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गीले पंख

रामानन्द दोषी

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 1959
पृष्ठ :90
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15462
आईएसबीएन :0

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5 पाठक हैं

श्री रामानन्द 'दोषी' के काव्य-संग्रह ‘गीले पंख' में 33 कविताएं हैं…


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तुम अपनी पीर सम्हालो !


ये गीले गीले नैन, सिहरते बैन, बिखरती अलकें
मेरे आँसू क्या पोंछोगी, तुम अपनी पीर सम्हालो !

मुझ को पीड़ा में पलने का अभ्यास बहुत,
मेरी मंज़िल इसलिए हमेशा पास बहुत;
तुम मधु के सागर ले आईं, अहसान बड़ा -
उन की तुलना में लेकिन मेरी प्यास बहुत;

तुम मेरी गति में टूट-बिखर रह जाओगी,
तुम मेरी यति में अकुलाओ मुरझाओगी,
तुम मानो मेरी बात, न आओ साथ, रूप की रानी !
मेरी ज्वाला से आँचल तुम अपना सुकुमार बचा लो
तुम अपनी पीर सम्हालो।

मेरी साँसों में मौत-ज़िन्दगी साथ पलीं, 
मेरे आँगन में धूप-चाँदनी  साथ ढलीं;
मैं ओढ़ कफ़न ऊषा का चीर चुरा लाया --
मेरी बाँहों में डाल कँटीली, कुसुम, कली;

मैं दर्द, दवा को साथ-साथ पी लेता हूँ,
मैं प्यार, घृणा दोनों में ही जी लेता हूँ,
मुझ को ये कूल-कगार, लहर-मँझधार, शहर-वीराने--
दे ही देते हैं ठौर, कहीं तुम अपना नीड़ बसा लो !
तुम अपनी पीर सम्हालो !

हर एक फूल पर धूल-शूल के पहरे हैं,
इन सब अधरों पर गीत सिसक कर ठहरे हैं;
मैं ने जब भी मुड़ कर देखा, यह ही पाया --
जो घाव किये मीतों ने, वे ही गहरे हैं;

उन घावों की कैदों में एक लाचार खड़ी,
तड़पा करती है टीस बिचारी घड़ी-घड़ी,
उस की लाचारी गीत, तड़प संगीत, वक्त कट जाता --
मैं अपनी दुनिया में खुश, तुम अपना संसार सजा लो !
तुम अपनी पीर सम्हालो !

मैं ने जीवन में एक दोष बस यही किया,
अपनी भूलों को आगे बढ़ स्वीकार लिया;
यदि मिला दान में अमृत भी, ठुकरा पाया --
अपने हाथों से अर्जन कर के गरल पिया;

यदि चाहा होता स्वर्ग मुझे था दूर नहीं,
मैं सच कहता हूँ, घायल हूँ, मजबूर नहीं,
अपना अपना विश्वास, दूर या पास, पिया मिल जाते --
मेरी है अपनी राह, पंथ तुम अपना और बना लो !
तुम अपनी पीर सम्हालो !

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