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प्रेरक कहानियाँ

डॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15422
आईएसबीएन :9781613016817

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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

बोध जागरण

अभिरूप कपिलकौशाम्बी के राज पुरोहित का पुत्र था । वह आचार्यइन्द्रदत्त के पास अध्ययन करने के लिए श्रावस्ती गया । आचार्य ने नगर सेठ के यहाँ उसके भोजन की व्यवस्था कर दी किन्तु कपिल वहाँ भोजन परोसने वाली सेविका के रूप पर मुग्ध हो गया। वसन्तोत्सव पास आने पर उस सेविका ने अभिरूप कपिल से सुन्दर वस्त्र और आभूषणों की माँग रख दी।

अभिरूप कपिल के पास तो कुछ भी नहीं था। तो सेविका ने ही उसे उपाय सुझाते हुए कहा, "श्रावस्ती नरेश का नियम है कि प्रातःकाल सर्वप्रथम उन्हें जो अभिवादन करता है, उसे वे दो माशा स्वर्ण प्रदान करते हैं। तुम प्रयत्न कर सकते हो।"

अभिरूप कपिल ने दूसरे दिन कुछ रात रहते ही महाराज के शयन-कक्ष में प्रवेश करने की चेष्टा कीऔर द्वारपालों ने उसे चोर समझकर पकड़लिया। जब महाराज के सम्मुख उसे उपस्थित किया गया तो पूछे जाने पर उसने सारीबातें सच-सच बता दीं। महाराज ने उसके भोलेपन पर प्रसन्न होकर कहा, "तुम जो चाहो माँग लो। तुम जो भी माँगोगे दिया जायेगा।"अभिरूप ने कहा, "तब तो मैं सोच कर माँगूंगा।"

उसे एक दिन का समय मिल गया था। वह सोचने लगा-'दो माशा स्वर्ण तो बहुत कम है, क्यों न सौ स्वर्ण मुद्राएँ माँग ली जाएँ? किन्तु सौ स्वर्ण मुद्राएँ कितने दिन चलेंगी? यदि सहस्र मुद्राएँ माँयूँ तो? ऊँ हुँ। ऐसा अवसर क्या जीवन में फिर कभी आयेगा? इतना माँगना चाहिए कि जीवन सुखपूर्वकव्यतीत हो। तब तो लाख मुद्राएं, भी कम ही हैं। एक कोटि स्वर्ण मुद्राएं ठीक होंगी।'

वह सोचता रहा, सोचता रहा और उसके मन में नये-नये अभाव पैदा होते गये। उसकी कामनाएँ बढ़ती गयीं। दूसरे दिन जब वह महाराज के सम्मुख उपस्थित हुआ तब उसने माँग की, "आप अपना पूरा राज्य मुझे दे दें।"

श्रावस्ती नरेश के कोई सन्तान नहीं थी। वे धर्मात्मा नरेश किसी योग्य व्यक्तिको राज्य सौंप कर वन में तपस्या करने जाने का निश्चय कर चुके थे। अभिरूप कपिल की माँग से वह बहुत प्रसन्न हुए। यह ब्राह्मण कुमार उन्हें योग्य पात्र प्रतीत हुआ। महाराज ने उसको सिंहासन पर बैठने का आदेश दिया और स्वयं वन जाने को तैयार हो गये।

महाराज ने कहा, "द्विजकुमार! तुमने मेरा उद्धार कर दिया। तृष्णारूपी सर्पिणी के पाश से मैं सहज ही छूट गया। कामनाओं का अथाह कूप भरते-भरते मेरा जीवन समाप्त ही हो चला था। विषयों की तृष्णारूपी दल-दल में पड़ा प्राणी उससे पृथक् हो जाय, यह उसका बड़ा सौभाग्य है।"

अभिरूप कपिल को जैसे झटका लगा। उसका विवेक जाग्रत् हो गया। वह बोला, "महाराज! आप अपना राज्य अपने पास ही रखें। मुझे आपका दो माशा स्वर्ण भी नहीं चाहिए। जिस दल-दल से आप निकलना चाहते हैं, उसी में गिरने को मैं प्रस्तुत नहीं हूँ।"

अभिरूप कपिल वहाँ से चल पड़ा, अब वह निर्द्वन्द्व, निश्चिन्त औरप्रसन्न था।  

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