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आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :32
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15472
आईएसबीएन :000000

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आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता

देने की क्षमता और लेने की पात्रता


देने वाला अधिकाधिक समर्थ है या लेने वाला। उसके उत्तर में लेने वाले की पात्रता को कम महत्त्व नहीं दिया जा सकता। बादल कितने ही क्यों न बरसे, टीले पर एक बूंद पानी नहीं रुकेगा, और चट्टान पर एक पता नहीं उगेगा। पानी उतना ही रुकेगा, जितना गड़ा हो। में क्षमता होने पर सभी नदियाँ उसमें जा मिलती हैं जबकि पहाड़ों आँखें न हों, तो दोपहर की धूप में भी कुछ न दीखेगा। कान न हों, तो मधुर संगीत और विज्ञान का लाभ कहाँ मिलेगा-मस्तिष्क पर मूढ़ता छायी हो, तो सत्संग परामर्श की उपयोगिता नहीं रह जाती। शिष्य की पात्रता विकसित हो, तो मिट्टी के द्रोणाचार्य, पत्थर के गिरधर गोपाल भी चमत्कार दिखा सकते हैं। समर्थ गुरु रामदास-शिवाजी का, चाणक्य-चन्द्रगुप्त का, रामकृष्ण परमहंस-विवेकानन्द का, विरजानन्द-दयानन्द का ही भला कर सके। यों उन लोगों के पास शिष्य नामधारियों की मंडलियाँ मंडराती ही रहीं, पर उनके पल्ले समर्थता का सान्निध्य पाने पर भी कुछ पड़ा नहीं।

गुरु गरिमा जितनी आवश्यक है, शिष्य की श्रद्धा, सद्भावना का महत्व उससे कम नहीं, वरन् अधिक ही है। उसके अभाव में मात्र वरदान-अनुदान पाने के लिए जिस-तिस की जेब काटने का मनोरथलेकर शिष्य बनने का आडम्बर ओढ़ने वालों के पल्ले कुछ नहीं पड़ता। भीतर की स्थिति प्रकट हुए बिना कहाँ रहती है ? छद्म से कौन प्रभावित होता है ? देवता, ऋषि और सिद्ध पुरुषों पर व्यक्ति अपनी श्रद्धा आरोपित करता है और गुरुतत्व उस टहनी को समर्थ रखने के लिए भाव-भरा योगदान प्रस्तुत करता रहता है। कलमी आम पर अपेक्षाकृत अधिक हैं। प्राण प्रत्यावर्तन की दीक्षा में यही होता है। इसे अंग प्रत्यारोपण, रक्तदान जैसी उपमा दी जाती है। दोनों अधिक घनिष्ठतापूर्वक बँधते और मिल-जुलकर किसी महान् लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं। विश्वामित्र-हरिश्चन्द्र, समर्थ गुरु रामदास शिवाजी, चाणक्य चन्द्रगुप्त जैसे युग्मों में इसी प्राण दीक्षा का आभास मिलता है।

अग्नि दीक्षा अत्यन्त उच्चस्तरीय है। इसे राजा द्वारा युवराज को अपने सामने ही उत्तराधिकारी घोषित करने के समान समझा जा सकता है। सिख गुरुओं में एक के बाद एक की नियुक्ति इसी प्रकार होती रही है। रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानन्द को इसी स्तरका अनुदान दिया था। इस स्तर की पात्रता और अनुकम्पा के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है। यह प्रसंग अत्यन्त उच्चस्तरीय होने के कारण अब तक इस सम्बन्ध में कभी प्रकाश नहीं डाला गया, पर महाप्रयाण से पूर्व अपने अन्तिम अंतरंग सन्देश में परम् पूज्य गुरुदेव ने प्रतिभाओं को ढूँढ़ने और उन्हें अग्नि दीक्षा में तपाकर भारतवर्ष को सवा लाख महापुरुष प्रदान करने का लक्ष्य बताया। आश्वमेधिक अभियान उसी के लिए एक विशिष्ट मंथन प्रक्रिया समझनी चाहिए। इस शताब्दी के अन्त तक दीक्षा द्वारा जुड़ने वाली आत्माओं में ही जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से- यथा- सेना विज्ञान, साहित्य, कला, कृषि, पर्यावरण, उद्योग, ज्योतिर्विज्ञान, अन्तरिक्ष विद्या के मूर्धन्य विकसित करने का कार्य चल पड़ा है। यही आत्मायें इस देश को प्रगति के चरम शिखर तक ले जायेंगी। अतएव इन दिनों दीक्षा का विशेष महत्व रहेगा। न जाने किस अन्तःकरण में उनका अग्नि तत्त्व प्रस्फुटित हो जाये। जिसकी लम्बे समय से आवश्यकता अनुभव की जा रही है।

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