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गीले पंख

रामानन्द दोषी

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 1959
पृष्ठ :90
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15462
आईएसबीएन :0

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श्री रामानन्द 'दोषी' के काव्य-संग्रह ‘गीले पंख' में 33 कविताएं हैं…


13

बन्दी-जीवन की आखिरी शाम


मेरे बन्दी-जीवन की यह शाम आखिरी
कल ही जैसी
घुटी-घुटी-सी औ' बोझिल है !
कल ही जैसा
श्लथ है तन, मन !
सारा जीवन
भटके एक बटोही-सा है !

जाने कितने दिवस बिताए,
रातें काटी
इन्हीं कल्पनाओं के ताने-बाने बुनते
'मुक्ति मिलेगी,
खोल परों को उड़ जाऊँगा मुक्त गगन में !
उतरूँगा अपने आँगन में !'

आँगन,
जिस में सिमटी, सिकुड़ी
मेरी अमित अभागिन पत्नी
आँखों में भर अटल प्रतीक्षा
काट रही जीवन प्रतिपल है !
आँगन,
जिस में जग-ठुकराए
मेरे उन सुकुमारों की एक
सहमी-सहमी-सी हलचल है !
मेरा प्रत्यावर्तन
जिन की आशाओं का दृढ़ सम्बल है !
कैसा छल है !

मेरे बन्दी-जीवन की यह शाम आखिरी
कल ही जैसी
घुटी-घुटी-सी औ' बोझिल है।

और आज, जब मुक्ति-दिवस मेरा आया है,
किरण-पालकी रुकी द्वार पर आ कर मेरे,
श्रम-अधिनायक --
(झिलमिल स्वेद-कणों से जिस का मुकुट जड़ा है)
मेरी अगवानी-स्वागत के लिए खड़ा है,
उड़ने को आकाश पड़ा है,

देख रहा हूँ --
पथ में मेरे
अवरोधों का दुर्ग अड़ा है।
कल मेरी कारा के द्वार खुलेंगे, लेकिन
नगर, ग्राम, पुर, पौर, हाट
देंगे कपाट !
मैं द्वार-द्वार पर दस्तक दूंगा जा कर, लेकिन
बहरे कान नहीं सुन पाएँगे पुकार
मेरी गुहार !
मैं लाख दुहाई दूं ईमान-धरम की, लेकिन
अविश्वास से दहक उठेगी हर निगाह,
मुश्किल निबाह !
मैं बेच फिरूँगा
कौड़ी-बदले
अपने श्रम को जा कर दर-दर,

लेकिन उस का मोल मिलेगा
धक्का-मुक्की, दुरदुर, ठोकर,
गाली-गलौज,
हूँगा तबाह !
रक्तबीज-सा पनपेगा
मेरा गुनाह !
पहला गुनाह !
मैं चिन्हित अपराधी जो हूँ।
मेरा आगत तिमिर-सिन्धु-सा अगम, अतल है !
दुर्भाग्य अचल है !
मेरे बन्दी-जीवन की यह शाम आखिरी
कल ही जैसी
घुटी-घुटी-सी औ' बोझिल है !

मैं चिन्हित अपराधी, जेलो,
दण्ड न्याय ने जिसे दिया है।
यह समाज का न्याय !
हाय, यह न्याय !!
जो हृदयहीन,
जो नयनहीन,
जो क्षमाहीन,
अतिशय कुलीन,
केवल मशीन !
यह समाज का न्याय !
हाय, यह न्याय !!
नहीं खोजने अपराधों का कारण जाता !
यह केवल अपराधी का ही भाग्य-विधाता !
वज्र करों से करता है अंधा प्रहार,
अति क्रूर वार !

यह जान न पाता
अपराधों का दायित्व नहीं अपराधी पर ही,
उस के ज़िम्मेदार और भी बहुत लोग हैं,
उस में हिस्सेदार और भी बहुत लोग हैं,
जेलों के हक़दार और भी बहुत लोग हैं।
यह समाज का न्याय !
हाय, यह न्याय !!
जो दण्ड दिया करता है अपराधी को केवल,
कब देता सोपान प्रगति के धवल शिखर का ?
लाभ न देता है सुधार के ही अवसर का,
हृदय के उच्च स्तर का !

सोच रहा हूँ --
कल जब मुझ को मुक्ति मिलेगी,
नहीं हिलेगी
शिला, धरी जो मन के उपर ?
जग मजबूर करेगा मुझ को
अपराधों की दुनिया में फिर से जाने को ?
पशु-जैसा बन्दी हो कर फिर
कारा के भीतर आने को ?

जेलों में आने-जाने का
क्या यह क्रम अविकल, अविचल है ?
प्रश्न आज है, कल था, कल है !

मेरे बन्दी-जीवन की यह शाम आखिरी
कल ही जैसी
घुटी-घुटी-सी औ' बोझिल है !

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