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प्रेरक कहानियाँ

डॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15422
आईएसबीएन :9781613016817

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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

सज्जनता

एक सेठ ने किसी काल में एक मन्दिर बनवाया और पूजा करने के लिए एक पुजारी को नियुक्त कर दिया। किसी प्रकार की आर्थिक कठिनाई न आये और मन्दिर का कार्य सुचारु रूप से चलता रहे, इसके लिए सेठ ने बहुत-सी भूमि, खेत-उद्यान आदि मन्दिर के नाम कर दिये। सेठ का प्रबन्ध कुछ ऐसा था कि मन्दिर में जो भी दीन-दुःखी आये अथवा साधु-सन्त पधारें, उनके दो-चार दिन ठहरने की व्यवस्था हो। इसके लिए सेठ को एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता हुई जो सारी सम्पत्ति का प्रबन्ध कर सके और मन्दिर के सब कार्यों को ठीक प्रकार से चलाता रहे।

इस स्थान के, लिए बहुत से लोगों ने निवेदन किया। वे लोग इस लालच से आये कि यदि प्रबन्धक का काम मिल गया तो वेतन भी अच्छा मिलेगा। किन्तु उस सेठ को उनमें कोई भी उचित व्यक्ति दिखाई नहीं दिया और उसने उनमें से किसी को भी नियुक्त नहीं किया।

वापस जाने वालों में कुछ ऐसे भी लोग थे जो मन ही मन सेठ को गालियाँ देने लगे। कुछ लोग उसे मूर्ख समझते थे। सेठ का कहना केवल इतना ही था कि उसे इस कार्य के लिए एक भला व्यक्ति चाहिए। खुलेआम आरोप लगने लगे, किन्तु सेठ ने उन पर ध्यान नहीं दिया। मन्दिर के पट खुलने पर सेठ सामने बने हुए अपने मकान की छत पर चढ़ जाता और वहाँ से मन्दिर में आने-जाने वालों को देखता रहता था।

एक दिन एक आदमी मन्दिर में दर्शन करने आया। वह पुराने और फटे वस्त्र पहने हुए था। बहुत पढ़ा-लिखा भी नहीं जान पड़ता था। जब वह भगवान के दर्शन करके जाने लगा तब तक सेठ नीचे उतर आया था। उसने उस व्यक्ति को बुलाया और पूछा, "क्या आप इस मन्दिर की व्यवस्था सँभालने का कार्य करेंगे?"

वह व्यक्ति आश्चर्य में पड़ गया। बोला, "मैं तो बहुत पढ़ा-लिखा नहीं हूँ। मैं इतने बड़े मन्दिर का प्रबन्ध कैसे कर सकूँगा?"

"मुझे बहुत विद्वान नहीं चाहिए। मैं तो किसी भले व्यक्ति को मन्दिर का प्रबंधक बनाना चाहता हूँ।"

"आपने इतने आगन्तुकों में मुझे ही भला क्यों माना?"

"मेरी आत्मा कहती है कि आप सज्जन पुरुष हैं। मैं देख रहा था कि मन्दिर के मार्ग में एक ईंट का टुकड़ा गड़ा रह गया था और उसका एक कोना ऊपर को निकला हुआ था। मैं बहुत दिनों सेदेखता था कि उस ईंट की नोक से लोगों को ठोकर लगती थी। लोग गिरते थे किन्तु उठकर आगे चल देते थे। आपको उस टुकड़े से ठोकर नहीं लगी , आपने उसे देखा और फिर उसे उखाड़ कर फेंकने का यत्न किया और मेरे मजदूर से फावड़ा लेकर उस टुकड़े को उखाड़ कर आपने वहाँ की भूमि समतल कर दी। ऐसी सुबुद्धि आज तक किसी में भी नहीं आयी थी।"

वह व्यक्ति बोला, "यह तो कोई बात नहीं है। रास्ते में पड़े काँटे और कंकड़ या फिर ठोकर लगने योग्य पत्थर, ईंटों को हटा देना तो प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है।"

सेठ ने कहा, "अपने कर्तव्य को जानने वाले और फिर उसका पालन करने वाले लोग ही सज्जन पुरुष होते हैं।"सेठ ने उस व्यक्ति को मन्दिर का प्रबन्धक बना दिया। उस सज्जन व्यक्ति की सुन्दर व्यवस्था से मन्दिर की प्रसिद्धि दिनों दिन बढ़ती गयी।

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