी है। सभी रंग विभिन सम्मिश्रण में भाव संस्थान को प्रभावित-उत्तेजित करते हैं।

देखा गया है कि सही निदान के बाद निर्धारित रंग का ध्यान करने पर, अभीष्ट प्रभाव उपयुक्त मात्रा में मिलना आरम्भ हो जाता है। सूर्य किरण चिकित्सा एक विशेष कक्ष में बिठाकर अथवा रंगीन बोतलों का पानी पिलाकर लम्बे समय से की जाती रही है। पर रंग-ध्यान का नया निर्धारण नये अनुसंधान के आधार पर ही बन पड़ा है। इस ध्यान प्रक्रिया की अवधि में क्या परिवर्तन रक्त के रासायनिक घटकों तथा शरीर की इलेक्ट्रोफिजियोलॉजी पर हो रहा है इसे विभिन्न यंत्रों की मदद से मापा जा सकता है। इस उपचार की प्रतिक्रिया शारीरिक रोगों के निवारण की अपेक्षा मानसिक अस्तव्यस्तता को दूर करने, तनाव मिलने तथा मन:संतुलन बिठाने में अधिक प्रभावोत्पादक होते देखी गयी है।

रंगों के ध्यान के आधार पर यह समझना अधिक सरल और सम्भव हो जाता है कि उच्चस्तरीय ध्यान-धारणा की, त्राटक के विभित्र रूपों की परिणति कितनी गहराई तक प्रवेश करके अन्तराल को प्रभावित कर सकती है। ध्यान धारणा सभी अध्यात्म उपचारों का मेरुदण्ड है। उसी के समन्वय से हर योगाभ्यासी प्राणवान् बनता एवं अभीष्ट परिणाम प्रस्तुत करता है। शांतिकुञ्ज के ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान ने अध्यात्म विद्या के परिणामों को खोजते हुए ध्यान विद्या के सम्बन्ध में अतिमत्त्वपूर्ण प्रसंगों की जानकारी प्राप्त की है। अगले दिनों उसके और भी व्यापक परिणाम सामने आकर रहेंगे।

आधुनिकतम उपकरणों से सुसज्जित होते हुए भी ब्रह्मवर्चस का स्वरूप एक आश्रम, आरण्यक के समान है, जहाँ अध्यात्म उपचारों से सर्वांगपूर्ण चिकित्सा के सैनिटोरियम एवं दिशानिर्देश की सुविधा सभी साधकों के लिए अपलब्ध है। रोगों की चिकित्सा नहीं, अपितु जीवनी शक्ति संवर्धन, संकल्पशक्ति व आत्मबल में अभिवर्धन इन उपचारों का मुख्य लक्ष्य है। इसी कारण यहाँ रोगियों पर नहीं अपितु साधक स्तर के व्यक्तियों पर ही प्रयोग-परीक्षण होता है। जीवन क्रम कैसे बदला जाता है, इसे यहाँ प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।

इस समग्र तंत्र का संचालन शान्तिकुञ्ज स्थित ऋषिसत्ता द्वारा सम्पन्न होता है। कोई भी यह भली-भांति समझ सकता है कि यह मानवी प्रयासों का प्रतिफल नहीं है। ऐसा अप्रत्याशित पुरुषार्थ मात्र नियन्ता की विधि व्यवस्था, महाकाल की चेतन सत्ता द्वारा ही संभव है। सुनियोजित, विधि व्यवस्था व अब तक के निष्कर्षों को दृष्टिगत रखने पर यह विश्वास दृढ़ होता है कि प्रस्तुत शोध प्रक्रिया के परिणाम चमत्कारी एवं युगान्तरकारी होंगे।

 

* * *

...Prev |

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai