नई पुस्तकें >> गीले पंख गीले पंखरामानन्द दोषी
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श्री रामानन्द 'दोषी' के काव्य-संग्रह ‘गीले पंख' में 33 कविताएं हैं…
32
संझा बेला
संझा बेला !
पंछी लौटे
पांत बनाए,
अपने-अपने
पर फैलाए,
ध्यान लगाए --
कहीं दूर नीड़ों में
उन के नेह-जतन के
चिह्न सरीखे
धरे हुए
कुछ कोमल तिनके।
और जहाँ,
खग-शावक अपनी
नन्ही-नन्ही चोंचें खोले
बाट जोहते होंगे,
मन में भाव लिए अनतोले-बोले !
इधर त्वरा है,
उधर प्रतीक्षा।
दोनों ओर
लगा है मन में
सुधियों की छवियों का मेला !
संझा बेला!
संझा बेला--
मैं एकाकी !
सोच रहा हूँ
कितना बाक़ी रहा चुकाना
कर्ज धरा का?
इतना ले-दे कर भी
कितना रह जाता है खोना-पाना ?
जहाँ न हो आया हूँ ,
ऐसा कौन ठिकाना ?
कौन ठौर ऐसा है
मुझ को जहाँ न जाना ?
मन भ्रमित,
थकित पग,
धूमिल हो आया मेरा मग।
नीड़ न कोई,
भीड़ न कोई,
रहा अकेला --
संझा बेला !
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