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आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :32
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15472
आईएसबीएन :000000

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आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता

गायत्री उपासना का संक्षिप्त विधान


गायत्री महामंत्र का भाव-चिंतन तथा मानसिक जप चलते-फिरते किसी भी स्थिति में करते रहा जा सकता है। फिर भी नैष्ठिक साधक को न्यूनतम १० मिनट का समय; संध्या सहित न्यूनतम एक माला का जप करने में लगाना चाहिए। संध्योपासना का क्रम इस प्रकार है।

उपासना के लिए ब्रह्ममुहूर्त-प्रात:काल का समय सर्वश्रेष्ठ है। यदि परिस्थितिवश वह समय न पकड़ा जा सके, तो अपनी सुविधा के अनुसार कोई समय निश्चित कर लेना चाहिए।

स्नान करके उपासना करना श्रेष्ठ है। यदि जल का अभाव हो, या शारीरिक कमजोरी-बीमारी के कारण स्नान संभव न हो, तो हाथ-पैर धोकर, वस्त्र बदलकर भी उपासना के लिए बैठा जा सकता है।

किसी स्थान पर स्वच्छ आसन पर बैठकर उपासना का क्रम प्रारंभ करें। अच्छा हो, घर या कमरे के एक हिस्से में पूजन का स्थान निश्चित कर लिया जाय। उस स्थान को कलश, गायत्री माँ या मंत्र का चित्र लगाकर सुसज्जित भी किया जा सकता है।

उपासना के समय जल का पात्र (आचमनी-पंचपात्र) एवं दीपक अथवा अगरबत्ती प्रज्वलित करके रखना चाहिए। जल एवं अग्नि की साक्षी में उपासना करने का शास्त्र मत है।

पहले संध्या-षट्कर्म करें:-

पवित्रीकरण:- शुद्ध आसन पर पालथी लगाकर-सुखासन से बैठे। बायें हाथ में जल लेकर दायें से ढकें। मन ही मन गायत्री मंत्र बोलें, मंत्र पूरा होने पर वह जल शरीर पर छिड़क लें। भावना करें कि प्रभु कृपा से पवित्रता का संचार हमारे शरीर, मन एवं अन्त:करण में हो रहा है।

आचमन:- आचमनी (चमची) से या दायें हाथ में जल लेकर, गायत्री मंत्र बोलते हुए क्रमशः तीन बार आचमन करें। भावना करें कि यह अभिमंत्रित जल हमारे तीनों शरीरों को समर्थ और सुसंस्कारी बना रहा है।

शिखा-वंदन:- गायत्री मंत्र का जप करते हुए शिखा-चोटी में गाँठ लागायें। चोटी न हो, तो उस स्थान को स्पर्श करें। भावना करें कि हम श्रेष्ठ-देव- संस्कृति के नैष्ठिक अनुयायी हैं। हम हमेशा उच्चतम आदर्शों का वरण करें और उन्हें प्राप्त करने की तेजस्विता हमें प्राप्त हो।

प्राणायाम:- कमर, मेरुदण्ड सीधा रखकर बैठे। भावना करें, परमात्मा की कृपा से हमारे चारों ओर दिव्य प्राण का सरोवर लहरा रहा है। हम पानी में मछली की तरह उसी दिव्य प्राण के बीच स्थित हैं।

गहरी श्वास खींचें। भावना करें कि श्वास के साथ दिव्य प्राण हमारे अन्दर प्रवेश कर रहा है और शरीर का कण-कण उसे सीख रहा है।

सहज रूप से थोड़ी देर श्वास रोकें। भावना करें कि दिव्य प्राण हमारे अन्दर स्थिर हो रहा है।

श्वास धीरे-धीरे छोड़ते हुए भावना करें कि शरीर के विकार श्वास के साथ बाहर जा रहे हैं।

थोड़ी देर सहज रूप से बाहर श्वास रोकें। भावना करें कि विकार दूर चले जा रहे हैं, अन्दर प्राण का प्रकाश उभर रहा है। यह एक प्राणायाम हुआ। ऐसे तीन प्राणायाम करें।

न्यास:-बायें हाथ में जल लें, दाहिने हाथ की पाँचों अँगुलियाँ मिलाकर जल का स्पर्श करें। गायत्री मंत्र से उस जल को अभिमंत्रित करें। अब गायत्री मंत्र का एक-एक खण्ड बोलते हुए एक-एक अंग को उस जल से स्पर्श (नीचे लिखे क्रम से) करें। भावना करें कि इस स्पर्श से हमारे प्रमुख अंग-उपांग देव प्रयोजनों के अनुरूप पवित्र और सशक्त बन रहे हैं।

१. ॐ भूर्भुवः स्वः - मस्तक को। २. तत्सवितुः - दोनों नेत्रों को। ३. वरेण्यम् - दोनों कानों को। ४. भर्गो - मुख को। ५. देवस्य - कण्ठ को। ६. धीमहि - हृदय को। ७. धियो यो नः - नाभि को। ८. प्रचोदयात् - हाथों -पैरों को।

पृथ्वी पूजन:- एक आचमनी जल गायत्री मंत्र के साथ पृथ्वी पर चढ़ायें तथा धरती माता को छूकर प्रणाम करें। भावना करें कि धरती माँ जिस तरह शरीर के पोषण के लिए अन्न आदि देती हैं, वैसे ही अन्त:करण के पोषण के लिए शुभ संस्कार प्रदान करे।

इस प्रकार षट्कर्म पूरे होने पर हाथ जोड़ कर गुरु वन्दना करें। भावना करें कि गुरु चेतना उपासना के समय हमारे संरक्षण एवं मार्गदर्शन के लिए हमारे साथ है:-

ॐ अखण्डमंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

आदिशक्ति माँ गायत्री का स्मरण करें। प्रार्थना करें कि वे उपासना के समय हमें प्रेरणा और शक्ति प्रदान करने के लिए दव्य प्रवाह के रूप में प्रकट हों, हमें दिव्य बोध करायें:-

ॐ आयातु वरदे देवि ! अक्षरे ब्रह्मवादिनि।
गायात्रिच्छन्दसां भातः ब्रह्मयोने नमोऽस्तुते।।

इतना क्रस पूरा करने में लगभग ४-५ मिनट समय लग सकता है। जब भावनापूर्वक माला लेकर अथवा बिना माला लिए ही (जैसा अनुकूल पड़े) जप करें। जप के समय ध्यान करें कि सूर्य के प्रकाश की तरह माँ का तेज हमारे चारों ओर व्याप्त है। जप के प्रभाव से वह रोम-रोम में भिद रहा है, हमारी काया, मन, अन्त:करण सब उससे अनुप्राणित एकाकार हो रहे हैं।

जप पूरा होने पर हाथ जोड़कर परमात्म-चेतना एवं गुरु चेतना को प्रणाम करें। विसर्जन की प्रार्थना करें।

ॐ उत्तमे शिखरे देवि ! भूम्यां पर्वतमूर्धनि।
ब्राह्मणेभ्यो ह्यनुज्ञाता गच्छ देवि यथासुखम्।।

विसर्जन के बाद जल-पात्र लेकर सूर्य की ओर मुख करके जल का अर्ध्य चढ़ायें। भावना करें कि जिस प्रकार पात्र छोड़कर जल सूर्य भगवान को अर्पित होकर वायुमंडल में संव्याप्त हो रहा है, उसी प्रकार हमारी प्रतिभा भी स्वार्थ के संकीर्ण पात्र से मुक्त होकर परमात्मा के निमित्त लगे और महानता को प्राप्त हो।

दीक्षित व्यक्ति आहार और निद्रा की तरह उपासना को भी जीवन का अंग बना ले। परम पू० गुरुदेव एवं वंदनीया माताजी के संरक्षण में की गयी उपासना, जीवन के अंतरंग एवं बहिरंग दोनों पक्षों को विकसित करती है। साधक की भावनाओं, विचारों एवं गुण-कर्म-स्वभाव में दिव्यता समाविष्ट होकर असाधारण लाभ का सुयोग उपस्थित कर देती।

 

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