नई पुस्तकें >> गीले पंख गीले पंखरामानन्द दोषी
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श्री रामानन्द 'दोषी' के काव्य-संग्रह ‘गीले पंख' में 33 कविताएं हैं…
33
गीले पंख
पंख
गीले और बोझिल
हो गए सहसा !
मैं अतल गहराइयों में
डूब कर आया,
हजारों मन सुकोमल पंख पर था
बोझ पानी का,
लगा था
अन्त आया जिन्दगानी का,
मगर था शेष कुछ ऐसा
कि मैं फिर आ गया तल पर,
तिरा, उभरा --
यही सच,
आदमी को हैं नहीं गहराइयाँ खतरा !
मुक्त नभ में
मैं कहीं ऊँचे,
बहुत ऊँचे
उड़ा हूँ।
जा चढ़ा हूँ
बादलों की स्वप्न कोमल,
कल्पना-सी,
तरल तनया गोद में।
और उन की फुहियों ने
जड़ दिए हैं पंख पर मेरे
असंख्यों शबनमी मोती।
लगा था
क़ब्र मेरी काश,
इन किन्हीं रंगीन गलियों में कहीं होती !
मगर था शेष कुछ ऐसा
कि मैं उन इन्द्रजालों से,
कि रम्भा, उर्वशी के
मस्त लहरे,
दूर तक फैले,
सजीले,
पहरुए-से
युक्त बालों से
बचा,
बच कर चला आया।
यही सच,
आदमी को घेर पाएगी नहीं
यह रूप की माया !
और,
अपनी इस धरा पर भी,
कभी अंधियार शूलों की,
कभी भिनसार फूलों की,
कभी मँझधार कूलों की,
कभी आँचल दुकूलों की
पड़ी थी बेड़ियाँ मेरे,
खड़े थे सैकड़ों बन्धन मुझे घेरे !
लगा था,
अब फिरेंगे ही नहीं
ये दिन, कभी फेरे।
मगर था शेष कुछ ऐसा
कि मैं फिर चल पड़ा था।
न खोया लक्ष्य अपना
यदि कहीं दो क्षण कभी
भूला खड़ा था।
यही सच
पन्थ है सौ बार उलझाता,
पर आदमी
सब गुत्थियों को खोल सुलझाता।
तो मतलब यह --
कि अनगिन बार
मेरे पंख गीले और बोझिल हो चुके हैं,
पाँव भी पथ पर रुके हैं,
किन्तु ऐसे कब थके हैं।
दूर मंज़िल तक पहुँचने के सबल अरमाँ,
हुए कब इस तरह काले ज़मीनो आसमाँ !
आज ऐसा लग रहा है
गति अगति से हारती है
और कुण्ठा
सर्पिणी-सी घेर बैठी है
समूचा मन,
श्रंखलाओं से जकड़ कर रह गई परवाज़ !
सोचता हूँ --
क्यों हुआ ऐसा ?
सच कहो,
तुम ने उदासी से भरी इस साँझ में
टेरा मुझे है ?
या, बहुत अकुलाहटों को आँख में भर कर
इस तमिस्रा में
कहीं हेरा मुझे है ?
या कि देहरी पर धरा है
आज जब तुम ने दिया,
याद से मेरी
तुम्हारा भर गया कोमल हिया?
छू गया वह दर्द तुम को,
पी रहा था आज तक जिस को यहाँ मैं
और हिरनौटे सदृश खोए नयन से
झर गए दो बूंद आँसू ?
जो कि मेरे पंख पर आ कर पड़े हैं !
शूल-जैसे जो कि मेरे वक्ष में आ कर गड़े हैं !
कील-जैसे जो कि मेरे पाँव में आ कर जड़े हैं !
जो कि एक दीवार-जैसे राह में मेरी खड़े हैं !..
सच बताओ,
क्योंकि मेरे पंख
गीले और बोझिल
हो गए सहसा !
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