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प्रतिभार्चन - आरक्षण बावनी

सारंग त्रिपाठी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1985
पृष्ठ :40
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15464
आईएसबीएन :0

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५२ छन्दों में आरक्षण की व्यर्थता और अनावश्यकता….

भूमिका

आचार्य पं. सिद्धिनाथ जी मिश्र
रीडर एवं अध्यक्ष हिन्दी विभाग
डी. ए. वी. कालेज

कानपुर

कविवर सारंग सा रंग देखने को भला कहाँ मिलेगा? सांख्य के पुरुष सदृश इनकी अष्ट-पदी गीतोक्त "भिन्न प्रकृतिरष्टधा' रचना-प्रकृति का मैं सदैव से ही तटस्थ दृष्टा रहा हूँ। और मैं जानता हूँ कि सृष्टि की रची-पची विकृतियों को पचा जाना इनका स्वभाव नहीं है। अतएव विभावन प्रक्रिया से प्रभावशाली आलम्बन-उद्दीपन-विधान द्वारा मच रहे कोहराम और प्रपंच-पाखण्ड में भी इनका काव्य एक अखण्ड राम भजन है। यह कोई मौन अजपा-जप नहीं, वरन् विश्रुत उद्गीथ, उद्घोषित संकीर्तन है। बहुश्रुतों में श्रीमद्भागवत की भक्ति-विभोर गलदश्रु भावुकता का प्रस्तुत श्लोक प्रचलित है।

वाग् गद्गदा द्रवतेयस्यं, चित्तं,
रुदत्यमीक्षणं हसंति क्वचिच्च।
विलज्ज उद्गायति नृत्यते च,
मद्भक्ति युक्त: भुवनम् पुनाति।।

श्री सारंग की अभीष्टार्पित भाव चेष्टा भी लगभग यही है। इनके काव्य-प्रवाह में "धुनिअवरेव कवित गुन जाती' छवियां दृष्टिगोचर होंगी। राशि-राशि मीन मनोहरा उच्छल अभिव्यक्तियां इस धारा को शक्तिमयी राधा बना देती हैं। धारा का विरोध ही राधा है। मरा मरा की रटना से वाल्मीकि-वाणी में अवतीर्ण राम 'उलटा नाम जपत जग जाना' अलमस्त कबीर की सी 'खड़ी' बोली। इस कवि की 'बावन अखरी में उतर आयी है। यह उलट बांशी व्यंजना शक्ति का ही चमत्कार है। खरों के प्रसंग में एक खरी सी प्रस्तुति। कौन कहेगा कि यह किसी को भी अखरी है ?

"नैया बिच नदिया डूबत जाय", "बरसेगा कम्बल भीजेगा पानी" कबीरदास की उलटी बानी। ले-देकर वही नैयायिक-न दिया वाला 'न्याय'। न्याय (या अन्याय) 'कम्बल का बरस पड़ना। निर्बल को न सताइये वाकी मोटी हाय।' जातीय संकीर्णताओं से बहुत ऊपर उठने की प्रेरणा। मात्र मानवीय करुणा का स्फूर्तिकारी सत्याग्रह ! गांधी की सुगन्ध के साथ!

"इसमें न जाति-पाँति की दीवार उठाओ
उनकी मदद करो कि जो सचमुच गरीब हों।"

वैसे तो अनुभूति संचार के साथ विचार और प्रचार के प्रकर्ष तक इन रचनाओं का प्रभाव पहुँच चुका है, परन्त कुछ स्थल तो ऐसे मार्मिक एवं हृदय स्पर्शी हैं कि आज की अस्तित्ववादी चिन्तन शीलता का प्रभूत संत्रासदायक दृश्य अंकित कर देते हैं। विषमता एवं भयानक वस्तु निष्ठा इस कलाकार के कलाम में किस कदर बरपा है इन पक्तियों में देखिये:

"सिर धुनके रो रहा है सत्य, कैसा शहर है ?
इन्साफ को फांसी ! बड़ा मनहूस पहर है !"

मध्ययुगीन दौर की अधुनातन परिवेश मूलक परिणति। जदीद माहौल की मनहूसियत का एक अजीबो-गरीब लेकिन बेबाक जायजा यहां मिलेगा –

यह सबके बूते की बात नहीं है।
करीब है यार रोजे महशर,
छिपेगा कुश्तों का खून क्यूँ कर।
जो चुप रहेगी जुबाने खंजर,
लहू पुकारेगा आस्तीं का।

रिनासां (Renaissance) युग के परिभाषी दार्शनिक स्पेन्सर (Spenser ) के शब्द स्मृति-पटल पर बेसाख्ता आ रहे हैं -

''The men of the renaissance were like captives in dark dangerous and they were suddenly returned to loveliness of the bright world.'"

सन्तोष का विषय है कि यह कवि अन्याय प्रतिशोधक होकर भी समग्रतया आशावादी साम्यमूलक आस्था का ही उन्नायक है।

"सोने सा देश अपना ये सबसे महान हो।
जड़ता-निशा का नाश हो व्यापक विहान हो।
ऊंचा न कोई नीचा यहां जाति-भेद से
फिर देश के हर लाल को सुविधा समान हो।

मेरा विश्वास है कि यह बावनी अवतरण व्यापक विराट बनकर बलि की 'चाह' का अवरेबी निर्वाह करेगा। प्रेरणा इसमें उस प्रभु की ही प्रतीत होती है। मैं इस अप्रतिम 'प्रतिभार्चन' का स्वागत करना हूँ।

सिद्धनाथ मिश्र
गान्धी जयन्ती, 1982
111/214 हर्ष नगर, कानपुर

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