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प्रेरक कहानियाँ

डॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15422
आईएसबीएन :9781613016817

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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

समर्थ गुरु रामदास

शिवाजी महाराज सतारा में अपने गढ़ पर विश्राम कर रहे थे, तभी एक साधु ने द्वार पर आकर अलख जगाई । शिवाजी ने देखा कि स्वयं समर्थ गुरु रामदास भिक्षापात्र लेकर खड़े हैं। उनका मन प्रसन्न हो गया। समर्थ गुरु रामदास की महिमा उनको ज्ञात थी, आज स्वयं उनको द्वार पर देख वे अपने भाग्य को सराहने लगे।

शिवाजी महाराज के वे गुरु थे, उन्होंने उनसे दीक्षा ली हुई थी।

आज उन्हें अपने दरवाजे पर भिक्षुक के रूप में खड़े पाकर शिवाजी ने मन में एक विचित्र निर्णय किया कि आज गुरु महाराज को असाधारण भिक्षा दी जानी चाहिए। यह सोच कर उन्होंने कागज-कलम उठाये और उस पर 'दान-पत्र' लिख दिया। उसे उन्होंने सोने के थाल में रखा और दौड़ कर गुरुजी की सेवा में उपस्थित हो गये। चरणस्पर्श किये और भिक्षा के रूप में दान-पत्र सहित वह सोनेका थाल आगे कर दिया।

गुरु महाराज ने कागज उठाया और पढ़ा। उन्होंनेदेखा,कि यह तो दान-पत्र है। शिवाजी ने अपना सारा राजपाट, धन-धान्य, अधिकार आदि सब कुछ दान कर दिया था।

गुरु जी महाराज कुछ क्षण तक विचार करते रहे फिर बोले, "राजन! राजपाट लेकर साधु क्या करेंगे। अपना यह दान-पत्र तुम ही सँभालो। हमारे भिक्षा पात्र के लिए तो दो मुट्ठी अन्न ही पर्याप्त होता है।"

शिवाजी दिया हुआ दान वापस नहीं लेना चाहते थे। यह दान उन्होंने किसी भय अथवा अन्य कारण से नहीं किया था, यह तो उन्होंने स्वेच्छा से किया था।

महाराज के वापस लेने के आग्रह करने पर शिवाजी बोले, "महाराज! दिया हुआ दान कौन वापस लेता है? फिर मैं तो महाराज जी का शिष्य हूँ। मुझे इस कुमार्ग पर क्यों डाल रहे हैं।"

गुरुजी भी सोचने लगे। फिर बोले, "अच्छी बात है, हमें दान स्वीकार है। हम तुम्हें इस राज्य का प्रधान नियुक्त करते हैं और तुम इसकी पूर्ववत् सारी व्यवस्था सँभालो।"

शिवाजी महाराज को सुझाव पसन्द आया। उन्होंने गुरुजी की चरणपादुकाएँ ली और उनको ले कर भरत की भाँति पादुकाएँ सिंहासन पर विराजमान कर दीं। गढ़ पर भगवा झण्डा फहराने लगा। देश-भर में समर्थ गुरु रामदास का शासन चलने लगा।

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