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गीले पंख

रामानन्द दोषी

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 1959
पृष्ठ :90
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15462
आईएसबीएन :0

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5 पाठक हैं

श्री रामानन्द 'दोषी' के काव्य-संग्रह ‘गीले पंख' में 33 कविताएं हैं…


14

अविवाहित माँ


एक प्रश्न है,
समाधान दो ।

पहला यह है --
तुझ को, मेरे लाल,
कहीं मैं दूर, बहुत ही दूर
किसी गहरे गड्ढे में,
किसी बड़े पत्थर के नीचे
रख दूँ, ढँक दूँ।
रख कर जाऊँ भूल--कभी तू भी जन्मा था,
रख कर जाऊँ भूल--कली कोई चटकी थी,
रख कर जाऊँ भूल--सृजन ने श्वास लिया था,
रख कर जाऊँ भूल--कि मैं ने पाप किया था।
पाप ?
हाँ, पाप।
यही तो है वह संज्ञा
जो दी जाती उस क्वाँरी को
बिना मन्त्र की आड़ लिए जो,
बिना गवाहों के संबल के
बन जाया करती है नारी।

नारी, यानी सृजन-शक्ति,
नारी, यानी मातृ-शक्ति,
नारी, यानी प्राण-शक्ति,
नारी, जो होती है धरती,
धारण कर ले जीव, ब्रह्म को।

हा, हतभागे ब्रह्म !
अनगिन, अनगिन बार गया तू दफ़नाया है !
अनगिन, अनगिन बार किसी कुन्ती ने तुझ को
हा, हतभागे कर्ण, रामलू, रोमूलस;
बहा दिया है.
जल में, जैसे धो डाला हो कोढ़
देह फिर कंचन-जैसी,
आँचल उजला
दामन बिलकुल साफ़ झकाझक !
और आत्मा, अन्तर या मन ?
उस को किस ने देखा, जाना !
जितना कुचला जाए उसे,
उतना ही बेहतर।

तो समाधान यह पहला -
मैं क्रूर अँगुलियों से तेरा अस्तित्व मसल दूँ !
एक हल्का-सा झटका दे कर डोर काट दूं!
जिस से तैरे और कहीं जा कर पतंग यह
कितनी सीधी सरल राह है ! 
 
लेकिन यह किस लिए ?
इस लिए, कि दुनिया जाने
मैं हूँ परम अछूती और अभोगित ?
और इसी 'लेबिल' के बल पर चुनी जा सकूँ
किसी पुरुष के द्वारा फिर भोगी जाने को ?
वाह ! क्या भविष्य है !!

नहीं, मुझे यह नहीं चाहिए !
ये रंगीन सपन की गलियाँ
बहुत भटक कर देख चुकी हूँ।
मुझ को धोखा देने में
ये सब अक्षम हैं,
मेरे भव की तुलना में
बेहद कम हैं।
प्रकृति अगर अपने नियमों पर धर्मनिष्ठ है,
(इसी लिए तो तू है क्वाँरी पुत्र !)
मैं भी नारी कर्मनिष्ठ हो ही सकती हूँ !
जब मैं ने अस्तित्व दिया है तुझ को,
तो जीवन भी दूंगी !
एक नई दुनिया भी दूंगी !
तेरे लिए लड़गी मैं निर्बुद्ध जगत से !
अपने प्राणों से सींचूँगी
मैं तेरी हर एक साँस को।
तुझ को दूंगी एक सुन्दर उज्ज्वल भविष्य मैं
जो पैग़म्बर और खुदा के बेटे का था।
इसलिए नहीं, कि तू कहलाए पैग़म्बर या
किसी ख़ुदा का बेटा,
या और करिश्मा कोई
जोड़ा जाए नाम से तेरे,
(क्योंकि करिश्मों का 'सीज़न' अब खत्म हो चुका)
बल्कि इस लिए --
तू यह जाने,
दुनिया जाने,
एक महाकायर का बालक
(और बड़ी गाली क्या दूँ तेरे मूढ़ पिता को ?)
अपनी माँ के नेह-जतन से
बन जाता इनसान,
नया इनसान
युग के हर कल्मष को
धोने वाला
महा-महामानव !

मेरा यह विश्वास रूप ले कर जागेगा,
मेरे अपमानों का बदला लेना होगा
तुझ को।
बदला
यानी फिर यह प्रश्न,
परिस्थिति ऐसी
कहीं किसी बाला के सम्मुख
कभी न आए।
(नहीं हुआ यदि ऐसा,
तो यह तेरा कंठ
आज जो अति कोमल है,
तब चाहे जितना भी हो जाए बलशाली,
दबा सकूगी निज हाथों से 
यह भी सच है)
इसी लिए, यह समाधान मुझ को पसन्द है !
अच्छा , अब तू सो जा
मुझ को काम बहुत है !

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