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सुबह रक्तपलाश की - उमाकान्त मालवीय का तीसरा कविता संग्रह है…
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पुरोवचन
'सुबह रक्तपलाश की' मेरा तीसरा कविता संग्रह है। यह संग्रह आपके हाथ में है कुछ नवगीत और गीतनुमा कविताओं का यह संग्रह कैसा है यह आप जानें, हो सके तो बतलायें नहीं तो उपेक्षा कर दें, मुझे कोई शिकायत नहीं होगी। प्रथम कविता संग्रह 'मेंहदी और महावर' से लेकर 'सुबह रक्तपलाश की' तक आज की कविता के सन्दर्भ में मुझमें अनेक सवाल सिर उठाते रहे हैं। पुरोवचन के बहाने कुछ उन्हीं का जिक्र करना चाहूँगा। हिन्दी काव्यधारा त्वरा से रास्ते बदल रही है। सहज ही उसमें इतनी रूपगत, शिल्पगत और विषयगत विविधता है कि उससे एक सुखद आश्चर्य होता है।
मेरे अनेक मित्र हैं, जो गीत और तुकान्त कविता के तथा-कथित हिमायती और अतुकान्त मुक्तछंद के कट्टर आलोचक हैं, लेकिन बेचारे सही छंद भी नहीं लिख पाते। गति, यति, मात्रा दोष से घायल कविता के कवि जब अतुकान्त मुक्त छंद या छंद मुक्त कविता का उपहास करते हैं तो उनकी स्थिति 'आप मियाँ फजीहत, दीगराँ नसीहत' हास्यास्पद हो जाती है।
कविता की पहचान के लिये उसे रेखांकित अथवा परिभाषित करने के लिये लोगों ने हर सीमा को नकार दिया ताकि अपने द्वारा तथा अपने लोगों द्वारा रचे गये गद्य ही नहीं रुक्ष गद्य को भी कविता कहा जा सके लेकिन जब गीत की बात आती है तो संक्षिप्तता, भावनात्मक ऋजुता, वैयत्तिकता आदि तक उसे घोंट देने की दुरभिसंधि सिर उठाती है और गीत के प्रति हमारे शुभेच्छुओं का आग्रह, प्रेम जाग उठता है। क्यों नहीं हमारी आज की मानसिकता, सामाजिक परिवेश, व्यक्तित्व का दोगलापन, भूख, गरीबी, व्यंग विपर्यय की स्थिति आदि नवगीत का कथ्य बन सकता और इस मुद्दे पर गीत की युगों पुरानी परिभाषा जो अब अपर्याप्त हो गयी है आड़े आती है ?
आन्दोलनों के अन्तर्गत वह धारा विशेष, जिसका आन्दोलन है गति तो अवश्य पाती है, लेकिन उसमें कवि व्यक्ति की मौलिकता प्रायः शहीद हो जाती है। आन्दोलनों के अन्तर्गत धाराओं में लिखी जाने वाली कवितायें किंचित् अपवादों को छोड़कर कोरस सी ही लगती हैं। लगता है एक इमाम के पीछे अनेक लोग नमाज पढ़ रहे हैं अथवा एक कीर्तनियाँ अनेक लोगों को नचा घुमा रहा है। कोरस से, भूले भटके यदि कोई स्वर अलग-थलग बेसुरा जा पड़ता है तो वह अपने रचनाकार के साग्रह स्वाधीनचेता व्यक्तित्व के कारण नहीं वरन् कोरस के साथ न गा सकने के शऊर के अभाव में ही ऐसा होता है। धाराओं आन्दोलनों के अन्तर्गत व्यक्तित्व और कृतित्व की स्वतंत्र इकाई अथवा स्वाधीन सत्ता प्रायः लोप होती जा रही है। लगता है जैसे एक धारा के अन्तर्गत एक ही व्यक्ति अनेक शीर्षकों एवं नामों से कवितायें रच रहा है। यह स्वयं में चिन्त्य स्थिति नहीं है क्या ?
आन्दोलन के घेरे में मुझे नवगीत की भी यही स्थिति न हो जाय, इसका भय है। हमारी अभिव्यक्ति की एक निश्चित रूढ़ मुद्रा अथवा भंगिमा बन चली है। एक निश्चित मुहावरों के सेट का हम प्रयोग करने लगे हैं। यह स्थिति एक मोनोटनी से दूसरी मोनोटनी की यात्रा जैसी नहीं है क्या ? नयी कविता में वर्ण्य अथवा वर्णित विषयों का छन्दानुवाद ही तो नवगीत नहीं बनाता। अपने समान धर्मा नवगीतकारों से मैं इस सन्दर्भ में कुछ खुलकर बातचीत करना चाहूँगा।
हिन्दी नवगीत की हिमायत के अतिरिक्त उत्साह में कुछ बंधुओं ने बहुधा दावा किया है कि नवगीत अधुनातन सभी संवेदनाओं का वाहक हो सकता है तो दूसरी ओर उसके विरोधियों ने शिविराग्रही रूढ़ रुख अपनाते हुए घोषित किया कि नवगीत अथवा गीत अधुनातन भाव बोध को अभिव्यक्ति देने ओर सम्प्रेषित करने में असमर्थ है। इस सन्दर्भ में मेरा अपना निवेदन है कि गीत अथवा नवगीत अधुनातन संवेदनाओं का संवाहक तो है परन्तु सभी संवेदनाओं का नहीं। नवगीतकारों को यह जिद छोड़ देनी होगी कि नवगीत सभी आधुनिक संदर्भो को अभिव्यक्ति दे सकता है। यह एक अनावश्यक मिथ्या दावा है। मेरा अपना विश्वास है गीत नवगीत तो क्या कविता के विभिन्न रूप या साहित्य की समस्त विधाओं में कोई भी एक विधा इतनी सक्षम नहीं है जो सारे के सारे आधुनिक संदर्भों को अथवा अधुनातन संवेदनाओं को संप्रेषित कर सके। उदाहरण के लिए यदि केवल नयी कविता ही इतनी सक्षम होती तो ताजा गलत कविता, ठोस कविता अकविता तक निरन्तर नयी जमीन तोड़ने और नये क्षितिजों को तलाश करने की आवश्यकता या अपेक्षा नहीं होती। गीत से लेकर अकविता तक और उपन्यास अकहानी अनाटक तक सभी मिलकर आधुनिक संवेदनाओं को वहन करते हैं। हर विधा की अपनी सीमा होती है और उस सीमा के अनुरूप उसकी भूमिका भी। वस्तुतः आज जीवन और आदमी इतना बड़ा विशद और व्यापक हो गया है कि वह किसी एक दर्शन, मत, सिद्धान्त, धर्म, राजनैतिक मतवाद, नैतिकता, साहित्य की विधा आदि में अट नहीं पाता। आज के सन्दर्भो और संवेदनाओं को वहन, अभिव्यक्त एवं संप्रेषित करते हुए अपनी सीमाओं के अनुरूप नवगीत भी अपनी भूमिका निभा रहा है। इसे हमें निःसंकोच साहस सहित सगौरव स्वीकार करना चाहिये।
वे बड़े ही पुनीत क्षण रहे होंगे जबकि निराला ने कविता को छंद के रूढ़ बंधन से मुक्ति दी, लेकिन कालान्तर में वह मुक्ति इस देश की राजनैतिक मुक्ति की भांति अभिशप्त हो गयी। सभी क्षेत्रों में मुक्ति का अभिशप्त होना उसकी नियति मान ली गयी, मुक्ति उच्छंखृलता का पर्याय हो गयी और कविता गाली गलौज के चौराहे पर आ गयी। मुक्त छंद एक सशक्त माध्यम होने के बजाय कमजोर हाथों में होने के कारण आत्मघाती हो गया। कविता को पुन: मर्यादित करने की भूमिका नवगीत की भूमिका रही है। अधुनातन कटु-तिक्त, काषाय अनुभूतियों को अभिव्यक्ति देने के क्रम में भी उसे मर्यादित बनाये रखना नवगीत का कार्य रहा है। नयी कविता के उलझे हुए नितान्त अमूर्त बिम्बों से भिन्न नये बिम्बों में भी नवगीत का तेवर भावक को अपना निजी लगा, वह उसे बेगाना नहीं लगा।
किसी युग में अंगरेजी के शब्द 'कैरेक्टर के साथ बड़ा अन्याय हुआ। 'कैरेक्टर' एक व्यापक अर्थ वाला शब्द है उसकी अर्थवत्ता या अर्थसत्ता को बिना पूरी तरह सोचे समझे हमलोगों ने उसे केवल यौन नैतिकता की परिधि में घोंट दिया था। शब्दों के अर्थ को रूढ़ संकुचित बनाने की हमारी प्रकृति अथवा प्रवृत्ति का दूसरा शिकार हुआ 'प्रगतिशीलता'। प्रगतिशीलता को जीवन के उदात्त उद्धत शिव शुभ सभी व्यापक सन्दर्भों से काटकर, लाल सुबह, हँसिया हथौड़ा, किसान मजदूर हड़ताल आदि की सीमा में घोंट दिया गया। प्रगतिशीलता या सारी प्रगति नारों की कोल्हू परिधि में चक्कर खाती रही। प्रगति जैसे गतिमान शब्द को रूढ़ कर दिया गया।
इसी तरह हमारी इस प्रवृत्ति का ताजा शिकार है 'रूमान'। रूमान के व्यापक अर्थ की उपेक्षा कर आज उसे सस्ते प्रणय व्यापार के स्थूल निवेदनों आदि की चौहद्दी में कस दिया गया है। रूमान को अनिवार्यतः आधुनिकता विरोधी बतलाया जाता है। आधुनिकता के अतिरिक्त कृत्रिम उत्साह में फैशन के अन्तर्गत रूमान से लोग नाक भौं सिकोड़ लेते हैं और एक बहु प्रचलित निरर्थक फिकरा 'लिजलिजी भावुकता' कस देते हैं। आधुनिकता ऊपरी परिवेश में होती है या चिन्तन में ? ऊपरी परिवेश जन्य तथाकथित आधुनिकता पुष्पित और पल्लवित हुई है। प्रस्तुत क्षण की अपेक्षाओं के प्रति सतत् जागरूकता के अतिरिक्त मेरे निकट आधुनिकता का कोई अर्थ नहीं है। हर विद्रोही यदि वह वस्तुतः विद्रोही है तो अनिवार्यतः या अपरिहार्यतः रूमान प्रेरित होता है। एक व्यापक राग दृष्टि, एक विराट करुणा, एक सर्वव्यापी सहानुभूति उसके परिपार्श्व में होती है। अपने युग में तुलसी, कबीर, मीरा ने भी विद्रोह किया था, छायावादी कवियों ने भी प्रचलित काव्यधारा के विरुद्ध विद्रोह किया था, विशेषकर निराला, मुक्तिबोध, भुवनेश्वर ने तत्कालीन साहित्य विधाओं के विरुद्ध विद्रोह किया था; किन्तु इन सबको किसी प्रकार का ध्वज लेकर चलने की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई, फिर ऐसा आज क्या है कि कलम पकड़ते ही 'अमुक नाम पण्डा, तीन लोटे का झण्डा' पताका या साइनबोर्ड लेकर चलना जरूरी हो जाता है। कल कलम बाद में पकड़ी जाती थी उपनाम पहले रक्खे जाते थे। आज गिरोह, पताकायें और मैनिफेस्टो पहले तय होते हैं और लेखन बाद में प्रारम्भ होते हैं। विद्रोह की दिशा बदल गयी है कल मीरा राजमहल से सड़क पर आ गयी थी, आज सड़क से राष्ट्रपति भवन में पहुँचने के लिये क्यू लगी हुई है, यही कारण है कि अपने समय में चारण कहे जाने वाले अकेले भूषण ने जो कर दिया वह आज पद्मभूषणों की पलटन भी नहीं कर पा रही है। सारा का सारा विद्रोह एक अदद सरकारी अफसरी, सेठाश्रयी प्रतिष्ठान, पद, पुरस्कार, अकादमी, समितियों की सदस्यता प्राप्ति पर छीज जाता है।
स्वस्थ आत्मालोचन के आधार पर विवेक जन्य ग्राह्य अग्राह्य का नियमन तो समझ में आता है, किन्तु रुग्ण मनः स्थिति का परिचायक रूमान से परहेज समझ में नहीं आता। मेरा ऐसा अपना मत है कि अनेक सन्दर्भो में रूमान जिजीविषा का पर्याय होता है। वाल्मीकि की आदि कविता से लेकर भूखी पीढ़ी अकविता तक कविता ही नहीं वरन् कला के अन्य क्षेत्रों में जहाँ भी जिसके माध्यम से जीवन के परिष्करण, मार्जन की बात आती है, रूमान अपरिहार्य रूप से उसके मूल में होता है। ऐसा क्या है कि किसी भी झंझोड़ देने वाली घटना को, जो आपकी संवेदना को अनेक स्तरों पर स्पर्श करती है, की प्रतिक्रिया स्वरूप आप कविता, उपन्यास, कहानी, नाटक अथवा चित्र रचने लगते हैं। दूसरा कोई इस संदर्भ में आप की ही तरह क्यों नही रिएक्ट करता ? यही मैं मानता हूँ कि जीवन जगत के प्रति वही एक रूमानी दृष्टि है जो खरोंचे जाने अथवा उत्फुल्ल होने पर रचना या सृजन के लिये प्रेरित करती है और कालान्तर में यही रचना क्रम रचनाकार का धर्म बन जाता है। वह जो रचता है, वह जो सिरजता है, वह जो प्रदत्त व्यवस्था के प्रति विद्रोह करता है, सृजित रचित, यथावत् स्थिति को नकार कर उसे भंजित कर नया कुछ रचने को व्यग्र संकल्प संचालित अराजकतावादी है, वह सब अथवा वे सबके सब अनिवार्यतः एक रूमान दृष्टि से सम्पन्न और प्रेरित होते हैं। हर बड़े आदर्श की भित्ति रूमान पर होती है, रूमान मेरे निकट मूल्य है। इस सन्दर्भ में मैं विस्तार से चर्चा अपने अगले संग्रह 'एक चावल नेह-रींधा' में करना चाहूँगा जो रूमानी और प्रकृति चित्रण सन्दर्भ के गीतों का संग्रह है।
रचनाकार को विशेषकर नवगीतकार को, रूमान को अन्त्यज बनाकर रखने की इस घातक प्रवृत्ति से साग्रह बचना होगा अन्यथा कोरस धारा के अन्तर्गत उनके कृतित्व व्यक्तित्व की स्वाधीन इकाई सत्ता को खतरा पैदा हो सकता है।
नवगीत के सन्दर्भ में उसके उत्स और इतिहास की बात जब भी उठाई जाती है, निराला में उसका उत्स और तार सप्तकीय कवियों में उसका विकास देखा जाता है। निराला के प्रति पूर्ण सम्मान भावना रखते हुए कहना चाहूँगा कि निराला में नवगीत खोजना वह आर्यसमाजी प्रवृत्ति है जो हर उपलब्धि का उत्स वेद में देखती है और उपलब्धि के लिये जिम्मेदार व्यक्ति को उसका श्रेय देने से इनकार करती है। तार सप्तकीय कवियों में नवगीत विकास खोजना भी मुझे उस पटवारी की याद दिलाता है, जो किसी का पट्टा किसी और के नाम कर देता है। पंत ने लाख धोबियों और चमारों के नाच पर या कला और बूढ़ा चाँद कविता लिखी लेकिन उन्हें प्रगतिवादी, प्रयोगवादी या नयी कविता का कवि स्वीकार नहीं किया गया, वे मूलतः और अन्ततः केवल छायावादी कवि ही कहलाये। एकाध अपवादों को छोड़कर तार सप्तकीय कवि मूलतः नयी कविता के कवि हैं। नवगीत को सन् १९५८ में गीतांगिनी प्रकाशन के बाद ही जागरूक रचना मानस ने स्वीकार किया। तार सप्तकीय कवियों में नवगीत की तलाश कोई अर्थ नहीं रखती। मेरे एकाध मित्रों ने मेरे इस कथन से अपनी असहमति व्यक्त की है, उनकी असहमति के प्रति आदर रखते हुए कहना चाहूँगा कि अतुकान्त मुक्त छंद रचनायें संस्कृत में भी प्रचुर हैं लेकिन नयी कविता प्रयोगवादी कविताओं पर बात करते हुए उनका उत्स और विकास संस्कृत में तलाश नहीं किया जाता। भक्तसंत कवियों में भी रीति तत्व विद्यमान हैं तथापि उनमें रीतकाल का उत्स नहीं तलाशा गया, फिर नवगीत केसाथ ऐसा क्या है कि सिर्फ उसका इतिहास अधिक पुराना या उसकी उम्र अधिक सिद्ध करने के लिए हम उसे सप्तकीय कवियों से निराला तक खींच लेजायँ, मेरा यह कदापि मन्तव्य नहीं है कि जिसका जो प्राप्तव्य है वह उसे मिलना नहीं चाहिये, यह तो कृतघ्नता होगी फिर भी प्रश्न यह है कि जागरूक चैतन्य धरातल पर कब से नवगीत ने अपने को पारम्परिक गीत से अलग प्राप्त किया और कब उसने नयी कविता के काँपते हाथों से काव्य जययात्रा की पताका अपने समर्थ हाथों में सम्हाली इस पर बेबाकी से विचार होनाआपेक्षित है।
'मेंहदी और महावर' से 'सुबह रक्त पलाश की' कविता यात्रा के क्रम में प्राप्त व्यावहारिक अनुभव के आधार पर मुझे यह दुहराना नहीं चाहिये तथापि जो आदत में शुभार हो गया हो उसका इलाज ?अस्तु फिर कहना चाहता हूँ आशीष कीअपेक्षा है, सम्मतियों की वह फिसलन नहीं कि पाठक रपट जाय और निष्पक्ष मूल्यांकन ही न हो सके।
सम्प्रति इतना ही-
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