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प्रेरक कहानियाँ

डॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15422
आईएसबीएन :9781613016817

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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

संयम की सीख

एक बार स्थूलभद्र नाम के एक सज्जन अत्यन्त विलासी हो गये थे। किन्तु जब उनके विवेक ने उन्हें जगाया तो सचमुच जाग्रत हो गये। यद्यपि उन्होंने अपने जीवन के बहुमूल्य बारह वर्ष नर्तकी कोशा के यहाँ व्यतीत किये थे किन्तुआचार्य से दीक्षा लेकर वैराग्य ग्रहण करने के पश्चात उनका संयम, उनकी एकाग्रता, उनकीतपश्चर्या कभी भंग नहीं हुई।

एक दिन आचार्य ने अपने शिष्यों से पूछा, "इस बार चातुर्मास कहाँ करेंगे?"

आचार्य के दो शिष्य पहले ही अपना स्थान चुन चुके थे, इसनिए उन्होंने बता दिया। तीसरे ने कहा, "मैं सिंह की गुफा में चातुर्मास करूँगा।"आचार्य ने उन्हें अनुमति भी दे दी।

आचार्य ने जब स्थूलभद्र से पूछातो उसने कहा, "मैं ये चार महीने कोशा के घर पर व्यतीत करना चाहता हूँ।"

 "ये चार माह तो क्या चार जन्म भी उसी पाप गृह में व्यतीत करेंगे। वह नर्तकी यह कैसे भूलसकते हैं ?"गुरुभाइयों ने परस्पर कानाफूसी करनी प्रारम्भ कर दी।

यह सुन कर आचार्य गम्भीर हो गये। दो क्षण विचार करने के उपरान्त उन्होंने स्थूलभद्र से"तथास्तु।"कह दिया

कोशा नर्तकी थी, वेश्या थी, किन्तु स्थूलभद्र में उसका अनुरागसच्चा था। स्थूलभद्र जब से उसे छोड़ कर गये थे, वह रात-रातभर जाग कर रोती रही थी। आज वही स्थूलभद्र उसके यहाँ पधारे थे, यह और बात कि अब वे मुनिवेश में थे। कोशा ने उनका स्वागत किया। उनके निवास की सुन्दर व्यवस्था की और उनको रिझाने कीकोशिश में लग गयी। वह नर्तकी थीऔर पुरुषों को परखना जानती थी, पहचान सकती थी। शीघ्र ही उसने समझ लिया कि उसके आभूषण, उसके भव्य वस्त्र औरउसका अद्भुत शृंगार अब स्थूलभद्र को आकर्षित नहीं कर सकते। यह सब शृंगार स्थूलभद्रके त्यागी चित्त को उससे और विमुख करेगा। कोशा ने आभूषण उतार दिये। शृंगार करना बन्द कर दिया। वह केवल एक सफेद साड़ी पहनने लगी तथा दासी की भाँति स्थूलभद्र कीसेवा में लग गयी। इससे भी जब स्थूलभद्र आकृष्ट नहीं हुए, तब एक दिन उनके पैरों पर गिर कर वह फूट-फूट कर रोने लगी।

स्थूलभद्र बोले, "कोशा, मैं तुम्हारे दुःख से बहुत दुःखी हूँ। तुमने मेरे लिए जीवन अर्पित कर दिया, भोग त्याग दिये, किन्तु सोचो तो सही, क्या जीवन इसीलिए है? नारी क्या केवल भोग की सामग्री मात्र है? तुम्हारे भीतर जो मातृत्व है उसे पहचानो। नारी का सच्चा रूप है माता! वह जगत् को मातृत्व का स्नेह देने उत्पन्न हुई है,!"

विशुद्ध प्रेम हृदय में वासना नहीं उत्पन्न करता, हृदय को निर्मल करता है। कोशा का प्रेम सच्चा था, उसकी वासना स्थूलभद्र के शब्दों से नष्ट हो गयी। उसने स्थूलभद्र के चरणों में मस्तक रख दिया और उन्हीं से दीक्षा ले ली इस प्रकार उसका जीवन बदल गया।

चातुर्मास समाप्त करके सभी शिष्य आचार्य के पास पहुँचे। स्थूलभद्र के सम्बन्ध में वे अनेक आशंकाएं और सम्भावनाएँ कर रहे थे किन्तु जब स्थूलभद्र पहुँचे तो उनका शान्त, गम्भीर वओजपूर्ण भाव देख कर सब शान्त हो गये। आचार्य ने उन्हें अपने समीप आसन दिया।

अगला चातुर्मास आया तो आचार्य के तीसरे शिष्य ने कोशा के यहाँ रहने की इच्छा व्यक्त की। आचार्य बोले, "तुम अभी इसके योग्य नहीं हो।"

शिष्य ने आग्रह किया "जब सिंह की गुफा में निर्भय रह सकता हूँ तो वहाँ भी स्थिर रह सकूँगा।" और आचार्य ने खिन्न मन से आज्ञा दे दी।

वह कोशा के घर पहुंचे। कोशा अब नर्तकी नहीं थी। अब वह सादे वेश में पूर्ण संयमपूर्वक रहती थी। उसने नये मुनि का भी स्वागत किया। रहने की भी सुव्यवस्था कर दी। कोशा में अब न मादक हाव-भाव था न मोहक शृंगार, किन्तु उसके सौन्दर्य पर ही मुनि मुग्ध हो गये। अपने मन के संघर्ष से पराजित होकर उन्होंने अन्त में कोशा से उसके रूपकीयाचना की।

स्थूलभद्र की शिष्या कोशा चौंकी। परन्तु उसमें नर्तकी का बुद्धि कौशल तो था ही। उसने कहा, "मैं तो धन की दासी हूँ। आप नेपाल नरेश से रत्न-कम्बल माँग कर ला सकें तो मैंआपकी प्रार्थना स्वीकार कर लूंगी।"

वासना अन्धी होती है। मुनि का संयम-नियम सब छूट गया। वह पैदल ही जंगल पर्वतों में भटकते नेपाल पहँचे और वहाँ से रल-कम्बल लेकर लौटे। कोशा ने उपेक्षापूर्वक रत्न-कम्बल लिया, उससे अपने पैर पौंछे और उसे गन्दी नाली मेंफेंक दिया।

इतने श्रम से प्राप्त उपहार का यह अनादर देख कर मुनि क्रोधपूर्वक बोले, "मूर्ख! इस दुर्लभ, कम्बल को तू नाली में फेंकती है!"

कोशा ने तीक्ष्ण स्वर में उत्तर दिया, "पहले तुम देखो कि तुम अपना अमूल्य शीलरत्न कहाँ फेंक रहे हो।"

मुनि को धक्का लगा। सोया हुआ विवेक जाग उठा। उन्होंने हाथ जोड़कर कोशा को प्रणाम कर कहा, "मुझे क्षमा कर दो देवि! तुम मेरी उद्धारिका हो।"

चातुर्मास कब का बीत चुका था। आचार्य के चरणों में उपस्थित होकर जब उन्होंने सब बातें बताईं, तब आचार्य बोले, "प्रतिकूल परिस्थिति से बचे ही रहना चाहिए। संयम को स्थिर रखने के लिए यह नितान्त आवश्यक है।"  

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